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कलंक फिल्म रिव्यू - कहानी ही बन गई फिल्म का सबसे बड़ा कलंक, लगा दिया बुरा ग्रहण
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अपनी आंखों से आंसू की एक बूंद टपकाते हुए रूप (आलिया भट्ट) दर्शकों से पूछती है - आपने इस कहानी में क्या देखा? कलंक या मोहब्बत? मतलब वो भी हमारी ही तरह फिल्म को लेकर उतने ही कन्फ्यूजन में हैं। अब पूरी फिल्म समझने के लिए चलिए फ्लैशबैक का बटन दबाया जाए और कलंक की दुनिया देखी जाए।
लाहौर के बाहरी इलाके हुसनाबाद में बसी ये कहानी, आज़ादी के पहले के समय की दास्तां हैं। रूप, (आलिया भट्ट), एक अल्हड़ सी मस्तमौला सी लड़की की शादी देव (आदित्य रॉय कपूर) से कर दी जाती है। जबकि उसकी पत्नी सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) चुपचाप ये गठबंधन होते देख रही है परिवार के मुखिया बलदेव सिंह चौधरी (संजय दत्त) के साथ।
इसी समय, इसी शहर में हीरा मंडी नाम की एक गली है जहां काजल लगाए ज़फर नाम का एक लोहार दिखता है जो पूरे जोश में फर्स्ट क्लास पर डांस करता दिखाई देता है। ये नाच गाना बेगम बहार (माधुरी दीक्षित) की कोठी के बाहर हो रहा है। हालांकि ज़फर इस बात से अंजान है कि उसकी पूरी ज़िंदगी बदलने वाली है।
आलिया भट्ट का किरदार रूप फिल्म में एक जगह कहता है - मेरे गुस्से में लिए गए एक फैसले ने हम सब की ज़िंदगी बरबाद कर दी। ज़फर और रूप की वो प्रेम कहानी शुरू होती है जिसकी इजाज़त समाज नहीं देता है। वहीं बेगम बहार और चौधरी जी का भी एक अतीत है जो उनके आज को खत्म करके रख सकता है। इन सबके बीच मंडरा है भारत - पाकिस्तान के बंटवारे का खतरा।
अभिषेक वर्मन की कलंक में दिखावा भरपूर है - खूबसूरत सेट से लेकर सुंदर दिखने वाले एक्टर्स। अच्छा संगीत और बेहतरीन कॉस्ट्यूम। लेकिन फिल्म में कोई कहानी ही नहीं है जिसकी कमी फिल्म को तोड़ देती है। इसके अलावा, फिल्म पुरानी काफी फिल्मों से बुरी तरह प्रभावित दिखती है। सबसे ज़्यादा अमिताभ बच्चन की त्रिशूल से।
फिल्म का स्क्रीनप्ले इतना ज़्यादा टूटा हुआ है कि हर किसी को थका देता है। हालांकि फिल्म के कुछ हिस्से अच्छे से चमकते हैं जो आपको इमोशनल कर देंगे। लेकिन इनमें से ज़्यादातर अच्छे हिस्से, फिल्म के आखिरी 30 मिनट में ही दिखाई देते हैं। अगर अभिनय की बात करें आलिया भट्ट रूप के किरदार में शानदार लगती हैं।
अपनी ज़िम्मेदारी और प्यार के बीच फंसी एक लड़की के किरदार में आलिया दिल जीत लेती हैं। हालांकि अभिषेक के लचर लेखन के कारण, आलिया भट्ट कहीं कहीं कहानी से भटकती दिखाई देती हैं। वरूण धवन अपने करियर का सबसे तगड़ा रोल निभाते नज़र आ रहे हैं। इस रोल में वरूण को इमोशन दिखाने का पूरा मौका मिला है।
वरूण अपने किरदार को पूरी ईमानदारी से निभाते हैं। लेकिन भारी भरकम डायलॉग निभाने में आज भी वरूण की मेहनत कम पड़ जाती है। माधुरी दीक्षित अपने किरदार को पूरी शिद्दत से निभाती दिखती हैं। एक कोठे वाली के किरदार में जो प्यार और दर्द दिखना चाहिए वो माधुरी सफलतापूर्वक परदे पर उतारती हैं।
सोनाक्षी सिन्हा के हिस्से जो कुछ भी आया है उन्होंने उसे दबाकर निभाया है। आदित्य रॉय कपूर अपनी खामोशी से भी लोगों का दिल जीतते हैं। लेकिन उनके किरदार को इतने ढीले तरीके से लिखा गया है कि वो ऊपर नहीं उठ पाते हैं। कुणाल खेमू का अभिनय अच्छा है।
बिनोद प्रधान का शानदार फिल्मांकन आज़ादी के पहले के भारत की आत्मा बहुत ही अच्छे तरीके से कैमरे में कैद करता है। श्वेता वेंकट मैथ्यू की एडिटिंग फिल्म को थोड़ी और बेहतर बना सकती थी। वरूण धवन की बैल के साथ लड़ाई के सीन में वीएफएक्स काफी मज़ेदार लगता है।और इस सीन को ना रखकर इस बेइज़्जती से बचा जा सकता था।
फिल्म के गाने देखने में बेहतरीन लगते हैं। लेकिन सुनने में बहुत औसत हो जाते हैं। घर मोरे परदेसिया और टाईटल ट्रैक छोड़कर कोई गाना प्रभाव नहीं छोड़ता है।
कुल मिलाकर एक शानदार कास्ट और भव्य बजट होने के बावजूद कलंक केवल पन्ने पर एक अच्छी कहानी बनकर रह गई। लेकिन बड़े परदे पर उतारने में बुरी तरह फेल हो गई। बेगम बहार के शब्दों में कहा जाए तो कमज़ोर कहानी और डायरेक्शन का अंजाम अकसर तबाही ही होता है। हमारी तरफ से फिल्म को 2.5 स्टार।
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