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मेरा सिनेमा 'नॉन-रियलिस्टिक' हैः रजत
'रघु रोमियो' तक उनकी मुश्किलें कम नहीं थी। बाद में उनके सहयोग से बनी फिल्म 'भेजा फ्राई' ने तो जैसे इस नए सिनेमा के दरवाजे ही खोल दिए। रजत कपूर जो करना चाहते हैं उसके प्रति कमिटेड हैं और उनका यह कमिटमेंट बिल्कुल निजी स्तर पर है। शायद यही वजह है कि वे आसानी से खुद को किसी देसी अथवा विदेशी परंपरा से जोड़ नहीं पाते।
पिछले दिनों वे अपना नाटक 'हैमलेटः द क्लाउन प्रिंस' लेकर बैंगलोर आए तो कुछ इन्हीं विषयों के इर्द-गिर्द उनसे बात हुई। प्रस्तुत है दिनेश श्रीनेत के साथ उनकी बातचीत के कुछ अंशः
आप आप मानते हैं कि आप का सिनेमा अब तक का जो सिनेमा था उससे अलग है? यदि अलग है तो आप उसे कैसे डिफाइन करेंगे?
क्या आपको नहीं लगता कि यह सिनेमा अब के सिनेमा से अलग है? फर्क हमारी सेंसिबिलिटी का है। कहानी बताने का तरीका, जीवन को देखने का तरीका अलग है।
लेकिन क्या आप सत्तर के दशक में उभरे कला सिनेमा आंदोलन से खुद को जोड़ते हैं?
नहीं। दरअसल आर्ट सिनेमा का ट्रीटमेंट रियलिस्टिक था। मेरा सिनेमा रियलिज्म से बहुत दूर है। यह उन अर्थों में यथार्थवादी सिनेमा नहीं है, जिस तरह का सिनेमा सत्तर के दशक में आया था। अब बात आती है चॉयस आफ सब्जेक्ट की तो यकीनन हमारा चॉयस डिफरेंट है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे बहुत फार्मल थे और मैं नॉन रियलिस्टिक हूं।
तो क्या हम मानें कि आपकी सेंसिबिलटी पर मारक्वेज जैसे पोस्ट मार्डन लेखकों का असर है, जिन्होंने यथार्थवादी सांचे को तोड़कर अपनी बात कही...
मारक्वेज को मैं पसंद करता हूं मगर जिस लेखक का काम मुझे सबसे ज्यादा पसंद है वह हैं चेक लेखक मिलान कुंडेरा। इसके अलावा सेंसिबिलिटी के लेवेल पर देखे तो चार्ली चैपलिन को मैं बहुत पसंद करता हूं।
आप खुद को किस परंपरा से जोड़ना पसंद करेंगे, भारतीय सिनेमा या यूरोपियन?
मेरे लिए इस सवाल का जवाब देना बहुत मुश्किल होगा। मैं खुद नहीं जानता कि मैं किस परंपरा से अपने को जोड़ूं....
तो 'रजत कपूर काइंड आफ सिनेमा' को हम कैसे परिभाषित करें?
मेरा मकसद एक ऐसी फिल्म बनाना है, जिसमें मैं खुद को अभिव्यक्त कर सकूं। जिसे दिखाकर लोगों को मैं कह सकूं कि 'यह मैं हूं'... वह मेरी आस्था हो, मेरी एक्सपीरिएंसेज हों। मैं खुद को एक ग्लोबल सिटिजन मानता हूं। मेरी अपब्रिंगिंग अलग हुई है। तो मेरी एक खास किस्म की संवेदनाएं हैं, मैं उन्हें आसानी से किसी दायरे में नहीं बांध सकता।
अपनी तरह का सिनेमा बनाने में आपको कितना वक्त लग गया?
पूरे 18 साल। मैं 1988 में पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से पास आउट हुआ था। 1997 में बनी मेरी पहली फिल्म 'प्राइवेट डिटेक्टिव' रिलीज ही नहीं हो सकी।
तो आपको सही मौका कैसे मिला?
पिछले कुछ सालों में बड़ा बदलाव आया। इसमें सबसे अहम है मल्टीप्लेक्स की चेन। आज अगर मल्टीप्लेक्स न होते तो हम 'रघु रोमियो' और 'मिथ्या' जैसी फिल्में रिलीज करने के बारे में सोच ही नहीं सकते थे।
नई पीढ़ी के निर्देशकों मे से कुछ अपनी पसंद के लोगों का नाम लेना चाहेंगे?
अनुराग की 'देव-डी' मेरी फेवरेट फिल्म है। हालांकि उन्होंने 'नो स्मोकिंग' जैसी खराब फिल्म भी बनाई है। श्रीराम राघवन मेरे दोस्त हैं मगर वे बहुत अच्छे फिल्ममेकर भी हैं। उन्हें भी लंबे समय बाद 'एक हसीना थी' जैसी फिल्म बनाने का मौका मिला। मेरे लिये भी 'रघु रोमियो' और उसका लोकार्नो फिल्म महोत्सव में जाना एक टर्निंग प्वाइंट था।
भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
नई फिल्म 'ए रेक्टेंग्यूलर लव स्टोरी' आने वाली है। इसके अलावा तीन फिल्मों की पटकथा पर काम लगभग तैयार है।
क्या अभी भी डिफरेंट फिल्म बनाना घाटे का सौदा है?
अभी लगाया हुआ पैसा वापस पाना आसान है। हम सस्ते में फिल्म बना लेते हैं। इंडिपेंडेंट सिनेमा का मतलब ही यही होना चाहिए। हर चीज से आजादी....