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    दो तहज़ीबों की बात करती एक किताब

    By Staff
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    दो तहज़ीबों की बात करती एक किताब

    शायरे-लखनऊ और अलीगढ़ की धड़कन मजाज़ लखनवी की सबसे छोटी बहन बेगम हमीदा सालिम की किताब 'यादें' उन दो तहज़ीबों को समेट कर एक ऐसी तस्वीर पेश करती है जो बेनज़ीर है.

    सोमवार को भारत के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के आवास पर इस किताब का विमोचन हुआ जहां दो तहज़ीबों के संगम के साथ साथ उर्दू हिंदी का संगम देखने में आया.

    किताब की दो विशेषताएं हैं एक क़सबाती ज़िंदगी का वृत्तांत और दूसरे अलीगढ़ और अलीगढ़ वालों का ज़िक्र हामिद अंसारी, भारत के उपराष्ट्रपति

    किताब की दो विशेषताएं हैं एक क़सबाती ज़िंदगी का वृत्तांत और दूसरे अलीगढ़ और अलीगढ़ वालों का ज़िक्र

    दरअसल मजाज़ की सबसे छोटी बहन हमीदा सालिम ने इसे उर्दू में 'शोरिशे-दौराँ' के नाम से लिखा था जिसका हिंदी रूपांतर 'यादें' के नाम से हिंदी जगत के सामने है. याद रहे कि शोरिशे-दौराँ मजाज़ के एक शेर में एक फ़िक़रा है.

    'यादें' का विमोचन करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, "हमीदा आपा ने क़स्बाती ज़िंदगी की जो तस्वीर खींची है वो या तो किताबों में मिल सकती है या बड़े बुज़ुर्गों की यादों में. हमीदा आपा ने आने वाली पीढ़ी पर बड़ा एहसान किया है कि उन्होंने अपनी दास्तान को किताब में महफ़ूज़ कर दिया".

    किताब की विशेषता

    उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा "इस किताब की दो विशेषताएं हैं-एक क़स्बाती ज़िंदगी का वृत्तांत और दूसरा अलीगढ़ और अलीगढ़ वालों का ज़िक्र."

    इस किताब के प्रकाशक हरीशचंद्र ने कहा, "उन्होंने समस्तीपुर से आते हुए रेल में इस किताब को पढ़ा और पढ़ते रह गए, क्योंकि इसमें वह चीज़ें शामिल हैं जो सिर्फ़ सुनी थी, देखी नहीं थी. किताब ने उन्हें उस परिदृश्य में ला दिया."

    उन्होंने कहा, "मैं उस किताब को बिना पढ़े रख ही नहीं सका क्योंकि उसमें ऐसे ऐसे लोग ज़िंदा नज़र आ रहे थे जिनके बारे में सिर्फ़ सुना था. अभी मजाज़ है तो अभी जांनिसार अख़्तर सामने आते हैं. भला कोई कैसे इस किताब को बिना पढ़े रख सकता है."

    हमीदा सालिम की किताब 'शोरिशे-दौराँ' को हिंदी में लाने का श्रेय संजय कपूर को जाता है. संजय कपूर ने कहा कि उन्होंने शुरू में उर्दू पढ़ी थी लेकिन इस किताब को पढ़ने के लिए उन्होंने फिर उर्दू सीखी.

    उन्होंने कहा लखनऊ की तहज़ीब पर मौलाना अब्दुल हलीम शरर की किताब और आज के लखनऊ के बीच जो फ़ासला रह गया था उसे इस किताब ने पूरा कर दिया है. उन्होंने कहा कि यह किताब इस मक़सद में पूरी तरह कामयाब है.

