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पढ़ेंः सदाशिव अमरापुरकर को क्यों नहीं समझ पाया बॉलीवुड
सदाशिव अमरापुरकर आज भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन उन बेहतरीन अभिनेताओं में से थे जिन्होंने रंगमंच की दुनिया से लेकर सिनेमाई दुनिया के रंगीन पर्दे पर अपनी कला का रंग चढ़ाया। 80, 90 के दशक के पसंदीदा विलनों से एक अमरापुरकर ने थियेटर से लेकर फिल्मी जगत तक कई अवार्ड जीते। लेकिन नए कलेवर लिए आगे बढ़ रहा बॉलीवुड 90 के दशक के बाद मानो अमरापुरकर जैसे कलाकारों की अहमियत भूल गया। यह बात सिर्फ हम नहीं नहीं बल्कि थियेटर जानकार भी मानते हैं। रंगमंच निर्देशक और लेखक मृत्युंजय प्रभाकर की हमसे बातचीत हुई तो उन्होंने सदाशिव के जीवन और बोलिवुड की सच्चाई की कुछ परतें उखेड़ीं:
सदाशिव की अदाकारी की महत्ता को आखिर क्यों नहीं समझ पाया बॉलीवुड!
रंगमंच निर्देशन के क्षेत्र में पिछले कई सालों से सक्रिय व लेखक मृत्युंजय प्रभाकर ने कटाक्ष किया है। प्रभाकर कहते हैं कि सदाशिव को सोशल मीडिया पर तो उन्हें कुछ दिनों पहले ही निपटा दिया गया था। जबकि फिल्म उद्योग उन्हें भूले बैठा था, इक्का-दुक्का फिल्मों की बात छोड़ दें तो। भारतीय फिल्म उद्योग में जिन कुछ अभिनेताओं को देखते हुए अफ़सोस होता था कि उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हुआ उनमें सदाशिव भी थे। एक अभिनेता के तौर पर धन पिपाशु निर्माता-निर्देशकों ने तो बहुत पहले उनकी हत्या कर दी थी। उन्हें अपने ही निभाए चंद किरदारों की छाया बनकर रहने को मजबूर कर दिया गया जैसा की फिल्म उद्योग का चलन है।
समाज से जुड़े रहे हमेशा
फिल्म अर्ध सत्य से लेकर सड़क और आँखें तक अभिनय के जिस रेंज का मुजाहिरा उन्होंने किया वो दर्शाता है कि उनके अभिनेता की भूख बची रह गई। एक और मौत उन्हें उनके समाज ने भी देने का काम किया। ज्यादातर लोग जहाँ प्रसिद्धि पाने के बाद खुद को आम लोगों से काट लेते हैं वहीँ वे लगातार विभिन्न मंचों से उनसे जुड़ने की कोशिश में रहे।
समाज नहीं भी नहीं समझा उन्हें
चाहे वह उनके जन्म स्थान अहमदनगर से जुड़ा ट्रस्ट हो या दाभोलकर द्वारा चलाया जा रहा अन्धविश्वास निर्मूलन समिति का काम हो। पिछले साल होली पर होने वाले पानी की बर्बादी के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उनके ही मोहल्ले के लोगों ने उनकी पिटाई कर उनकी आत्मा की लाश निकाल दी थी। ऐसे समय में जब मनोरंजन की दुनिया के सारे महानायक जैसे लता, अमिताभ और सचिन तार्किकता के खिलाफ चलने वालों संगठनों के पिछलग्गू बने थे, सदाशिव जैसे लोग उम्मीद की किरण की तरह थे। उन्हें नमन।
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