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'प्रेमचंद को नोबल पुरस्कार क्यों नहीं मिला'
सिवाय यह कहने के और कुछ न था कि प्रेमचंद की रचनाओं के अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध न थे जो पश्चिमी दुनिया का ध्यान उनकी ओर ले जा सकते.
यह सवाल किसी हीनता ग्रंथि की अभिव्यक्ति नहीं थी. यह चाहत कि मेरा जुड़ाव मेरे दिए हुए दायरे के बाहर की दुनिया से हो, खास इंसानी है.
(अक्सर यह टीस देखने-सुनने को मिलती है कि अपनी ही ज़मीन पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं, उनके लेखक उपेक्षित हैं, प्रचार और पैसे, सम्मान से वंचित हैं जबकि अंग्रेज़ी में थोड़ी सी कोशिश आपको अंतरराष्ट्रीय बना देती है. इस वर्ष बुकर और ज्ञानपीठ को मिली मीडिया कवरेज ने इस सवाल को फिर खड़ा किया है. क्या है सम्मान, पुरस्कारों और प्रचार का यह समीकरण, इसे समझाने की कोशिश की गई है इस लेख के माध्यम से. आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें इंतज़ार रहेगा)
प्रेमचन्द के वे पत्र जो वे केशोराम सब्बरवाल को लिखते हैं, इसके गवाह हैं कि केशोराम द्वारा उनकी रचनाओं के जापानी अनुवाद को लेकर वे खास उत्साहित थे. लेकिन इन पत्रों में दिलचस्प है प्रेमचंद का हिन्दी के साहित्यिक जीवन का वर्णन-- "हिन्दुस्तान का साहित्यिक जीवन बड़ा हौसला तोड़नेवाला है.
जनता का कोई सहयोग नहीं मिलता. आप चाहे दिल निकाल कर रख दें, मगर आपको पाठक नहीं मिलते. शायद ही मेरी किसी किताब का तीसरा संस्करण हुआ हो. ..हमारे किसान ग़रीब हैं और अशिक्षित हैं और बुद्धिजीवी यूरोपीय साहित्य पढ़ते हैं. घटिया साहित्य की बिक्री बहुत अच्छी है. मगर न जाने क्या बात है कि मेरी किताबें तारीफ तो बहुत पाती हैं, मगर बिकती नहीं."
तेरा भी है, मेरा भी..
अस्सी साल पहले का यह दुखड़ा आज के हिन्दी लेखक को बिल्कुल अपना मालूम पड़ता है.
प्रेमचंद के एक पत्र से... हिन्दुस्तान का साहित्यिक जीवन बड़ा हौसला तोड़नेवाला है. जनता का कोई सहयोग नहीं मिलता. आप चाहे दिल निकाल कर रख दें, मगर आपको पाठक नहीं मिलते. शायद ही मेरी किसी किताब का तीसरा संस्करण हुआ हो. ..हमारे किसान ग़रीब हैं और अशिक्षित हैं और बुद्धिजीवी यूरोपीय साहित्य पढ़ते हैं. घटिया साहित्य की बिक्री बहुत अच्छी है. मगर न जाने क्या बात है कि मेरी किताबें तारीफ तो बहुत पाती हैं, मगर बिकती नहीं.
हिन्दी में पेशेवर लेखक की संस्था के न बन पाने के कारणों की पड़ताल अभी बाकी है. प्रेमचंद का पूरा जीवन इसी संघर्ष में बीता, जिसमें वे लेखन को प्राथमिक और अपने आप में पूरा काम का दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ते रहे.
लिखना एक समाजोपयोगी उत्पादक क्रिया है, यह समझ अभी भी हमारे भीतर नहीं. लिखने के पहले एक पूरी तैयारी की दरकार है, यह समझ लिखे की कीमत तय करने वाले के पास नहीं.
हिंदी और अंग्रेज़ी में लेखक को दिए जाने वाले पैसे में अन्तर इसका एक उदाहरण है. समाज लेखन में निवेश करने को तैयार नहीं. वह कुछ पुरस्कारों तक अपने कर्तव्य को सीमित रखता है. लेकिन पुरस्कार तो किसी प्रक्रिया के नामित बिंदु पर होने चाहिए. उस प्रक्रिया में किसी की दिलचस्पी नज़र नहीं आती.
