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'सरदार उधम' फिल्म रिव्यू- दिल को छूता है इतिहास का यह पन्ना, विक्की कौशल का शानदार प्रदर्शन
निर्देशक- शूजित सरकार
कलाकार- विक्की कौशल, शॉन स्कॉट, स्टीफन होगन, कर्स्टी एवर्टन, अमोल पाराशर, बनिता संधू
पटकथा- रितेश शाह, शुबेंदु भट्टाचार्य
प्लेटफॉर्म- अमेज़न प्राइम वीडियो
"जंग बड़ी बईमान चीज है, आपको लगता है कि आप जीतते हो, लेकिन कोई जीतता, सिर्फ नफरत जीतती है", लंदन में पंजाब के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ'डायर को गोलियों से छलनी करने के बाद जेल में सरदार उधम सिंह अपने वकील से कहते हैं। 21 साल तक लगातार इंतजार करने के बाद, 13 मार्च 1940 को उधम सिंह ने माइकल ओ'डायर पर छह की छह गोलियां दागकर अपना प्रण पूरा किया था।
साल 1919 में पंजाब के अमृतसर में रॉलेट एक्ट के तहत कांग्रेस के सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार करने के बाद हजारों की तादाद में लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए थे। यह पूरी तरह से एक शांतिपूर्ण सभा थी, जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे। वहां भाषण चल रहा था, जब ब्रिटिश जनरल डायर अपनी पूरी फौज को लेकर वहां दाखिल हो गए और बाहर जाने का एकमात्र रास्ता भी बंद कर दिया। इसके बाद पूरी फौज ने वहां मौजूद भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरु कर दी। इस हत्याकांड में हजारों लोगों की जान चली गई। इस पूरे हत्याकांड में जनरल डायर का साथ दिया था उस समय पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओ'डायर ने। उधम सिंह इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे। इसके बाद उन्होंने प्रण लिया था कि वो जनरल डायर और माइकल ओ'डायर से इसका बदला लेंगे।
कहानी
फिल्म की शुरुआत 1931 के पंजाब से शुरु होती है, जहां जेल में बंद उधम सिंह को रिहा किया जाता है। पुलिस की उनपर कड़ी निगरानी रहती हैं, लेकिन वो किसी तरह चकमा देकर वहां से निकल जाते हैं और लंदन पहुंचने के लिए संपर्क जुगाड़ने लगते हैं। अलग अलग देशों से होते हुए वह 1934 में लंदन पहुंचते हैं। और वहां मौजूद क्रांतिकारी भारतीयों से संपर्क साधते हैं। उनकी मदद से उधम सिंह अपने लिए पिस्तौल का इंतजाम करते हैं। 6 सालों तक वह लंदन में अलग अलग नौकरी करते हैं। इस बीच उन्हें पता चलता है कि 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रायल सेन्ट्रल एशियन सोसायटी का संयुक्त अधिवेशन होने जा रहा है, जहां माइकल ओ'डायर भी आमंत्रित है। उधम सिंह अपनी किताब में बंदूक छिपा कर यहां पहुंचते हैं और माइकल ओ'डायर पर छह की छह गोलियां बरसा देते हैं। तुरंत ही वहां मौजूद पुलिस उन्हें पकड़ लेती है। उन पर मुकदमा चलाया जाता है और फांसी की सजा सुनाई जाती है। हाथ में भगत सिंह की तस्वीर पकड़े उधम सिंह फांसी पर चढ़ जाते हैं।
कहानी
इस बीच फ्लैशबैक में हमें उधम सिंह की जिंदगी के अलग अलग पड़ांव को दिखाया जाता है। 17-18 की उम्र में उनमें एक भोलापन नजर आता है, फिर धीरे धीरे वो भगत सिंह की बातों से प्रभावित होते हैं और आजादी की लड़ाई का जुनून सिर पर चढ़ता है। वो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिब्लिकन एसोशिएशन में शामिल हो जाते हैं। लेकिन उधम सिंह के व्यक्तित्व में बड़ा बदलाव आता है अमृतसर में 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड को देखकर। उस नरसंहार को अपनी आंखों से देखकर दर्द और गुस्से से भरे उधम सिंह प्रण लेते हैं कि वो उस वक्त रहे पंजाब के गर्वनर माइकल ओ'डायर को मार गिराएंगे। इस प्रण को पूरा करने में उन्हें 21 साल लगे।
अभिनय
