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'स्त्री का शक्तिशाली रूप क़ायम रहना चाहिए'
दिल्ली में जन्मी उमा शर्मा ने अपने नृत्य की शुरूआत दस साल की उम्र से की थी. पद्मश्री और पद्म भूषण से सम्मानित उमा शर्मा के नए प्रयोगों से कथक नृत्य को नया स्वरूप मिला. आज भी उनके नृत्य का सफ़र देश-विदेश में जारी है.
पेश है सूफ़िया शानी से उनकी बातचीत के अंश: नृत्य की दुनिया में आने का विचार कहां से आया? पिताजी शास्त्रीय संगीत के बड़े प्रेमी थे और उनसे मिलने वालों में भी ज़्यादातर वही लोग आते थे जिन्हें संगीत का शौक़ होता था. साथ ही संगीत का माहौल हमेशा घर में बना रहता था जिससे बचपन में ही मुझमें भी संगीत का शौक़ पैदा हो गया. गाने के साथ नृत्य की शुरूआत कैसे हुई? नृत्य की मुझ में क़ुदरती प्रतिभा थी, इसलिए कॉलोनी में तीज-त्योहार के मौक़े पर मैं डांस किया करती थी और यहीं से डांस का सिलसिला स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम तक शौक़िया चलता रहा. लेकिन कॉलेज पहुंचते-पंहुचते मेरा ज़ेहन डांस के प्रति गंभीर हो गया था. तब मैं ने शंभु महाराज जी और सुंदर महाराज जी से नृत्य की बक़ायदा तालीम ली और नृत्य की दुनिया में आगे बढ़ती चली गई. बहुत बचपन में आपने नेहरू जी के सामने नृत्य पेश किया था, वो अनुभव कैसा रहा था?
वो अनुभव मुझे आज भी याद है, हांलाकि मैं बहुत छोटी थी. 14 नवंबर, बाल दिवस के अवसर पर नेहरू जी, इंदिरा गांधी और उनके दाएं-बाएं राजीव और संजय हुआ करते थे. शो ख़त्म होने के बाद राजीव और संजय मुझे चॉकलेट का डिब्बा दिया करते थे. मुझे उस दिन बेसब्री से उस चॉकलेट के डिब्बे का इंतज़ार रहता था. आप कथक को रासलीला के दायरे से उठा कर ग़ज़ल और शायरी की तरफ़ ले गईं. तो यह ख़्याल कैसे आया और कथक-प्रेमियों और गुरूओं ने उसे कैसे लिया? इसका श्रेय मशहूर ठुमरी गायिका स्वर्गीय नैना देवी को जाता है. 1973 में ग़ालिब समारोह मनाया जा रहा था और नैना जी चाहती थीं कि मैं ग़ालिब की शायरी पर नृत्य करूं. तो इस तरह मैंने ग़ालिब की दो ग़ज़लें 'आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक' और मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए' लेकर शंभु महाराज जी के निर्देशन में नृत्य तैयार किया. इसकी बड़ी चर्चा हुई, लोगों ने इस प्रयास को बहुत पंसद किया. क्योंकि इससे पहले कथक में इस तरह का प्रयोग हुआ ही नहीं था. आपकी नृत्य नाटिका 'स्त्री' ने काफ़ी धूम मचाई थी. तो क्या मंच पर जो स्त्री दिखाई दे रही थी वह आपके मन में छिपी बैठी स्त्री थी या कोई और? उस नृत्य-नाटिका में मन में पल रहा विरोध था. हमारे समाज में स्त्री पर अन्याय और अत्याचार होता है और दोषी भी उसे ठहराया जाता है. लेकिन स्त्री जब अपने शक्ति रूप में आती है, तो वह दुर्गा का रूप ले लेती है. इसी भाव को लेकर मैंने उसे तैयार किया था. संदेश यह था कि हर स्त्री में उसका शक्तीशाली रूप बरक़रार रहना चाहिए. आपने ईरान में पेश किए गए कार्यक्रम में फ़ारसी ग़ज़लें भी गाई थीं. इस ज़ुबान की बारिकियों को जानने और लहजे पर महारत हासिल करने के लिए क्या कुछ करना पड़ा? देखिए किसी भी भाषा को समझने के लिए उसकी रूह में उतरना पड़ता है. और फिर फ़ारसी शायरी के एक-एक शब्द के भाव को पकड़ना बहुत मेहनत का काम था, जो मैंने पूरी जी जान से किया.
आपको पद्मभूषण सहित कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं, तो उमा शर्मा के लिए पुरस्कार और सम्मान का क्या मतलब है? मैं इसे भगवान की कृपा मानती हूं. किसी भी कलाकार को ख़ुशी होती है, जब उसके हुनर को सम्मान मिलता है. लेकिन मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार और सम्मान दर्शकों की तालियों की आवाज़ है. अब न तो शास्त्रीय नृत्य के वह दर्शक रहे और न ही उसकी जगह फ़िल्म और मीडिया में है. आप क्या महसूस करती हैं. देखिए वह ज़माना और था जब शास्त्रीय नृत्य को फ़िल्मों में ख़ास जगह दी जाती थी. तभी तो आज भी फ़िल्म मुग़लेआ़ज़म का नृत्य 'मोहे पनघट पर' यादगार मिसाल बन सका. इसी तरह फ़िल्म मधुमती में वैजंयतीमाला और गाइड में वहीदा रहमान का नृत्य कौन भूल सकता. अब ज़माना बदल गया है. मंच की जगह टीवी ने ले ली है. तो मेरी यह कोशिश है कि अपने स्कूल के ज़रिए इस धरोहर को सहेज कर रखा जाए आगे बढ़ाया जाए. आपका स्कूल इतने बरसों से जारी है तो क्या कोई नई उमा शर्मा ...देखने को मिली या मिलने की उम्मीद है? मेरी भतीजी है राधिका, उसमें कुछ बात नज़र आती है. कई लड़कियां और भी हैं जो सीख रही हैं, उनमें भी मैं अपनी छवि उतारना चाहती हूं. लेकिन आपके सवाल का जवाब वक़्त देगा और उनकी मेहनत. उमा शर्मा नृत्यागंना नहीं होतीं तो क्या होतीं? पिताजी चाहते थे कि मैं गाऊँ और मैं गाती भी थी, बड़े मज़े में गाती थी. लता के हर गाने की नक़ल मुर्कियों और हरकत के साथ कर लेती थी. लेकिन नियति में नृत्य कलाकार बनना लिखा था सो वही बन गए.
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