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पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए: अमिताभ
वंदना
बीबीसी संवाददाता
चालीस साल पहले वर्ष 1969 में फ़िल्म 'सात हिंदुस्तानी' के ज़रिए अमिताभ बच्चन ने फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा था. पहली ही फ़िल्म में उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला
अपने चालीस साल लंबे फ़िल्मी सफ़र में पर्दे पर अमिताभ ने बेशुमार किरदारों से लोगों का दिल जीता और ढेरों पुरस्कार अपने नाम किए. हाल ही में बीबीसी ने अमिताभ बच्चन से विशेष बातचीत की. पेश है बातचीत के मुख्य अंश: आपका चालीस साल पुराना करियर है. क्या आप अतीत पर नज़र डालकर देखते हैं, आकलन करते हैं कि क्या किया, कैसे किया... मैने कभी इस पर ग़ौर नहीं किया. मुझे तो ये लगता है कि हर दिन काम मिलता जाए बस इसी में आशा बंधी रहती है. मैं तो ऐसा मानता हूँ कि पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए, आगे ही देखना चाहिए. जो उपलब्धियाँ मिल सकती हैं आगे, जो आशा हमें दिखाई देगी, हम तो उसी ओर बढ़ना चाहेंगे. आपने 70 के दशक में शोले, दीवार से लेकर 21वीं सदी तक की फ़िल्मों में काम किया है. क्या बदलाव देखते हैं आप फ़िल्मों में- तकनीकी बदलाव के अलावा. हर दशक में समाज बदलता है, देश बदलता है, धाराएँ बदलती हैं. इसके साथ-साथ कला में भी तब्दीली आती है, सिनेमा भी बदला है. नई पीढ़ी का बोल-चाल, नज़रिया, आदतें सब कुछ अलग होता है. नए समाज को देखकर-देखकर ही फ़िल्में बनती हैं. अगर 70-80 के दशक की फ़िल्मों में थोड़ा ठहराव नज़र आता है तो वो इसलिए कि जीवन में भी ठहराव था. जिन यंत्रों या तकनीक से आज हम चंद सैकेंडों में दुनिया से जुड़ जाते हैं वो पहले नहीं थे, इसलिए सब कुछ ठहरा-ठहरा सा था. अब रफ़्तार बढ़ गई है, दूसरे देशों में जो होता है वो हमें भी तुरंत पता चल जाता है, ज़ाहिर है इसका असर पड़ता है और फ़िल्में बदली हैं. कई लोगों को आपकी ब्लैक जैसी समकालीन फ़िल्में पसंद हैं तो कुछ को शोले जैसी पुरानी फ़िल्में. कोई ख़ास फ़िल्म जो आपकी पसंदीदा हो? मुझे तो सभी फ़िल्में अच्छी लगती हैं. जिनमें भी काम किया है मैने, मुझे उन सब फ़िल्मों पर गर्व है. आपने कई तरह के किरदार निभाएँ हैं. कितना मुश्किल या आसान होता है बतौर अभिनेता हर किरदार की तह तक जाना और उसे बखूबी निभा पाना.
ये कलाकार होने का नज़रिया है. अगर आप कलाकार हैं तो इन समस्याओं से, समस्या नहीं समझना चाहिए... बल्कि कहूँगा कि ये हमारा प्रोफ़ेशनल करियर है और इसमें जो भी चुनौती आए उसका सामना करना चाहिए. इस दौरान हमने जो काम किया उसमें उपलब्धियाँ भी मिलीं, तारीफ़ भी हुई. ये तो प्रति दिन का काम है. हर दिन हमें कोई न कोई चुनौती मिलती रहे यही हमारे लिए सबसे अच्छी बात है. आपकी पहली फ़िल्म थी सात हिंदुस्तानी जो 1969 में आई थी. शूटिंग के पहले दिन क्या चल रहा था दिलो-दिमाग़ में? मुझे अपनी शूटिंग का पहला दिन याद है. मेरी पहली फ़िल्म थी. एक नए कलाकार से जिस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद रहती है, उम्मीद करता हूँ कि मैं उसे निभाने में सफल रहा था. अब तक बहुत सारे दिग्गज निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिला है. सबने फ़िल्म उद्योग में अपना-अपना योगदान दिया है. हाल ही में आपकी फ़िल्मों का रेट्रोस्पेक्टिव पेरिस में हुआ. लेकिन इससे पहले पश्चिम में तपन सिन्हा, सत्यजीत रे या चेतन आनंद जैसे फ़िल्मकारों का ही नाम रहा है. मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा को ज़्यादा तवज्जो नहीं मिलती थी. क्या ऐसी फ़िल्मों में कुछ कमी है या पश्चिम को सोच बदलने की ज़रूरत है? ये तो मैं नहीं कह सकता. जिन लोगों ने अपनी सोच बदली है ये तो उनसे पूछना पड़ेगा. लेकिन ज़ाहिर है कि अब हमारी फ़िल्में जिन्हें कॉमर्शियल फ़िल्में कहा जाता है, वो दुनिया में देखी जाती हैं. मैं इससे ख़ुश हूँ. आपके फ़िल्मों पर आधारित आयोजन पेरिस में हुआ, एआर रहमान को गोल्डन ग्लोब मिला, हिंदी फ़िल्मों के प्रीमियर विदेशों में होने लगे हैं. अचानक अब भारत जैसे फ़्लेवर ऑफ़ द सीज़न है. क्या बदला है हिंदी सिनेमा में? ये अच्छी बात है कि नज़रिया धीरे-धीरे बदल रहा है. ये अचानक नहीं हुआ है, धीरे-धीरे ये प्रक्रिया चल रही थी. मैं ये मानता हूं कि जब किसी देश की अर्थव्यवस्था अच्छी होती है तो उसकी हर चीज़ अच्छी लगने लगती है. जब से भारत में इकनॉमिक फ़्रीडम आया है और दूसरे देशों से निवेश होने लगा है, तब से सबकी दृष्टि भारत पर है- चाहे वो भारत की कला-संस्कृति हो, खान-पान हो, कपड़े हों, रंग हो...ये सब आकर्षित करती हैं लोगों को. इसमें फ़िल्में भी शामिल हैं.
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