नतीजा है लेखक का घोर अकेलापन. वह अपने मध्यवर्ग द्वारा बहिष्कृत महसूस करता है जिसने प्रयासपूर्वक अंग्रेज़ी को सिर्फ़ कामकाज तक न रहने देकर अपनी संवेदना की भाषा भी बना लिया है.
सबूत आपको उसके बुकशेल्फ में मिलते हैं जहाँ हिन्दी की जिल्दें दिखती नहीं, यहाँ तक कि अब वह प्रेमचंद और टैगोर को भी अंग्रेजी के ज़रिए ही पढ़ना चाहता है.
दिलचस्प यह है कि बांग्ला मध्यवर्ग ने एक चतुर रिश्ता अंग्रेज़ी से बना रखा है और उसे बांग्ला किताबें और बांग्ला संगीत अपनी बैठक में सजाने में शर्म महसूस नहीं होती.
ज्ञानपीठ या बुकर...?
यही वजह है कि भारत के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से हिंदी कवि कुंवर नारायण को सम्मानित किए जाने को लेकर कोई उत्साह और उत्सव इस पढ़े-लिखे तबके में नहीं दिखलाई पड़ा जिसने कुछ दिन पहले ही एक नवतुरिया लेखक अरविंद अडिगा को मैन-बुकर दिए जाने का ज़ोरदार स्वागत किया था.
वह अपने मध्यवर्ग द्वारा बहिष्कृत महसूस करता है जिसने प्रयासपूर्वक अंग्रेज़ी को सिर्फ़ कामकाज तक न रहने देकर अपनी संवेदना की भाषा भी बना लिया है.
बुकर अरविंद को मिलेगा कि दूसरे भारतीय लेखक अमिताव घोष को, इसे लेकर अख़बारों और पत्रिकाओं में कयासआराई में पन्ने भर दिए गए थे.
ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा के पहले समकालीन लेखन पर कोई उत्तेजना भरी चर्चा चलती नहीं दिखाई देती. इसलिए अगर आप हिन्दी कथा के बारे में इस दुनिया से कुछ जानना चाहें, तो आपको प्रेमचंद के बाद निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती या फिर गीतांजलि श्री का कुछ जिक्र मिलेगा, जिनका अनुवाद किसी सुचिंतित साहित्यिक निर्णय के बाद किया गया हो, इसके प्रमाण नहीं हैं.
एक मित्र ने ठीक ही कहा कि विक्रम सेठ के "अ स्युटेबल बॉय" के विस्तार को लेकर चमत्कृत होने वालों ने अगर अमृतलाल नागर को पढ़ा होता तो उनका ख़याल कुछ और ही होता. अमृतलाल नागर, यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु की किसी भी रचना से परिचय के चिह्न अंग्रेज़ी साहित्यिक समीक्षा संसार में नहीं मिलते.
तीसरी या चौथी पीढ़ी के शिक्षित वर्ग के अंग्रेजी की दुनिया में सक्रिय होने से यह उम्मीद होनी चाहिए थी कि द्विभाषी साहित्यिक विद्वत्ता विकसित होगी. ऐसा दुर्भाग्य से हुआ नहीं. इस पीढ़ी ने तय करके अपने आप को एकभाषी बना लिया है.
पूत ही भए कपूत...
हिंदी को लेकर शर्म सर्वव्यापी है और गहरी ही होती जा रही है. स्कूलों में हिंदी बोलने पर बच्चों को लज्जित करने पर माता-पिताओं की ओर से कोई विरोध दर्ज किया जाता हो, इसकी कोई ख़बर नहीं.
भारत के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से हिंदी कवि कुंवर नारायण को सम्मानित किए जाने को लेकर कोई उत्साह और उत्सव इस पढ़े-लिखे तबके में नहीं दिखलाई पड़ा जिसने कुछ दिन पहले ही एक नवतुरिया लेखक अरविंद अडिगा को मैन-बुकर दिए जाने का ज़ोरदार स्वागत किया था.
ज़्यादातर स्कूलों में हिंदी की नीरस, उपदेशों और नीति-शिक्षाओं से भरी बेजान और बेरंग किताबों से बच्चों में हिन्दी के प्रति विकर्षण का भाव गहरा होता जाता है. हिंदी की किताबों को लेकर स्कूल से अभिभावक कोई बहस करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते.
