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थिएटर अब भी पहली प्राथमिकता है: नसीर
नसीर अब अपनी अगली फ़िल्म बारह आना के साथ एक बार फिर से दर्शकों के मनोरंजन के लिए तैयार हैं. बारह आना वास्तविक जीवन में घट रही घटनाओं पर आधारित एक कॉमेडी फिल्म है.
हाल ही में उन्होंने बीबीसी संवाददाता दुर्गेश उपाध्याय से अपनी फ़िल्मों,थिएटर,निर्देशन वगैरह को लेकर लंबी बातचीत की.
नसीर साहब शुक्रिया हमसे बात करने के लिए. सबसे पहले तो अपनी इस नई फिल्म बारह आना के बारे में बताइए.कैसा अनुभव रहा है और आपको इस फिल्म में क्या दिलचस्प लगा
मैं आजकल जिन फ़िल्मों का हिस्सा हूं उनमें अपने किरदार के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता हूँ.ये मेरी पहले आदत हुआ करती थी.अब मैं किसी भी अच्छी कहानी का हिस्सा बनना चाहता हूं और आमतौर पर इस तरह की फिल्में छोटे बजट की ही होती हैं.हांलाकि फिल्म के निर्देशक राजा मेनन से पहले से मेरा कोई ताल्लुक नहीं था लेकिन मुझे कहानी अच्छी लगी और मुझे लगा कि इस फिल्म का साथ देना चाहिए.
फ़िल्म वास्तविक जीवन से जुड़ी हुई एक कॉमेडी है.क्या ये हमें आपकी सत्तर के दशक की बहुचर्चित फिल्म जाने भी दो यारों की याद दिलाएगी?कितना मज़ा आया इसे करने में.
( हंसते हुए..) जी,मज़ा तो बहुत आया.लेकिन यहां ये कहना चाहूंगा कि मैं इसकी तुलना जाने भी दो यारों से नहीं करना चाहूंगा क्योंकि मेरे ऐसा करने से लोगों की उम्मीदें इस फिल्म से काफी बढ़ जाएंगी.हां इतना ज़रुर है कि फ़िल्म काफी मज़ेदार है और ये मुंबई की सही तस्वीर पेश करती है.
नसीर साहब,ऐसा देखने में आरहा है कि पिछले कुछ सालों में आपने स्थापित निर्देशकों के बजाय ढेर सारे नए निर्देशकों के साथ काम किया है क्या वजह है?
मैं खुद को काफी खुशकिस्मत मानता हूं कि नए ज़माने के निर्देशक अब भी मुझे इस लायक मानते हैं कि मैं उनके काम आ सकूं.मैने अपने पूरे करियर में तकरीबन ढाई सौ फिल्में की होंगी.जिनमें से डेढ़ सौ फिल्में नए निर्देशकों के साथ की हैं और सौ स्थापित निर्देशकों के साथ. मैं यहां ये कहना चाहूंगा कि स्थापित निर्देशकों के साथ काम करके मैं कई बार पछताया हूं लेकिन नए लोगों के साथ काम करके कभी मुझे पछताना नहीं पड़ा है.
इस लंबे करियर में आपने हर तरह के रोल किए हैं जिनमें से कई प्रयोगात्मक भी हैं.ये बताइए कि किसी भी रोल को चुनते समय किन बातों पर ध्यान रहता है?
देखिए,मैं वही करता हूं जो मेरा दिल करता है.अगर मेरा दिल किसी फिल्म में काम करने का नहीं करता तो फिर चाहे कुछ भी हो जाए मैं उसे नहीं करता हूं.मैं अब काम को आनंद के लिए करता हूं और मैने देखा है कि जब भी किसी काम को करने में मज़ा नहीं आया है वो फिल्म सफल नहीं हो पाई है.
पिछले कुछ सालों में एक नए तरह का सिनेमा उभरकर आया है.एक तरह से कहा जाए तो अब समानान्तर और व्यवसायिक फिल्मों का फर्क मिट सा गया है.हिंदी सिनेमा में आए इस बदलाव के बारे में क्या कहना चाहेंगे.
मैं काफी खुश हूं कि ऐसा हुआ है.मुझे सख्त नफ़रत है कला फिल्मों और व्यवसायिक फिल्मों जैसे शब्दों से क्योंकि ये शब्द घर कर जाते हैं लोगों के दिमाग में और कई अच्छी फिल्मों को वो समय भी नहीं देते. मुझे बेहद खुशी है कि कुछ नॉन फॉर्मूला फिल्मों को पिछले कुछ सालों में कामयाबी मिली है जैसे इक़बाल,हनीमून ट्रैवेल्स प्राइवेट लिमिटेड,ए वेडनस्डे और रॉक ऑन.इस तरह की फिल्में दस साल पहले नहीं बन सकतीं थीं.सत्तर के दशक में जो बेहतरीन फिल्में बनीं वो इन फिल्मों का आधार बन गईं,वर्ना अगर वो फिल्में न बनी होतीं तो ये फिल्में भी न बन पातीं.
अच्छा ये बताइए कि एक साथ कई फिल्मों में काम करने के बावजूद थिएटर के लिए कैसे समय निकाल लेते हैं.
आदमी अगर चाहे तो हर चीज़ के लिए वक्त निकाल सकता है. ( ज़ोर से हंसते हुए..) जैसे किसी ने कहा है कि वो आठ घंटे कहां रह जाते हैं जो रह जाते हैं जब आप आठ घंटे सो रहे होते हैं और आठ घंटे काम कर रहे होते हैं.
नसीर साहब,आपने कुछ सालों पहले निर्देशन की भी शुरुआत की थी, उस दिशा में आगे कुछ प्लान किया है आपने
फिलहाल नहीं.अभी थिएटर से ही जुड़े रहना चाहता हूं.कुछ नए नाटक मंचित करना चाहता हूं.इस साल फिल्मों में अभिनय करने का भी मन नहीं कर रहा है तो निर्देशन तो दूर की बात है.
नए निर्देशकों की एक फौज आई हुई है. उनमें से आपको किसमें ज़्यादा संभावनाएँ दिखती हैं.
अनुराग कश्यप पूरे मुल्क भर में मुझे काफी दिलचस्प निर्देशक लगते हैं.मुझे उनकी सारी फिल्में पसंद आईं हैं.हांलाकि वो सारी अलग हैं.उमेश कुलकर्णी नाम के एक सज्जन हैं जो पूना में रहते हैं वडू नाम की एक फिल्म उन्होंने मराठी में बनाई है और नीरज पांडे ...आने वाले समय में आपको ये नाम और ज़्यादा सुनाई देंगे.