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    समाज को कुछ देना चाहते है प्रकाश झा

    By Super
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    'मेरा मक़सद समाज को कुछ देना है'
    फ़िल्म के सेट पर प्रकाश झा ने अपनी फ़िल्मों और राजनीति से जुड़े सीधे और कुछ तीखे सवालों पर बीबीसी से बातचीत की.

    बातचीत के दौरान वो कभी थोड़ा झल्लाए तो कभी उन्होंने व्यंगात्मक लहजे का भी इस्तेमाल किया. उनसे हुई लंबी बातचीत के अंश.

    कभी अनजान कलाकारों के साथ 'दामुल' और 'हिप हिप हुर्रे' जैसी फ़िल्मों से अपने करियर शुरू करने वाले प्रकाश झा की फ़िल्मों में अब मुंबइया फ़िल्म स्टार्स की संख्या क्यों बढती जा रही है, 'राजनीति' तो बिलकुल एक मल्टी स्टारर फ़िल्म लगती है?

    उस समय हमलोग छोटे बजट की फ़िल्में बना सकते थे, ताकि फ़िल्म बनाने में लगा ख़र्च वापस मिल सके. लेकिन जब 90वें के दशक के बाद आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ, कला और संस्कृति से सब्सिडी ख़त्म कर दी गई, तो हमारे जैसे फ़िल्मकारों के पास फंड जुटाने का कोई ज़रिया ही नहीं रहा.

    फ़िल्में बनेगीं तो उन्हें सिनेमा घरों में भी रिलीज़ होनी है और इन फ़िल्मों को भी सुभाष घई और यश चोपड़ा की फ़िल्मों के साथ ही रिलीज़ होनी है तो मुक़ाबला ऐसा था, तो थोड़ी दोस्ती बाज़ार के साथ करनी पड़ी.

    हम तो उस तरह की फ़िल्में बना नहीं सकते थे, इसलिए फ़िल्में अपनी बनाईं और चाशनी बाज़ार की डाली.

    आप राजनीति को समाज से अलग करके नहीं देख सकते हैं. यह लगातार नज़र आएगी आपको हमारी फ़िल्मों में. इसीलिए कि मैं समाज का दृष्टा हूँ, देखता हूँ, जो चीज़ें समझ में आती हैं, समीकरण जो समझ में आते हैं वह मैं दर्शकों के साथ साझा करता हूँ प्रकाश झा

    इस हिसाब से शुरू किया और संयोगवश ऐसा हुआ कि मृत्युदंड, गंगाजल या अपहरण बनाई, तीनों फ़िल्में लोगों को अच्छी लगीं और निर्माण ख़र्च भी वापस आया.

    बड़े कलाकारों को इच्छा रहती है कि ऐसी फ़िल्मों में काम करें, तो इस वजह से ऐसा करना पड़ता है.

    तो क्या हम कह सकते है कि प्रकाश झा जैसे फ़िल्मकार जिन्हें 'थिंकिंग डायरेक्टर्स' यानी अलग सी सोच रखने वाला फ़िल्म निर्माता समझा जाता है वे भी बाज़ारवाद के चंगुल में आ गए या उन्हें बाज़ारवाद के सामने सर झुकाना पड़ा?

    (झल्लाते हुए कहते हैं) अब आप इतने लंबे चौड़े शब्द निकाल रहे हैं, बाज़ारवाद, चंगुल में आ गए, फलना ...ढिकाना...

    ... भाई सीधी सी बात है समय ऐसा है. हम या तो फ़िल्में बनाएं या घर में बैठें.

    अगर फ़िल्में बनाएं तो ऐसी फ़िल्में बनानी पड़ेंगी जिसे बाज़ार स्वीकार करे. तो हमें करना था वही किया, हमने सब सरोकार छोड़ संगीत, डांस और फालतू लव स्टोरी तो नहीं बनाई, बनाई अपनी तरह की चीज़ें, बाज़ारवाद कहाँ से आ गया उसमें?

    हाँ उसकी पैकेजिंग जो है वह बाज़ार के हिसाब से हुई. इस हिसाब का हुआ की आम आदमी उसे देख कर सिनेमा समझे.

    आपके हिसाब से उस तरह की फ़िल्में जिसे 'समानांतर' सिनेमा कहते हैं, उसका अंत आ गया है, या उसके स्वरुप में तबदीली आ गई है

    अंत तो पहले ही हो चुका है, अस्सी से नब्बे का दशक आते आते तो ख़त्म ही हो गया.

