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    ट्रेन धमाकों की पृष्ठभूमि पर बनती फ़िल्में

    By दुर्गेश उपाध्याय
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    मुबंई में वर्ष 2006 में हुए ट्रेन बम धमाकों को आधार बना कर बन रही है कई फ़िल्में
    बॉलीवुड की फ़िल्में सामयिक घटनाओं से अछूती नहीं रहती है. इसका ताज़ा उदाहरण है मुंबई में हुए ट्रेन बम धमाकों को लेकर बनने वाली फ़िल्में.

    इन फ़िल्मों में से कुछ रिलीज़ हो रही हैं और कुछ का निर्माण कार्य चल रहा है.

    पिछले हफ़्ते रिलीज़ हुई निशिकांत कामथ की फिल्म 'मुंबई मेरी जान' की कहानी का आधार 11 जुलाई 2006 को मुबंई में हुए ट्रेन बम धमाके थे.

    इन बम धमाकों में लगभग 200 लोगों की मौत हुई थी. फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामथ कहते हैं, "ये फ़िल्म किसी बड़ी दुर्घटना से उबरने की एक कोशिश को दर्शाती है. मुंबई मेरी जान की कहानी सिर्फ़ मुंबई या इस घटना के बारे में नहीं बल्कि किस तरह से लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं इस बारे में है."

    मुंबई मेरी जान एक भावनाप्रधान फिल्म है जबकि पाँच सितंबर को रिलीज़ होने जा रही फ़िल्म 'वेडनस्डे' एक थ्रिलर है.

    ये फ़िल्म किसी बड़ी दुर्घटना से उबरने की एक कोशिश को दर्शाती है. मुंबई मेरी जान की कहानी सिर्फ़ मुंबई या इस घटना के बारे में नहीं बल्कि किस तरह से लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं इस बारे में है
    इस फिल्म से निर्देशन की पारी शुरु करने वाले निर्देशक नीरज पांडे कहते हैं, "वेडनस्डे की कहानी उन चंद घंटों की है जिसमें आतंकवादी मुंबई शहर को अपनी दहशतगर्दी का शिकार बनाने की कोशिश करते हैं. फिल्म की पृष्ठभूमि आतंकवाद है और ये फिल्म पूरी तरह से मुंबई में शूट की गई है, लेकिन फिल्म की कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है."

    अभी हाल ही में रिलीज़ हुई साइको थ्रीलर फिल्म 'आमिर' कहानी थी एक ऐसे आम इंसान की जिसे ब्लैकमेल किया जाता है और मुंबई के कुछ इलाकों में बम रखने के लिए मजबूर किया जाता है. ये फिल्म खूब चली और इसे समीक्षकों ने भी सराहा.

    पॉपकार्न फिल्म्स के बैनर तले बन रही फिल्म 'द लिटिल गॉडफादर' का आधार भी मुंबई बम धमाकों को बनाया गया है.

    समसामयिक

    द लिटिल गॉडफादर कहानी है उन छोटे छोटे बच्चों की जो मुंबई की लोकल ट्रेनों में सामान बेचते हैं और किस तरह से उन बच्चों ने बम धमाके वाले दिन बहादुरी का परिचय दिया.

    फिल्म के निर्देशक जॉय ऑगस्टीन का मानना है कि लोग वास्तविक घटनाओं से खुद को जल्दी जोड़ लेते हैं. वो कहते हैं, "फ़िल्म की कहानी है उन आम लोगों की जो मुंबई की ट्रेनों में सफर करते हैं और उन बच्चों की जो इन ट्रेनों में सामान बेचते हैं और ये लोग किस तरह से ऐसी विपत्ति के समय एक दूसरे से बंध जाते हैं."

    फिल्म समीक्षक भी इसे एक बड़े बदलाव के तौर पर तो देखते हैं. लेकिन उनका कहना है कि ये सामयिक है.

    वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, " फ़िल्मों में भले ही पृष्ठभूमि बम धमाके हो लेकिन निर्माता निर्देशक पूरी तरह से इस पर कोई फ़िल्म नहीं बनाना चाहते और शायद इसके पीछे वजह ये है कि वो नाहक किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते. पुरानी फिल्मों में जिस तरह से बाढ़, मेला जैसी कुछ घटनाओं का इस्तेमाल कहानी में मोड़ लाने के लिए किया जाता था वैसे ही आजकल बम धमाकों का इस्तेमाल हो रहा है, ये समय के साथ बदल जाएगा."

    इस तरह की फिल्म आम तौर पर तीन घंटे से छोटी होती हैं इनमें संगीत और रोमांस की जगह कम ही होती है.

    पुरानी फिल्मों में जिस तरह से बाढ़, मेला जैसी कुछ घटनाओं का इस्तेमाल कहानी में मोड़ लाने के लिए किया जाता था वैसे ही आजकल बम धमाकों का इस्तेमाल हो रहा है, ये समय के साथ बदल जाएगा
    राम गोपाल वर्मा जैसे निर्देशक जिन्होंने मुंबई अंडरवर्ल्ड पर कई सफल फिल्में बनाई हैं उन्होंने भी अपनी हाल ही में प्रदर्शित फिल्म 'कॉन्ट्रैक्ट' में अंडरवर्ल्ड और आतंकवाद के तेज़ी से बढ़ रहे रिश्तों को दिखाने की कोशिश की है.

    यूटीवी की अल्पना मिश्रा का मानना है कि ये इत्तेफाक है कि यूटीवी की हाल ही में जो फिल्में रिलीज़ हो रही हैं उनकी कहानियों में कहीं न कहीं बम धमाके या आतंकवाद एक अहम हिस्सा है.

    वे कहती हैं, "हमें खुशी है कि हमारी इन फिल्मों से एक सामाजिक संदेश भी जा रहा है."

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