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    झेले हम जी जान से...

    By नेहा नौटियाल
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    Khelein Hum Jee Jaan Sey
    जी हां, फिल्म देखकर जब आप बाहर निकलेंगे तो कुछ ऐसा ही दिमाग में आएगा। टिकट बेहद मंहगा (310रु) होने के बावजूद हम बड़ी उम्मीद के साथ आशुतोष गोवारिकर की फिल्म 'खेलें हम जी जान से' देखने पहुंचे।

    थियेटर में घुसे तो देखा बमुश्किल 30-35 लोग बैठे हैं। लगा क्योंकि फिल्म पहले ही दिन रिलीज हुई है इसलिए लोगों के फिल्म के बारे में ज्यादा पता नहीं या पीरियड फिल्म है इस वजह से भीड़ कम है।

    खैर..पंद्रह मिनट के एड चलने के बाद फिल्म शुरु हुई। पहला सीन एक मैदान का जहां 15-16 साल की उम्र के कुछ किशोर फुटबॉल खेल रहे हैं, वहां अंग्रेजों की एक टुकड़ी पहुंचती है और उस मैदान को अपनी छावनी में तब्दील करने के लिए इन लड़कों को उनके मैदान से बाहर खदेड़ देती है।

    फिल्म का पहला सीन ही फिल्म की पृष्ठभूमी तैयार करता इसमें ज्यादा वक्त नहीं लगता पर उसके बाद फिल्म धीमी गति से आगे बढ़ती है। शुरुआती 15-20 मिनट के बाद ही हॉल में लोगों की उबासियां सुनाई पड़ने लगती हैं। मैं बगल में नजर डालती हूं तो बगल वाली सीट पर बैठी लड़की सोती हुई दिखती है।

    शुरुआती आधे घंटे के बाद ही फिल्म झेलना मुश्किल हो जाता है। एक देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्म को देखते हुए जो 'जज्बा' जागना चाहिए वो और कहीं गहरे जाकर सो जाता है और फिल्म खत्म होते-होते खर्राटे भरने लगता है।

    बंगाल की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में किरादारों का गलत चयन सबसे ज्यादा खलता है। ना अभिषेक बच्चन ना दीपिका पादुकोण अपने किरदारों में फिट बैठते हैं और ना ही पूरी फिल्म में कोई ऐसा संवाद है या सीन है जो याद रखा जा सके। कलाकारों ने सिर्फ किरदारों के नाम लेने में बांग्ला का प्रयोग किया जैसे 'कॉल्पना दॉत्ता' या 'निर्मॉल'।

    इसके आगे कलाकार भूल जाते थे कि फिल्म में उनके किरदार बंगाली पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। पूरी कहानी में कहीं भी कसावट नहीं है। फिल्म बेहद लंबी और बेहद धीमी है। पूरी फिल्म में बहुत ज्यादा मेलोड्रामा है कि आप बर्दाश्त नहीं कर पाते। अभिषेक बच्चन और दीपिका दोनों की एक्टिंग राम भरोसे है।

    फिल्म के कुछ दृ्श्यों में अभिषेक गुस्सा दिखाने की कोशिश करते हैं मगर उन्हें देख के हमें गुस्सा आने लगता है। अभिषेक बिल्कुल भी असरदार नहीं दिखते और बाकी कमी दीपिका पादुकोण पूरी कर देती हैं। दीपिका की कद-काठी और चाल-ढाल एक प्रोफेशनले मॉडल जैसी ही लगती है और लगता नहीं वो क्रांतिकारी की भूमिका मे हैं।

    निर्मल के किरदार में सिकंदर खेर ने बढ़िया काम किया है। फिल्म में इतने ज्यादा झोल हैं कि फिर चाहे वो सिनेमेटोग्राफी हो या संवाद सब बोझिल लगते हैं। हम जैसे कुछ दर्शक फिल्म खत्म होने का इंतजार करने लगते हैं तो कुछ दो-ढाई घंटे की नींद निकाल लेते हैं।

    लब्बोलुआब ये है कि अपना पैसा और समय खर्च करके ये फिल्म देखने ना जाएं क्योंकि हम देखकर आए और सच कह रहे हैं झेल गए जी जान से।

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