Just In
- 2 hrs ago
कभी बॉलीवुड की टॉप एक्ट्रेस थीं महेश बाबू की पत्नी नम्रता शिरोडकर, बदला लुक देख चौंक जाएंगे आप- PICS
- 10 hrs ago
दिल्ली में होगा सुशांत सिंह राजपूत मार्ग, एक्टर के 35वें जन्मदिन पर दिया गया ट्रिब्यूट
- 11 hrs ago
फोन भूत के सेट से लीक हुआ कैटरीना कैफ का नया लुक, किसी को भी हैरान कर देगा
- 12 hrs ago
सुशांत बनने वाले थे महात्मा गांधी, मदर टेरेसा और आइंस्टीन, तैयार हो चुके थे लुक
Don't Miss!
- Sports
जापान ने अंदरुनी तौर पर किया तय, महामारी के चलते नहीं होना चाहिए टोक्यो ओलंपिक
- Finance
Sensex में गिरावट, 161 अंक गिरकर खुला
- News
गीता का ज्ञान ले रहे हैं तेज प्रताप यादव, पटना में सरकारी आवास पर आयोजित की श्रीमद्भागवत कथा
- Lifestyle
तिल और लौंग के तेल में छिपी है कुदरती फायदे, जानें इन्हें इस्तेमाल करने के फायदे
- Education
SSC GD Constable Result 2018 Final Merit List Released: एसएससी जीडी रिजल्ट 2021 फाइनल मेरिट लिस्ट डाउनलोड करें
- Automobiles
Renault Customer Touchpoints: रेनाॅल्ट ने दिसंबर 2020 में खोले 40 नए कस्टमर टचपाॅइंट
- Technology
OnePlus Nord का प्री-ऑर्डर अमेज़न पर 15 जून से होगी शुरू; इसको खरीदने वाले पहले बने
- Travel
ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों का संगम : पठानकोट
बुश को बॉलीवुड की विदाई भेंट!
यह फ़िल्म अनुभव पाल के इसी नाम के नाटक पर आधारित है और इसमें जॉर्ज बुश की 2006 में हुई भारत यात्रा का ज़िक्र है. इस यात्रा के दौरान बुश की मुलाक़ात राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों के अलावा कुछ युवाओं से भी हुई थी.
और इसी मुलाक़ात के ज़िक्र के साथ ही सच्चाई ख़त्म हो जाती है और कल्पना की उड़ान शुरु हो जाती है.
फ़िल्म की कहनी में एक ऐसी प्रतियोगिता का ज़िक्र है जिसमें 30 वर्ष से कम उम्र के एक ऐसे युवा का चयन होना है जो अमरीकी राष्ट्रपति से हाथ मिलाएगा.
बस छह युवाओं के बीच यह प्रतिस्पर्धा शुरु हो जाती है कि यह अवसर किसके हाथ आएगा.
फ़िल्म के निर्माता रमेश सिप्पी बताते हैं, "यह एक काल्पनिक फ़िल्म है और हास्य फ़िल्म है. राष्ट्रपति युवा भारतीयों से मिलना चाहते हैं और भारतीय इस मुलाक़ात के लिए कितने आतुर हो जाते हैं."
वे बताते हैं, "कहानी उन किरदारों के बीच घूमती है जो राष्ट्रपति से हाथ मिलाने को उत्सुक हैं और उनके बीच कैसे संबंध बनते-बिगड़ते हैं और ईर्ष्या जन्म लेती है."
नाटक से फ़िल्म तक
फ़िल्म में एक ओर बुश के कुख़्यात कारनामों या कमज़ोरियों का मज़ा लिया गया है दूसरी ओर भारतीय उन्माद का भी उपहास उड़ाया गया है.
हालांकि भारतीय नाटकों में राजनीतिक व्यंग्य कोई नई बात नहीं है लेकिन यह पहली बार है कि इस तरह की कोई फ़िल्म बनाई गई है.
ऐसा लगता है कि अब भारत में लोग फ़िल्मों में हल्के फ़ुल्के व्यंग्य के लिए तैयार हैं और हमें उम्मीद है कि यह फ़िल्म लोगों को पसंद आएगी कुणाल रॉय कपूर, निर्देशक
फ़िल्म के निर्देशक कुणाल रॉय कपूर, जिन्होंने नाटक का भी निर्देशन किया था, कहते हैं, "ऐसा लगता है कि अब भारत में लोग फ़िल्मों में हल्के फ़ुल्के व्यंग्य के लिए तैयार हैं और हमें उम्मीद है कि यह फ़िल्म लोगों को पसंद आएगी."
वे बताते हैं कि इस फ़िल्म को माक्यूमेंटरी (एक झूठे वृत्तचित्र की तरह) फ़िल्माया गया है और इससे फ़िल्म को एक और नया आयाम मिलता है.
जो छह चरित्र इस फ़िल्म में दिखाए गए हैं, वो प्रतियोगिता के लिए एक दिन अमरीकी दूतावास में बिताते हैं. इनमें एक शेयरदलाल है, एक सॉफ़्टवेयर गुरु है, एक उपन्यासकार-कार्यकर्ता है, एक अरबपति की बेटी है, एक भाषा सिखाने वाला है और एक सामाजिक कार्यकर्ता है जो ज़्यादा अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता.
इस फ़िल्म के लिए कई पात्रों को नाटक से ही ले लिया गया है जो अभी भी मंचित हो रहा है.
फ़िल्म में जॉर्ज बुश की भारत यात्रा की वास्तविक दृश्यों का भी उपयोग किया गया है.
रमेश सिप्पी कहते हैं कि यह फ़िल्म जॉर्ज बुश का उपहास नहीं उड़ाती लेकिन उनकी कमज़ोरियों का मज़ा लेती है.
निर्देशक कपूर कहते हैं कि फ़िल्म के कुछ दृश्य राजनीतिक रुप से सही नहीं कहे जा सकते लेकिन वे हल्के-फ़ुल्के हैं और उनका उद्देश्य मनोरंजन करना ही है.
पहले इस फ़िल्म को 28 नवंबर को रिलीज़ होना था लेकिन मुंबई में हुए हमलों की वजह से इसके रिलीज़ में विलंब किया गया.