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ओएमजी: हमारे भीतर कब जागेंगे अक्षय?
अहमदाबाद। कहाँ है ईश्वर? किसे कहते हैं ईश्वर? क्या गॉड पोर्टिकल की खोज तक सीमित रह सकता है ईश्वर? क्या गीता, बाइबल और कुरान में है ईश्वर?
कानजीभाई मेहता ने तो साबित कर दिया कि ईश्वर है। वही इस समग्र सृष्टि का रचयिता और संहारक है। यह तो बात हुई कानजीभाई मेहता की, परंतु हम कब तक अर्जुन बने रहेंगे? क्या हम अपना पूरा जीवन अर्जुन बन कर निकाल देंगे? क्या हम पूरा जीवन अर्जुन बने रहेंगे? कभी कृष्ण के साथ योग कर कृष्णार्जुन नहीं बनेंगे? यदि अर्जुन को गीता के दूसरे अध्याय में ज्ञान हो जाता, तो कृष्ण परमात्मा को कदाचित 18वें अध्याय तक गीता सुनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय यानी सांख्य योग में ही अर्जुन को गीता का सम्पूर्ण ज्ञान परोस दिया था, परंतु अर्जुन की समझ में नहीं आया। वह तो अर्जुन थे। उनके सखा भी कृष्ण सरीखे थे। फिर भी उन्हें मनुष्य जीवन और स्वयं अपने नाम की सार्थकता समझने में 18 अध्याय का समय लगा। देर से ही सही, लेकिन अर्जुन को 18वें अध्याय में जाकर भी मनुष्य जीवन की सार्थकता का अनुभव तो हुआ।
कृष्ण परमात्मा ने अर्जुन पर कृपा की और उसे 18वें अध्याय में जाकर भी ज्ञान तो करवा ही दिया, लेकिन हम अर्जुन से वह अर्जुन कब बनेंगे, जो जिसका अर्थ होता है सफेद, चांदी-सा चमकीला और उज्ज्वल। जी हां। महाभारत में जब भगवान कृष्ण ने गीता ज्ञान आरंभ किया, तब अर्जुन केवल एक नाम था। संस्कृत में अर्जुन का अर्थ होता है सफेद, चमकीला, उज्ज्वल। अर्जुन के यह गुण साकार तो गीता के 18 अध्याय सम्पन्न होने के बाद हुए।
अब प्रश्न उठता है कि हमें कौन-सा अर्जुन बनना है। कृष्णमय, सफेद, चमकीला, उज्ज्वल, पवित्र कृष्णार्जुन बनना है या बस संसार, मंदिरों-मस्जिदों और मोह-माया में उलझे असार्थक नामी अर्जुन-सा जीवन जीना है।
उमेश शुक्ला निर्देशित फिल्म ओह माय गॉड यानी ओएमजी देखने के बाद भी यदि हम उस कृष्ण परमात्मा को नहीं समझ सकते, तो फिर घर-घर में पड़ी वह गीता वास्तव में दीमक की ही अधिकारी है। वह बाइबल और वह कुरान केवल और केवल एक ग्रंथ हैं। वेद-पुराण सब पोथी हैं।
प्रसिद्ध गुजराती रंगमंच कलाकार और बॉलीवुड में अब एक बड़ी हस्ती रखने वाले परेश रावल के गुजराती नाटक कानजी वर्सिस कानजी (हिन्दी में किशन बनाम कन्हैया) पर आधारित फिल्म ओह माय गॉड गत 28 सितम्बर को प्रदर्शित हुई। दस दिन हो गए। लाखों लोगों ने फिल्म देखी। सोनाक्षी सिन्हा और प्रभुदेवा के आइटम सांग गो... गो... गो... गोविंदा पर खूब सीटियाँ बजाईं, लेकिन फिल्म के बाकी नग्मों पर गौर करने वालों की संख्या उंगलियों पर ही गिनी जा सकती है।
.....हे राम, हे कृष्णा हे राम, डोंट वरी सारे नियम तोड़ो और पार्टी करते जाओ, डांस न आए फिर भी देखी ठुमका मारे जाओ, डोंट वरी सबको एट्टीट्यूड दिखा कर मस्ती करते जाओ, तू भूला दे दुनियादारी को, टेंशन को और लाचारी को, भगा सब बीमारी को, ले दिल से कृष्णा का नाम, हे राम... हे राम... सुब्रत सिन्हा ने नए जमाने का भक्ति गीत लिखा है, जिसमें भक्त को सारे बंधनों को तोड़ कर जीने की नसीहत दी गई है। आखिर भक्त भी तो उसे ही कहते हैं जो भगवान से विभक्त नहीं है। ओएमजी में अंततः कानजी मेहता को भी अक्षय कुमार कहते ही हैं कि जिस प्रकार भगवान बिना भक्त अधूरा है, उसी प्रकार भक्त बिना भगवान अधूरा है।