इनके लिए हिंदी एक मजबूरी है जिसे बर्दाश्त भर किया जाना है. बहुत हुआ तो वे हिंदी को मूल्यों के स्रोत भर की मान्यता देने को तैयार होते हैं.
दिल्ली जैसी जगह में अंग्रेज़ी की तरह-तरह की रंग-बिरंगी और आकर्षक डिजाईन में छपी किताबों के पीछे किसी शेल्फ़ पर हिन्दी की किताबें इंतज़ार में मुरझाई हुई उनींदी पड़ी रहती हैं. बच्चों की हिंदी किताबों में फूहड़ रंग और डिजाइन, छिछली भाषा को देखकर दुःख से मन भर उठता है.
जिस भाषा में अपने बच्चों के लिए ममता न हो और न उसके लिए दिल खुला हो, उसमें आगे क्या आशा की जा सकती है? बांग्ला का ही उदहारण लें, तो बच्चों के गीतों की सीडी से लेकर उनका प्रचुर साहित्य मौजूद है. हिंदी की इस मामले में दुखद विपन्नता का रोना अरसे से सुनाई देता रहा है पर इसका कोई असर दिखाई नहीं देता. बच्चे जिस भाषा के केन्द्र में नहीं हैं, उसका जीवंत रहना असंभव है.
अंग्रेज़ी और सत्ता का रिश्ता आगे और गहरा ही होता जा रहा है. एक विचित्र शिक्षाशास्त्रीय निर्णय के तहत घर-पड़ोस की भाषा की जगह अंग्रेज़ी माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित कर दी गई है जिसने यह तय कर दिया है कि हिन्दुस्तान की अधिकतर आबादी अर्धशिक्षित, हीनताग्रंथी से दबी रहे. इसपर ठहरकर विचार करने की किसी को फुरसत नहीं.
मध्य वर्ग के पास अंग्रेज़ी का कौशल पाने के कई साधन हैं, इसलिए वह इसे अपनी चिंता ही नहीं मानता. न सिर्फ़ यह, वह सचेत रूप से ख़ुद को हिंदी से दूर करता जाता है.
कब होगा हिंदी का उत्सव..?
जिस तरह सरकारी स्कूली व्यवस्था का ढहना मध्यवर्गीय द्रोह का एक परिणाम है, उसी तरह हिंदी की रचनाशीलता को लेकर किसी उत्सव के माहौल का न होना इस दुनिया से मध्यवर्ग के पलायन का नतीजा है.
हिंदी के बौद्धिक जगत में परिपक्वता और इत्मीनान आना अभी शेष है. इस वैचारिक विवेक के आने के बाद ही वह अपने क्षेत्र की रचनाशीलता का उत्सव भी मना पाएगा
कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद जब प्रताप भानु मेहता ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा तो हिंदीवालों ने कृतज्ञता महसूस की जिसका प्रमाण इससे मिलता है कि जनसत्ता ने एक हफ्ते बाद उसका अनुवाद छापा.
अंग्रेज़ी में लिखने वालों में मेहता ही अकेले है जो हजारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल वर्मा, आदि को अपने तर्कों की पुष्टि के लिए उद्धृत करते हैं. हिन्दी क्षेत्र की विद्वत्ता में विचारों के स्रोत के रूप में हिंदी को स्वीकार करने का यह बिरला उदाहरण है.
तो क्या हम अंग्रेज़ी की दुनिया से मान्यता के मुंहताज हैं. नहीं, हमारा कहना यह है कि हिंदी दुनिया की बौद्धिकता अगर अपने विचार और संवेदना के स्रोतों की तलाश इस क्षेत्र में नहीं करेगी और अगर उसके लेखन में सिर्फ़ यूरोपीय दुनिया के नाम जगमगाते दिखाई देंगे तो उसकी कद्र बाहर भी नहीं होगी.
सुदिप्तो कविराज हों या आशिस नंदी, उनकी मौलिकता का कुछ कारण उनके वैचारिक स्रोतों की स्थानिकता में भी है.
इस कोण से देखें, तो हिंदी के बौद्धिक जगत में परिपक्वता और इत्मीनान आना अभी शेष है. इस वैचारिक विवेक के आने के बाद ही वह अपने क्षेत्र की रचनाशीलता का उत्सव भी मना पाएगा.