    अब कौन बना रहा है? वही कुंदन शाह, वही विधु विनोद चोपड़ा, या वही केतन मेहता या प्रकाश झा, हमलोगों ने कहाँ वैसी फ़िल्में बनाई? बना ही नहीं सकते थे. बाज़ार इस बात की इजाज़त ही नहीं देता था.

    मगर श्याम बेनेगल जैसे लोग आज भी छोटे कलाकारों को लेकर फ़िल्म बना रहे हैं. 'वेलकम टू सज्जनपुर' में बहुत जाने माने अदाकार नहीं थे.

    कैसे जाने माने कलाकार नहीं थे? अमृता राव उसमें थीं. श्रेयस तलपड़े उसमें थे. सब हिट कलाकार हैं. मगर छोटी फ़िल्में बनाने में भी आज कल पांच से आठ करोड़ लग जाते हैं. आख़िर निर्माता को वह पैसे वापस तो चाहिए ना.

    प्रकाश जी, आपकी फ़िल्मों की तरफ़ वापस आएं तो पाते हैं कि वैसे तो आपकी फ़िल्मों में राजनीति या एक राजनीतिक विचार को पेश करने की चेष्टा हमेशा से रही है, लेकिन हाल की फ़िल्में चाहे वह गंगाजल हो, या अपहरण. सब राजनीति के इर्द गिर्द ही घूम रही हैं. क्या इस वजह से कि अब आप राजनीति के ज़्यादा करीब हो गए हैं, ख़ुद राजनीति में प्रवेश कर लिया है आपने?

    दामुल से लेकर आजतक जितनी भी सामाजिक फ़िल्में मैंने बनाई उसमें राजनीति जुड़ी है.

    आप राजनीति को समाज से अलग करके नहीं देख सकते हैं. यह लगातार नज़र आएगी आपको हमारी फ़िल्मों में. इसीलिए कि मैं समाज का दृष्टा हूँ, देखता हूँ, जो चीज़ें समझ में आती हैं, समीकरण जो समझ में आते हैं वह मैं दर्शकों के साथ साझा करता हूँ.

    भारतीय लोकतंत्र की क्या व्यवस्था है, कैसे चलती है, इसके क्या दाव पेंच हैं उन मुद्दों पर आधारित फ़िल्म 'राजनीति' बना रहा हूँ.

    प्रकाश झा लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं

    कहते हैं भारत विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है. मगर मुझे तो यह एक धोखा सा लगता है. हमारे यहाँ राजनीति सिर्फ़ चुनाव तक सीमित होकर रह गई है. जैसे चुनाव ख़त्म हुए आम आदमी न कुछ कह सकता है, न कर सकता है, न अफ़सर, न नेता उसके पहुँच में है.

    जिस दिन तक मतदान नहीं हुआ होता है, सब उसके आगे पीछे घुमते हैं एक बार वोटिंग हो गई सब ग़ायब. लोकतंत्र तो ऐसा ऐसा नहीं होना चाहिए. इसी को सामने लाने की कोशिश करूंगा इस फ़िल्म में.

    और राजनीति के नज़दीक तो मैं हूँ ही. जबतक समाज में समझदारी रखने वाले लोग दाख़िल नहीं होंगे, परिवर्तन संभव नहीं है.

    आपकी राजनीति की बात करें तो काफ़ी क़यास लगाए जा रहे हैं कि आप कहाँ से चुनाव लड़ेंगे, किस दल के साथ जाएंगे?

    कहाँ से चुनाव लड़ेंगे, और लड़ेंगे कि नहीं इसमें तो कोई शंका है नहीं. मैं बिहार के चंपारण के बेतिया क्षेत्र से पिछला चुनाव लड़ा था, जो मैं हार गया था और उसी इलाक़े से जुड़ा हूँ.

    लगातार उसी इलाक़े में काम कर रहा हूँ. आज सभी राजनीतिक दल हमसे टिकट की बात कर रहे हैं. मैं भी देख रहा हूँ कि कौन सा गणित बनता है. किसकी समझ में मेरी बात आएगी. जो मेरे एजेंडा है उसे समझ सके. वह प्रोपीपुल (जनवादी) हो, विकास के मुद्दे को आगे बढ़ा सके, जहाँ सभी को साथ लेकर चलने की बात हो.