ओएमजी फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण गीत ........मेरे निशान...... को सुनना एक सुखद अनुभव है। कैलाश खेर की यह भावपूर्ण और क्लासिक प्रस्तुति है। मीत ब्रदर्स व अनजान ऐसा संगीत भी रच सकते हैं, सुन कर आश्चर्य होता है। कुमार की अर्थपूर्ण रचना गौर करने लायक है- .......मैं तो नहीं हूं इंसानों में, बिकता हूं मैं तो इन दुकानों में...दुनिया बनाई मैंने हाथों से मिट्टी से नहीं जज्बातों से फिर रहा हूं ढूंढता मेरे निशान हैं कहां रचा मगर मनुष्य की करतूतों को देख कर वह भी पीड़ा में है। गीत दिल में सहेज कर रखने लायक है।
तीसरा ट्रैक भी तू ही तू दिल में है, मेरे रात दिन शाम सवेरे हो, फिर उजाले अंधेरे, तू हर पल साथ है मेरे, हरे रामा हरे कृष्णा, कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे.. तू है मेरे अहसासों में, मेरा जहां है तेरी छइया, तू है मेरे जज्बातों में, मेरा जहां है तेरी बंहियां.... नए जमाने का भक्ति गीत है, जिसे समीर ने रचा है। हिमेश ने गीत को आधुनिक फ्लेवर देने के लिए इलेक्ट्रानिक गिटार व बास के साथ घंटियों का प्रयोग कर संगीत को सुमधुर बना दिया है। मोहम्म्द इरफान की गायिकी लाजवाब है- तू ही तू दिल में है, मेरे रात दिन शाम सवेरे हो, फिर उजाले अंधेरे, तू हर पल साथ है मेरे, हरे रामा हरे कृष्णा, कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे.. तू है मेरे अहसासों में, मेरा जहां है तेरी छइया, तू है मेरे जज्बातों में, मेरा जहां है तेरी बंहियां...।
इस गीत वृतांत और कथा वृतांत को करोड़ों दर्शकों ने देखा और सुना, लेकिन क्या अब भी हम भगवान को उन्हीं मंदिरों और मठों में ढूँढते रहेंगे। हम वर्षों-सदियों से हमारी गीता के बताए मार्ग का उल्लंघन करते आए हैं। कृष्ण परमात्मा जब हमारे भीतर ही हैं, तो क्यों हम उन्हें मंदिरों में खोजने जाएँ।
क्या ओएमजी देखने के बाद भी हम वही अर्जुन बने रहेंगे, जिसे भगवान कृष्ण गीता का ज्ञान परोसते रहें। हम धवलार्जुन कब बनेंगे। अर्जुन को तो केवल 18 अध्याय लगे थे, लेकिन हम तो पूरा जीवन अपनी मांगों और अपेक्षाओं की भीख मांगते हुए जीवन घिसटते हुए समाप्त कर देते हैं। भगवान यदि कण-कण में है, तो हम उन्हें महसूस क्यों नहीं कर सकते? गीता में प्रभु कहते हैं कि मैं तो तेरे भीतर हूँ, तो मुझे पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है।
वास्तव में भगवान को कभी भी अपना अस्तित्व सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं होती, क्योंकि जब कण-कण में वह बसा है, तो उसके अस्तित्व को चुनौती देने वाले तुच्छ मानव में भी वह रोम-रोम में बसा है। उसे पाने के लिए, उसका अनुभव करने के लिए स्वयं को उसमें लीन करने की आवश्यकता है। इस मानव रूपी शरीर में वह ईश्वर यूँ छिप कर बैठा है, जैसे कोई प्रबंधक अपने कार्यालय में बैठता है और उसकी उपस्थिति मात्र से सारे कर्मचारी भीगी बिल्ली बन कर कार्य करते हैं। मानव जीवन भर इसी मिथ्याभिमान में जीता है कि सारे कार्य वह कर रहा है, जबकि वह अपने भीतर बैठे उस ईश्वर रूपी प्रबंधक यानी आत्मा को नहीं देख पाता। वह भूल जाता है कि वह आत्मा ही परमात्मा है और उसका साक्षात्कार दुनिया के हर आश्चर्य से बड़ा है। उस प्रबंधक रूपी आत्मा के बिना मानव का अस्तित्व ही संभव नहीं है।