    मैं किताब बिना पढ़े रख ही नहीं सका क्योंकि उसमें ऐसे ऐसे लोग ज़िंदा नज़र आ रहे थे जिनके बारे में सिर्फ़ सुना था. अभी मजाज़ है तो अभी जांनिसार अख़्तर सामने आते हैं. भला कोई कैसे इस किताब को बिना पढ़े रख सकता है किताब के प्रकाशक, हरिशचंद्र

    मैं किताब बिना पढ़े रख ही नहीं सका क्योंकि उसमें ऐसे ऐसे लोग ज़िंदा नज़र आ रहे थे जिनके बारे में सिर्फ़ सुना था. अभी मजाज़ है तो अभी जांनिसार अख़्तर सामने आते हैं. भला कोई कैसे इस किताब को बिना पढ़े रख सकता है

    इस मौक़े पर बेगम हमीदा सालिम ने अपनी यादों को समेट कर अपना छोटा सा परिचय पेश किया कि वह रुदौली के एक बड़े ख़ानदान की सबसे छोटी संतान हैं. उनके बड़े भाई मजाज़ लखनवी ने उन्हें क़लम पकड़ना सिखाया तो उनके दूसरे भाई, स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही अंसार हरवानी ने उन्हें अलीगढ़ में प्रवेश दिलाया.

    उन्होंने पर्दे के असली मक़सद को समझा और अपनी शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी यहां तक कि इंग्लिस्तान से डिग्री हासिल की. माँ ख़ुद अनपढ़ थी लेकिन वह तालीम की महत्ता को बड़ी अच्छी तरह जानती थीं और उन्होंने हमारी पढ़ाई में कोई कसर नहीं उठा रखी.

    "रिटायरमेंट पर जब हिंदुस्तान लौटने का फ़ैसला किया तो मेरे पास इथियोपिया में सामाजिक कार्यों का तजुर्बा और इरादों का सिलसिला था, माज़ी की यादें थीं जिसके नतीजे में ये किताब लिखी जा सकी".

    बेगम हमीदा सालिम की भतीजी और बीबीसी हिंदी ऑनलाइन की संपादक सलमा ज़ैदी ने अपने जाने पहचाने मख़सूस अंदाज़ में इस कार्यक्रम का संचालन किया.

    किताब का अंश

    बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ट्रस्ट से जुड़े परवेज़ आलम ने किताब से कुछ अंश पढ़े और कहा कि आप इस परिवेश को समझ जाएंगे. उन्होंने कहा कि मजाज़ अलीगढ़ वालों के लिए ख़ुदा और रसूल के बाद पहला नाम है. अलीगढ़ का तराना मजाज़ ने लिखा है जो अपनी मिसाल आप है.

    "आज भी आसमान पर बादल देखकर अपने बचपन का सावन याद आ जाता है. क़स्बाती ज़िंदगी में बरसात का ये महीना हम लड़कियों के लिए बहुत अहमियत रखता था. हमारी सावन की तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी. लाल और हरी चुनरिया रंगरेज़ से रंगवाई जाती थी. मनिहारनें रंग-बिरंगे शहाने टोकरियों में सजा कर घर पहुंचती थीं. घर घर झूले लगते थे पकवान तले जाते थे...."

    "हम हंडकुलिया पकाते तो मिठास चखने के बहाने हमारी मीठे चावलों की हांडी आधी से ज़्यादा ख़ाली हो जाती. हमारे गुड्डे-गुड़ियों की शादी में वो क़ाज़ी का रोल इख़्तियार कर लेते 'गाजर, मूली गोभी का फूल—बोल गुड़िया तुझे निकाह क़बूल'." (मजाज़ क़ाज़ी बनते)

    यादें को हमीदा सालिम ने अपने भाई मजाज़ के नाम समर्पित किया है. इस का हिंदी रूपांतर परवेज़ गौहर ने किया है. इसमें परिचय को छोड़ कर सात अध्याय इस प्रकार हैं बातें गए दिनों की, यादों के साए, अनमिट नक़ूश, आंचल और परचम का मिलाप, बस्ती बस्ती देस बिदेस, जहां दर जहां और गोश-ए-आफ़ियत.

    यह सारे अध्याय अपने आप में बहुत कुछ कहती हैं और इस किताब को पढ़ने को प्रेरित करते हैं.

    'यादें' का प्रकाशन प्रकाशन संस्थान,दिल्ली से हुआ है और इसकी क़ीमत है 350 रुपए.

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