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'पीपली लाइव - पैसा वसूल फ़िल्म'
भावना सोमाया, वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
इस हफ़्ते दो फ़िल्में रिलीज़ हुई हैं- 'पीपली लाइव' और 'हेल्पलाइन' आमिर ख़ान प्रोडक्शंस 'पीपली लाइव', एक छोटे गाँव की कहानी है जहाँ के किसान अपनी ज़मीन के कर्ज़ में डूबे हुए हैं. यह दो भाइयों की कहानी है, बुधिया (रघुवीर यादव) और नाथा (ओंकार दास माणिकपुरी) जिसके पास आत्महत्या के सिवाय कोई चारा नहीं होता क्योंकि सरकार की नई योजना के मुताबिक मरे हुए किसानों के परिवार को मुआवज़ा दिया जाता है.
इस फ़िल्म में किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर विषय को हँसी मज़ाक में राजनीतिक व्यंग का तड़का लगाकर पेश किया गया है. 'पीपली लाइव' सिर्फ़ एक निराली कहानी या फ़िल्म नहीं है बल्कि एक सामाजिक आइना है जो हमारे आज के नेता, नागरिक और ख़ास तौर पर मीडिया को बेपर्दा करता है. छोटे बजट में बनाई गई और असली लोकशन पर शूट की गई इस फ़िल्म के ज़्यादातर कलाकार नए हैं जैसे नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी, शालिनी वत्स, फ़र्रुख़ जाफ़र और मलाइका शिनॉय.
उनका रहन सहन, भाषा, कपड़े, वहीं की मिट्टी में पिरोकर दर्शाए गए हैं. ऐसा लगता है मानो फ़िल्म के सभी कलाकार असल में उस गाँव के ही वासी हैं. सिनेमाटोग्राफ़र- शंकर रमन, प्रोडक्शन डिज़ाइनर- सुमन रे महापात, कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर- मैक्सिमा बसु, संगीतकार- माथियस डुपलेसी और तीखे मसालेदार डायलॉग्स के लिए अनुशा और फ़ारुक़ी को मैं पूरे नंबर दूंगी.
सुधीर चोहे की कास्टेड फ़िल्म 'पीपली लाइव' साल की एक ऐसी फ़िल्म कही जा सकती है जिसमें हर एक कलाकार अपने किरदार में बिल्कुल सटीक बैठ रहा है. आम तौर पर ऐसी फ़िल्म जो असली घटनाओं पर आधारित हो, दर्शकों के लिए बोझिल हो जाती है. लेकिन 'पीपली लाइव' बेहद रोमांचक फ़िल्म है. ऐसा भी देखा गया है कि जिस फ़िल्म में ज़्यादा गाली गलौच इस्तेमाल किए गए हों वो फ़िल्म हमें ग़ुस्सा दिलाती है.
लेकिन 'पीपली लाइव' को देखते हुए हम दिल खोलकर मज़ा लूटते हैं. अक्सर जब कोई फ़िल्म किसी पेशे को बेनक़ाब करती है तो हमें शर्मिंदगी महसूस होती है. लेकिन 'पीपली लाइव' हमें, यानि मीडिया को, अपने बारे में संजीदगी से सोचने पर मजबूर करती है. ऐसी फ़िल्म का निर्देशन वो ही कर सकता था जो ख़ुद मीडिया से जुड़ा हो, जैसे अनुशा रिज़वी.
ऐसी फ़िल्म का निर्माता कोई हिम्मत वाला ही हो सकता था, जैसे आमिर ख़ान. पीपली लाइव पूरी तरह से पैसा वसूल फ़िल्म है. फ़िल्म के संगीत में गाँव की महक आती है. इस फ़िल्म के बाद अब हिंदी सिनेमा में ऐसी फ़िल्मों की एक नई प्रथा शुरु हो सकेगी जो सच्ची घटनाओं पर आधारित हो, जिसके संगीत में मिट्टी की ख़ुश्बू हो और जिसके कलाकार बिल्कुल असल लगते हों.
दूसरी रिलीज़ हुई फ़िल्म रुपाली ओम इंटरटेनमेंट की निर्मित और राजीव विरानी की निर्देशित फ़िल्म 'हेल्पलाइन' के पोस्टर पर लिखा है, न आप भाग सकते हैं, न आप छुप सकते हैं, आप सिर्फ़ मदद के लिए चिल्ला सकते हैं. ये बिल्कुल सच है. हर हिंदी हॉरर फ़िल्म की तरह इस फ़िल्म में भी कोई नज़र नहीं आता है. सिर्फ़ झूले झूलते रहते हैं, कुत्ते भौंकते हैं, दरवाज़े अपने आप खुलते और बंद होते हैं और रात के सन्नाटे में अजीब सी आवाज़ें आती रहती हैं.
ये फ़िल्म मिश्रण है हिंदी और अंग्रेज़ी की पुरानी फ़िल्म का. कुछ बॉलीवुड की पुरानी फ़िल्मों से तो कुछ विदेशी फ़िल्मों से चुराकर बनाई गई है हेल्पलाइन जो अपसामान्य घटनाओं पर आधारित है. पता नहीं बॉलीवुड के निर्माताओं को ये बात समझ में क्यों नहीं आती कि डरावनी फ़िल्मों के लिए स्पेशल इफ़ेक्ट्स से ज़्यादा अच्छे कलाकारों की ज़रूरत होती है. सिर्फ़ एक अच्छा कलाकार ही अपनी एक्टिंग से भ्रम को असलियत का रूप दे सकता है. इसकी सबसे बड़ी मिसाल है श्यामलम की सिक्स्थ सेंस.
अगर इतने सालों बाद हम आज भी साधना को वो कौन थी और मधुबाला को महल में याद करते हैं तो कोई बात तो ज़रूर होगी. इस फ़िल्म मे सिर्फ़ श्रेयस तलपड़े को छोड़कर बाक़ी सारे कलाकार ज़िंदा लाश की तरह फ़्रेम के अंदर बाहर आते जाते रहते हैं. बॉबी देओल के चेहरे पर पूरी फ़िल्म में एक ही भाव रहता है. वो अपने बड़े भाई सनी देओल की तरह ग़ुस्से में ही दिखाई दिए हैं.
मुग्धा गोडसे की एक्टिंग पर नहीं बस सुंदरता पर ही टिप्पणी की जा सकती है. फ़िल्म का न सिर है और न पैर. न कहानी न ही कोई ढाँचा. ऐसी फ़िल्मों में अंत अक्सर अंधविश्वास पर मुहर लगाता है और अगर मैं सेंसर बोर्ड की कमेटी में होती तो फ़िल्म में इस तरह के अंत को कभी मंज़ूरी नहीं देती. अगर आपको डरना बहुत ज़रूरी लगता है तो ही फ़िल्म देखिए वरना मेरी मानिए और इस फ़िल्म से दूर ही रहें तो अच्छा है.
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