उधम सिंह के किरदार में विक्की कौशल ऐसा रच बस गए हैं कि उन पर से नजर ही नहीं हटती। भगत सिंह के साथ उधम सिंह का तालमेल हो, प्रेमिका के साथ व्यक्तित्व में एक भोलापन हो, जलियांवाला बाग हत्याकांड को आंखों से देखने का दर्द हो या अपनों को खो देने के बाद का गुस्सा.. विक्की कौशल के चेहरे पर आए हर भाव दिल छूते हैं। हर घटना के साथ उधम सिंह के व्यक्तित्व में आए बदलाव को अभिनेता ने बखूबी दिखाया है। इस फिल्म के लिए विक्की कौशल की जितनी तारीफ की जाए, कम है। उधम सिंह की दोस्त/प्रेमिका के किरदार में बनिता संधू ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। भगत सिंह बने अमोल पराशार छोटे से रोल में हैं, लेकिन अच्छे लगे हैं। वहीं, ब्रिटिशर्स के किरदारों में शॉन स्कॉट, स्टीफन होगन, कर्स्टी एवर्टन बेहतरीन रहे हैं।
निर्देशन
शूजित सरकार की फिल्मों में एक ठहराव होता है। पीकू, मद्रास कैफे, अक्टूबर.. सभी फिल्मों में संवाद के साथ साथ एक साइलेंस होती है, जो काफी प्रभावी होती है। फिल्म 'सरदार उधम' में भी पहले दृश्य से इन बातों का अहसास होता है। सरदार उधम के किरदार को उन्होंने बेहतरीन ढ़ंग से बांधा है। कहानी बहुत ज्यादा फ्लैशबैक और वर्तमान में चलती है, लेकिन ध्यान नहीं भटकाती है। खास बात है कि उन्होंने हर किरदार को शानदार तरीके से शेप किया है। चाहे वो पंजाब में भारत की आजादी के लिए लड़ रहे स्वतंत्रता सेनानी हों या लंदन में बैठे राज कर रहे अंग्रेज। फिल्म जहां कुछ अटकती है, वह है अंतिम के 30 मिनट। फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है जलियांवाला बाग हत्याकांड, लेकिन वह कुछ मिनटों के बाद खिंचा हुआ और दोहराता सा लगता है। किसी घटना को प्रभावी दिखाने के लिए उसे लंबे समय तक दिखाना अनिवार्य नहीं होता है। बहरहाल, इतिहास पर फिल्में बनाना आसान नहीं होता, लेकिन शूजित सरकार ने छोटे से छोटे तथ्यों से लेकर लोकेशंस तक पर अच्छा काम किया है।
तकनीकी पक्ष
तकनीकी पक्ष में फिल्म मजबूत दिखती है। मानसी ध्रुव मेहता, दिमित्री मालिच द्वारा किया गया प्रोडक्शन डिज़ाइन बेहद शानदार है। फिल्म की कहानी 1919 से 1940 तक चलती है और लोकेशंस और सेट्स के मामले में फिल्म कहीं भी अपनी निराश नहीं करती है। फिल्म का साउंड डिजाइन किया है दिपांकर जोजो चाकी और निहार रंजन सामल ने, जो कि कहानी के साथ साथ बेहतरीन चलती है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमेटोग्राफी फिल्म को प्रभावी बनाती है। पंजाब से लेकर रूस और लंदन तक के दृश्य को उन्होंने अपने कैमरे में बेहतरीन कैद किया है। फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा होता है एडिटिंग, जिसे किया है चंद्रशेखर प्रजापति ने, लेकिन फिल्म इस मामले में थोड़ी कमजोर दिखती है। फिल्म को आराम से 15 से 20 मिनट छोटा किया जा सकता था, जिससे उसके प्रभाव में कोई कमी नहीं आती। फिल्म की लंबाई की वजह से कुछ दृश्य दोहराए से लगते हैं। रितेश शाह द्वारा लिखा गया संवाद आपका ध्यान फिल्म से बांधे रखती है। बता दें, फिल्म के ज्यादातर संवाद अंग्रेजी भाषा में हैं, वहीं कुछ हिस्सा पंजाबी में।
देंखे या ना देंखे
देश के शूरवीर क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह की ये कहानी दिल छूती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश कई घटनाओं से गुजरा था, कुछ घटनाओं पर चर्चा हुई, जबकि कुछ इतिहास के पन्नों में दब कर रह गई। उधम सिंह की कहानी को दबे पन्ने से बाहर निकालकर लाए हैं शूजित सरकार। निर्देशक ने फिल्म के साथ पूरी तरह से न्याय किया है। वहीं, सरदार उधम के रोल में विक्की कौशल ने शानदार अभिनय किया है। 'सरदार उधम' को फिल्मीबीट की ओर से 3.5 स्टार।
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