twitter
    For Quick Alerts
    ALLOW NOTIFICATIONS  
    For Daily Alerts

    आखिर क्या रह गई है ‘एडल्ट’ की परिभाषा?

    By कन्हैया कोष्टी
    |

    अहमदाबाद। दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले को लेकर पूरा देश उद्वेलित है और पीड़िता की मौत के बाद तो मानो देश में उबाल आ चुका है। पूरा देश उन लोगों को महिलाओं का दुश्मन मान बैठा है, जो अपनी ही इस मानव जाति का हिस्सा हैं। यदि पीड़िता किसी माता-पिता की पुत्री थी, तो इस एक घटना के लिए जिस एक वर्ग विशेष (जिसे आज गंदी नजरों वाले पुरुष) को दोषी ठहाराया जा रहा है, वह भी तो किसी माता-पिता की ही संतानें हैं और यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अतिरेक हर चीज का बुरा होता है।

    दिल्ली गैंग रेप कांड को लेकर चलाई जा रही मुहीम पर जो सार्वजनिक बहस छिड़ी हुई है, उसमें सबसे बड़ा पक्षपात यही है कि इस बहस में एक महत्वपूर्ण पहलू को सिरे से खारिज और नजरअंदाज किया जा रहा है। यहाँ तक कि गुस्से से लाल-पीले होकर प्रदर्शन करने उतरे प्रदर्शनकारियों खासकर युवतियों और महिलाओं के हाथों में रहे बैनर्स-पोस्टर्स हमारे समाज को दो भागों में विभक्त करने पर आमादा नजर आते हैं।

    Delhi gangrape issue changes definition of adult

    आखिर यह शोर किसके खिलाफ है? क्या किसी मानसिकता के खिलाफ है या फिर बलात्कारियों के खिलाफ यदि बलात्कारियों के खिलाफ है, तो वो जेल में पहुँच चुके हैं और पीड़िता की बददुआ से बहुत जल्द अपने अंजाम तक भी पहुँच जाएँगे, लेकिन यदि बात मानसिकता की है, तो फिर उन बैनर्स-पोस्टर्स को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए, जो सार्वजनिक शुचिता और नारी-सम्मान तथा नारी-गौरव को ही क्षीण कर रहे हैं।

    ज्ञान और विज्ञान में फर्क

    दरअसल हर समस्या का हल हमारी भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में मौजूद है। ज्ञान और विज्ञान में यही फर्क है। विज्ञान रोग मिटाता है, जबकि ज्ञान रोग की जड़ को मिटाता है। विज्ञान में रोग के पुनः पनपने की पूरी-पूरी संभावना रहती है, जबकि ज्ञान जड़ ही उखाड़ फेंकता है। दिल्ली के इस पूरे मसले पर आज का हमारा तथाकथित आधुनिका और सुधि मीडिया बड़ी-बड़ी बहस और चर्चाएं करवा रहा है, लेकिन सारी चर्चाएँ निरर्थक ही होंगी, क्योंकि हर चर्चा में केवल एक ही पक्ष को सुना जा रहा है। अरे भैया, इस बात की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता। प्रत्यक्ष रूप से हत्या करने वाले को भी उसकी बात रखने का मौका दिया जाता है।

    लेकिन आज के मीडिया की अंधी दौड़ तो देखिए, वह दूसरे पक्ष को बोलने देने तक को तैयार नहीं है। ताजा उदाहरण ही देखिए। राजस्थान के एक भाजपा विधायक ने क्या कह दिया कि स्कूलों में स्कर्ट पहनने पर रोक लगनी चाहिए। क्या कोई आम भारतीय पिता चाहता है कि उसकी बेटी स्कूल में स्कर्ट पहन कर जाए? स्कूल प्रबंधन के आगे लाचारी के कारण ही माता-पिता अपनी बेटियों को ऐसे कपड़े पहनने देते हैं और विवशतापूर्वक छूट भी देते हैं, जिसे लोग आम भारतीय की ओर से मिली मान्यता समझ लेता है। उन विधायकजी ने बयान दिया, तो मीडिया वाले यूँ भड़के, मानो पता नहीं क्या गजब ढा दिया।

    सारा खेल दृश्‍य का है

    ज्ञान कहता है, गीता कहती है कि दृश्य का ही संसार है। जिसकी आँखें बंद है, उसके लिए संसार नहीं है। इसे और गूढ़ता से समझें, तो मानव शरीर में पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। रूप (आँख), रस (जीभ), गंध (नाक), स्पर्श (त्वचा) और श्रवण (कान)। जरा सोचिए। एक शव के शरीर में भी ये पाँचों इन्द्रियाँ विद्यमान होती हैं, लेकिन क्या वे अब काम करती हैं। क्या उसके लिए यह संसार अब है? नहीं ना। पाँचों इन्द्रियों के विषयों से बनता है संसार और इस संसार की ओर ले जाने का पहला काम शुरू होता है आँखों से। आँखें देखती हैं, तभी तो मन मांगता है, जीभ स्वाद चाहती है, त्वचा छूना चाहती है और कान भी उसी तरह काम करते हैं।

    लेकिन मौजूदा दौर की इस ज्वलंत समस्या के लिए कोई सुधि मीडिया दृश्य को जिम्मेदार मानने को तैयार ही नहीं है। जैसे ही फिल्मों और धारावाहिकों में अश्लीलता या फिर लड़कियों-महिलाओं के कपड़ों की बात की जाती है, तुरंत लोग उद्वेलित हो जाते हैं। क्या यह सवाल उठाने वाला व्यक्ति किसी बहन का भाई, बेटी का पिता या माँ का बेटा नहीं है?

