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    फिल्मों में महिला चरित्रों के पास पलायन का एकमात्र विकल्प क्यों?

    By जया निगम
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    Mandi Hindi Film
    फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल की मंडी ( 1983 ) समाज में वेश्याओं की समस्या को शिद्दत के साथ उकेरती है। फिल्म की कहानी रुक्मिणी बाई (शबाना आजमी ) के कोठे पर लिखी गयी है। बेनेगल का कैमरा मंडी में समाज के एंगल से नहीं घूमता, यही इस फिल्म की खासियत हैं। फिल्म में कैमरे का एंगल समाज का कैंसर समझी जाने वाली वेश्याओं के एंगल से घूमता है।

    'मंडी' की जीनत

    जीनत (स्मिता पाटिल), वासंती (नीना गुप्ता) जैसे चरित्र इस फिल्म की सीमा-रेखा की तरह हैं। सीमा-रेखा का मतलब यह है कि कहानी का केंद्र यही चरित्र हैं जो वेश्याओं में भी धंधा ना करने वाली लड़कियों की ही कहानी सामने रखते हैं उनकी नहीं जो धंधा करती हैं। वह तो इस कोठे का एक हिस्सा हैं पर निर्देशक जानता है कि समाज के पास अभी जीनत और वासंती जैसा लड़कियों के प्रति ही सहानुभूति नहीं है तो बाकी ( रीता, मीता, कमला, विमला, शीला....) तो धंधा करती हैं!

    फिल्म के अंत में जीनत (स्मिता पाटिल) का भागना फिल्म का सबसे कमजोर पहलू है। मंडी में जीनत जिस लड़के से प्यार करती है, उसका पिता जीनत का भी पिता है। लेकिन जीनत मिस्टर अग्रवाल की अवैध संतान है, मतलब ये जोड़ा एक तरह से भाई-बहन है। इस फिल्म में जीनत का भागना दर्शाता है कि इस तरह की लड़कियों का इन संबंधों लसे भागने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। क्या वाकई इन लड़कियों के पास भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।

    'वॉटर' और 'पाकीजा' के महिला चरित्र

    फिल्म वॉटर में भी केंद्रीय चरित्र लीजा रे लगभग इसी तरह की त्रासदी का शिकार होती है। जब लीजा रे को पता चलता है कि उसका बलात्कार करने वाला पुरुष ही उसके प्रेमी का पिता है तो उस के पाय आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं बचता। फिल्म पाकीजा में मीना कुमारी को जब उसके प्रेमी अशोक कुमार का परिवार नहीं अपनाता तो वह भाग कर कब्रिस्तान में जा छुपती है लेक्न उसके गर्भ में चूंकि उसके प्रेमी की संतान है इसलिए वह आत्महत्या नहीं करती लेकिन निर्देशक प्रसूति के दौरान उसके चरित्र की हत्या कर उसकी कहानी खत्म कर देता है, क्या यहां भी इस मनायिका के पास मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं।

    विवादास्पद बनाम मास्टरपीस

    वास्तविकता में निर्देशकों ने वही दिखाया है जो समाज में अमूमन होता है पर इन कहानियों से समाज से लड़ने वाली लड़कियों के चरित्र गायब हैं। फिल्म इंडस्ट्री के मास्टरपीस हैं माने जाने वाली कहानियां पाकीजा, मंडी और वॉटर अलग-अलग घटनाओं पर बुनी भिन्न समयांतरालों की कहानियां हैं। लेकिन निर्देशक अब तक समाज से लड़ने वाली लड़कियों की कहानियां नहीं दिखा सका। वैसे क्या कहना, हजारों ख्वाहिंशें ऐसी और लज्जा जैसी कुछ कहानियां इन लड़कियों की कहानियां दिखाती हैं पर अफसोस ये है कि ये मास्टर पीस नहीं मानी जातीं। बल्कि इन्हे बतौर विवादास्पद फिल्में याद किया जाता है।

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