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गोल्ड फिल्म रिव्यू :अक्षय कुमार की ज़बरदस्त कोशिश सोने से भी ज़्यादा चमकने की, 3.5 स्टार
अगर आप सपने देखश सकते हैं तो उन्हें पूरा भी कर सकते हैं, वाल्ट डिज़नी का ये मशहूर बयान, अक्षय कुमार की गोल्ड के किरदार तपन दास पर पूरी तरह फिट बैठता है। रीमा कागती की ये फिल्म ना ही एक स्पोर्ट्स ड्रामा है और ना ही देशभक्ति के रंग में रंगी एक कहानी। ये फिल्म इतनी सी देर में आपको काफी कुछ सिखा जाती है।
गोल्ड कहानी है मेहनत की, जज़्बे की, हौसले की, हिम्मत की, जुनून की और सपनों को सच करने की एक कोशिश की। और इस कोशिश में रीमा कागती पूरी तरह सफल दिखाई देती हैं। अक्षय कुमार की ये फिल्म केवल सोने का मेडल लाने की कहानी तो है लेकिन फिल्म हर दिशा में सोने से ज़्यादा चमकती दिखाई देती है।
गोल्ड की शुरूआत होती है 1936 में बर्लिन में। और आपकी जानकारी के लिए अक्षय कुमार इस फिल्म के स्टार हॉकी खिलाड़ी नहीं है। जब फिल्म में हॉकी टीम के लड़के, ब्रिटिश भारत के लिए मैच जीतते हैं और पोडियम पर खड़े होकर अपना मेडल लेते हैं, एक किनारे अपने देश का झंडा लिए तपन खड़ा होता है।
और तपन दास एक वादा करता है खुद से - आज़ाद भारत के लिए गोल्ड मेडल जीतने का। तपन दास, ब्रिटिश भारत की हॉकी टीम का मैनेजर। और ऐसा ही सपना तपन के साथ देखते हैं टीम के दो और खिलाड़ी - मैच का स्टार, और टीम का कप्तान - सम्राट (कुणाल कपूर) और इम्तियाज़ (विनीत सिंह)।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ओलंपिक्स की संभावनाएं कम दिखती हैं और भारत, आज़ादी पाने के काफी कपीब पहुंच चुका होता है। तपन ने नशे और धोखाधड़ी में सुकून पाना सीख लिया होता है। लेकिन फिर 1948 में ओलंपिक्स का एलान होता है और तपन को चाहिए था मौका, अंग्रेज़ों से बदला लेने का।
इसलिए तपन, अंग्रेज़ों की धरती पर उन्हें फछाड़ कर, गोल्ड जीत कर वहां अपना तिरंगा लहराने का सपना देखता है। और इस सपने को पूरा करने की कीमत है जो आसाना नहीं है। लेकिन तपन ने भी ठान ली है - हम एक पागल बंगाली है, हम हॉकी से प्यार करता है, अपना देश से प्यार करता है।
डायरेक्टर रीमा कागती, बहुत ही शानदार प्लॉट के इर्द गिर्द बहुत ही बढ़िया कहानी बुनती हैं। इस कहानी में सही मात्रा में हर इमोशन में डालने में रीमा कामयाब दिखाई देती हैं। जहां एक तरफ फिल्म देखते हुए आपको भारतीय होने पर गर्व होगा वहीं दूसरी तरफ फिल्म आपको काफी कुछ सिखाएगी। फिल्म का पहला हाफ आपको जकड़ कर रखेगा।
दूसरे हाफ में गोल्ड का ध्यान भटकता है और फिल्म के छोटे छोटे हिस्से आपको शाहरूख खान की चक दे इंडिया की याद दिलाना शुरू करेंगे। लेकिन क्लाईमैक्स तक आते आते अक्षय पूरी फिल्म को अपने कंधों पर मज़बूती से उठाते हैं और अंत भला तो सब भला।
पहली बार अक्षय कुमार को बिंदु से किनारे हटकर टीम के साथ परफॉर्म करते देखना अच्छा लगेगा। अक्षय फिल्म में जितना चमकते हैं, उतना ही फिल्म का हर किरदार चमकका है। धोती कुर्ता पहने ये बंगाली आपको अपने किरदार की कई परतें धीरे धीरे दिखाएगा। वहीं मौनी रॉय हर सीन में परदे को और सुनहरा कर देती हैं। अक्षय के साथ उनकी केमिस्ट्री ज़बरदस्त है।
अमित साध, रघुबीर के किरदार में अपने अभियन से आपको फिर प्रभावित करेंगे। वहीं विक्की कौशल के भाई सन्नी कौशल पर भी लोगों की नज़र टिकेगी। विनीत सिंह पूरी फिल्म में सबसे ज़्यादा असर छोड़ते हैं जबकि कुणाल कपूर आपको तालियां मारने का मौका देंगे।
अब अगर कमज़ोर पक्ष की बात करें तो फिल्म का वीएफएक्स काफी कमज़ोर है। स्टेडियम के दृश्यों में यह साफ दिखाई देता है। फिल्म को थोड़ा छोटा रखा जा सकता था। संगीत पक्ष भी एक या दो गानों को छोड़कर कमज़ोर ही है।
अक्षय कुमार की गोल्ड बेहतरीन अदाकारी के कारण चमकती है वहीं रीमा कागती का कसा हुआ निर्देशन और शानदार कहानी इसे देखने का हर कारण देती है। उनकी सिनेमा की समझ स्क्रीन पर दिखाई देती है। यही गोल्ड को एक बेहतरीन फिल्म बनाती है। और अक्षय कुमार उनका पूरा साथ निभाते हैं। एक सीन में फिल्म का एक किरदार दूसरे से कहता है - जिस तरह खेल में बॉल को पास किया जाता है, कभी कभी ज़िंदगी में अपने सपनों को पास करना पड़ता है।फिल्मीबीट की तरफ से फिल्म को 3.5 स्टार्स।