    इस दलील पर कुछ लोग

    कहते हैं कहते हैं नशा शराब में होता तो नाचती बोलत...दोष मीडिया का नहीं दोष बाजार वाद है...इसलिए लोगों ने दाल-रोटी चलाने के लिए सारी नैतिकता को दांव पर रख दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि साहित्य और सिनेमा समाज का आईना है जो कुछ भी समाज में घटित होता है वो ही प्रस्तुत किया जाता है। इसलिए कहना उचित नहीं कि बॉलीवुड फैला रहा अश्‍लीलता.. बल्कि कहना यह चाहिए बॉलीवुड अश्लीलता बेचता है क्योंकि बिकता यही है..। आज अगर एक वेबसाइट पर मैरिकाम और सन्नी लियोन दोनो हैं तो लोग मैरिकॉम की जगह सन्नी पर ज्यादा क्लिक करेंगे। चाहे ते आजमा कर देख लीजिये।

    लेकिन इस बिगाड़ के पीछे कोई तो कारण होगा। यह मान लीजिए कि जब कोई बच्चा बहरा पैदा होता है, तो बड़ा होकर गूंगा भी होता, क्योंकि उसने शब्दों का श्रवण नहीं किया होता। इसी प्रकार जब हम सुबह घर से कोई अच्छी धुन सुन कर निकलते हैं (जो पब्लिक मीडिया से ही आ रही होती है), तो दिन भर उसका मनन चलता है। यदि पब्लिक मीडिया एक पब्लिक जिम्मेदारी है। शरीर तो वो भी बेचती हैं, जिन्हें समाज वेश्या कहता है, लेकिन वह शहर के एक कोने में बैठ कर। यदि शरीर बेच कर-दिखा कर ही पैसा कमाना है, तो फिर अश्लीलता और नग्नता का मानदंड तय किया जाना चाहिए। क्या स्तन के दो बिंदु (जिसमें से दूध पीकर हम और आप आज इस योग्य हैं कि इतनी स्वच्छ बहस कर सकते हैं) और केवल वह योनि छिद्र (जहाँ से हम और आप दोनों ही इस दुनिया में अवतरित हुए हैं।) क्या स्तन के दो बिंदु और केवल वह योनि छिद्र ही अश्लीलता का मानदंड हैं।

    क्या इन दो चीजों को छिपाना भर ही कपड़ों का कार्य है। इन पर रोक सरकार को लगानी ही चाहिए। कोई व्यक्ति बिगड़ जाए और कोठे पर जाने लगे, तो उसे कोठे की ओर जाने से रोका जा सकता है, लेकिन जहाँ कदम-कदम पर कोठे वाली हालत हो, तो फिर क्या किया जाना चाहिए? क्या बॉबी के लिए ए सर्टिफिकेट देने वाला सेंसर बोर्ड शीला और मुन्नी पर फिदा है। क्या महेश भट्ट का अपनी बेटी को सरेआम चूमना और उससे शादी की इच्छा सार्वजनिक तौर पर जताना सार्वजनिक शुचिता को दर्शाता है। वैसे इस कलियुग में कहाँ पिता द्वारा पुत्री पर बलात्कार की घटनाएँ नहीं होतीं। वह पिता यदि दोषी है, तो महेश भट्ट भगवान महेश तो नहीं ही कहे जा सकते।

    सिर्फ पैसे पर चलता है बॉलीवुड

    बॉलीवुड वही दिखाता है, जिससे उसे पैसे मिलते हैं। याद कीजिए, जब शोले फिल्म 75 सप्ताह चलने का रिकॉर्ड बनाती थी। आज की फिल्में चलने पर रिकॉर्ड नहीं बनातीं, बल्कि सौ करोड क्लब-दो सौ करोड क्लब के रिकॉर्ड बनाती हैं। बस नग्नता दिखाओ और लूट लो इन्डिया को। क्या आप इस बात से सहमत नहीं हैं कि फिल्में पब्लिक मीडिया का एक हिस्सा हैं? जिस प्रकार कोई साहित्य, पुस्तक, किताब, ग्रंथ, टेलीविजन, इन्टरनेट पब्लिक मीडिया का हिस्सा हैं, उसी तरह फिल्में भी इसी का हिस्सा हैं। अब आप इतिहास से भी अवगत होंगी कि देश-दुनिया के अनेक महान व्यक्ति कहीं न कहीं किसी साहित्य-वांचन-दृश्य से ही प्रेरित हुए और इतने बड़े व्यक्ति बने।

    ठीक उसी तरह पब्लिक मीडिया में आने वाली हर चीज आम आदमी को प्रभावित करती है। ऐसे में फिल्मों में बढ़ती नग्नता को सार्वजनिक शुचिता (शुद्धता) को बिगाड़ने के लिए दोषी कैसे न ठहराया जाय? मेरी भी एक बच्ची है। क्या बड़े अच्छे लगते हैं... का वह बेडरूम का लम्बा दृश्य हम दोनों साथ मिल कर देख सकते हैं? यह सारी चीजें दिखाने के लिए बाकायदा ए सर्टिफिकेट लिए जाने का प्रावधान है, लेकिन सेंसर बोर्ड ही सो गया है। कहीं किसी पर कोई लगाम नहीं है।

    English summary
    The discussion started after Delhi gangrape has been changed the definition of adult now in the community. People saying media is fully responsible for molestations.
    तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
    Enable
    x
    Notification Settings X
    Time Settings
    Done
    Clear Notification X
    Do you want to clear all the notifications from your inbox?
    Settings X
    X