ओएमजी हमें अपने भीतर ईश्वर की खोज करने की प्रेरणा देती है। स्वयं को पहचानने की प्रेरणा देती है। इस मानव रूपी देह में छिपे मैं रूपी अहम् को निकाल फेंकने और आत्मा रूपी मैं में यानी परमात्मा लीन होने का संदेश देती है। मंदिरों-मस्जिदों में जाने वाला मानव तो केवल अपनी मांग और अपेक्षाओं की भीख मांगने वालों का कुनबा है। ईश्वर से भीख नहीं मांगनी चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि धर्मस्थलों में ईश्वर होता ही नहीं है। जब वह कण-कण में है, तो वहाँ भी है, लेकिन वह सीमित नहीं है। धर्मस्थलों में बैठा ईश्वर मानव के भोगों को जरूर पूरा करता है, लेकिन मानव को प्राप्त कभी नहीं हो सकता। ईश्वर से ईश्वर की मांग करके देखो, लेकिन ईश्वर से ईश्वर की मांग वही कर सकता है, जिसके पास जगत के भौतिक पदार्थों की कोई मांग न रह जाए और वही कृष्ण परमात्मा में लीन हो सकता है। जगत की मांग से निवृत्त होने का एक ही रास्ता है समत्व भाव। कण-कण का मतलब ही है राग-द्वेष, सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई जैसे सभी प्रकार के द्वंद्वों से मुक्त हो जाना। इन द्वंद्वों का उत्पत्तिकर्ता मन है। बस इस मन को कृष्णार्पण करके देखो। यह गीता का ही ज्ञान है। कृष्ण परमात्मा स्वयं कहते हैं कि जो हर कार्य का श्रेय मुझे देगा, उसकी रक्षा मैं करूँगा। न उसे पाप लगेगा और न ही उसे पुण्य की जरूरत रहेगी।
दरअसल हमारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने गीता आदि ग्रंथों को केवल मोक्ष देने वाले ग्रंथ के रूप में प्रचारित कर दिया है। गीता जीवन को जीवन के रूप में जीने की उत्तम संदेश वाहक है।
चलो मान लीजिए हमने न कृष्ण को देखा और न अर्जुन को। मान लीजिए हमें गीता समझ में नहीं आती। लेकिन कम से कम ओएमजी तो समझो। उसे केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक सत्संग के रूप में देखने की आवश्यकता है। क्या हम अपने आपमें छिपे उस अक्षय कुमार को नहीं खोज सकते। पर्दे पर अक्षय कुमार की एन्ट्री पर सीटियाँ बजती हैं, लेकिन हमारे भीतर ये अक्षयजी कब प्रकट होंगे और हम कब आनंद की सीटी बजाएँगे। मानव-मानव में परमात्मा के दर्शन किए जाएँ, तो शायद मंदिरों के आगे भिक्षुकों को बैठने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। उस भूखे भिक्षुक को शिवलिंग से होकर गटर में बहते दूध को पीने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मुझमें परमात्मा-तुझमें परमात्मा। फिर न कोई भिखाऱी होगा और न कोई अमीर। गरीबी और अमीरी प्रारब्धगत हो सकते हैं, लेकिन कण-कण में परमात्मा के दर्शन से अमीर का अहंकार और गरीब की गरीबी का एहसास दोनों ही खत्म हो जाएँगे। यही है ओएमजी का संदेश।
जय हो ओएमजी। (गुरु अर्पण)
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