    लेकिन पहले मामला थोड़ा साफ़ तो हो जाए. कौन-कौन सी पार्टियां लड़ रही हैं? किसका गठबंधन किसके साथ है? तो फिर खुल कर बात करें उनसे.

    मगर ये बताएं आपकी जैसी छवि के लोगों के लिए रास्ता क्या है? इस मायनों में कि अगर राजनीतिक दलों की बात करें, तो बिहार में जो दल अभी हैं या तो उनपर घोर भ्रष्टाचार का इल्ज़ाम है या फिर ऐसे लोगों से जुड़ने का जिन्हें सांप्रदायिक समझा जाता है.

    (थोड़ा संभल कर जवाब देते हैं...) नहीं...नहीं. वह तो सभी पार्टियों के साथ है. सभी पार्टियों पर भ्रष्टाचार का आरोप है. सभी पार्टियों में अच्छे लोग भी हैं.

    देखिए सवाल यह होता है कि किसी न किसी विचारधारा से आदमी को जुड़ना पड़ता है.

    दूसरी चीज़ मेरे सांसद बनने का मतलब लोक सभा में जगह पाने से नहीं है. मुझे एक ऐसा ज़रिया चाहिए जिसमें विकास के सारे आयाम जो हैं उनतक हमारी पहुँच हो सके.

    मैं योजना आयोग से बात कर सकूं, विश्व बैंक से बात कर सकूं, सरकार से बात कर सकूं, नौकरशाही से बात कर सकूं. अलग अलग विभागों से बात कर सकूं. अपने लोगों की बात पहुंचा सकूं.

    सांसद बनने के तो हज़ार रास्ते हैं. कई तरह से बन सकता हूँ. राज्यसभा का सदस्य बन सकता हूँ. लेकिन वह मक़सद ही नहीं है.

    मक़सद है बेतिया, या पश्चिमी चंपारण या हम जिन लोगों के साथ कम कर रहे हैं. जिस क्षेत्र में हम काम कर रहे हैं, जहाँ के लोगों के साथ वादा है कि हमें आगे बढ़ना है तो इस वजह से मैं चुनाव लड़ रहा हूँ.

    देखा जाए कौन सी पार्टी सूट करती है, किस से बात हो सकती है, यह सब तो राजनीतिक निर्णय हैं मगर लड़ना है यह बात पक्की है.

    आपकी फ़िल्मों में, चाहे मृत्युदंड हो, गंगाजल या फिर अपहरण, बिहार कहीं न कहीं झलकता है, क्या 'राजनीति' में भी बिहार की छवि दिखेगी लोगों को?

    नहीं, राजनीति देश की फ़िल्म है, किसी भी हिंदी बेल्ट के राज्य में सेट हो सकती है. हम फ़िल्म में यह भी नहीं कह रहे कि यह भोपाल में सेट है. भोपाल एक लोकेशन की तरह आ रहा है.

    दूसरी चीज़ मेरे सांसद बनने का मतलब लोक सभा में जगह पाने से नहीं है. मुझे एक ऐसा ज़रिया चाहिए जिसमें विकास के सारे आयाम जो हैं उनतक हमारी पहुँच हो सके प्रकाश झा

    मेरी फ़िल्में भले ही बिहार की कहानी लगती हों, लेकिन गंगाजल की कहानी ऐसा नहीं कि जो बिहार की ही कहानी है. यह पुलिस की कहानी है, पुलिस से समाज का ऐसा संघर्ष हर जगह दिखाई पड़ता है. चाहे वह कर्नाटक हो या बिहार हो.

    मृत्युदंड के बाद आपकी नायिकाएं उतनी सशक्त नहीं दिखतीं, अब ग्लैमर डॉल्स ज़्यादा दिख रही हैं आपकी फ़िल्मों में. चाहे वह 'अपहरण' में हो या फिर अभी आपकी बन रही फ़िल्म 'राजनीति'...

    नहीं नहीं. जैसे जिसकी ज़रुरत होती है उस हिसाब से काम होता है. जो फ़िल्म जिस चीज़ पर फ़ोकस होती है. मृत्युदंड में फ़ोकस औरतों के ऊपर था, औरतें रही उस हिसाब से.

    अब आप किसको ग्लैमर डॉल समझते हैं, किसको नहीं. मेरे लिए सिर्फ़ एक्ट्रेस होती हैं, मैं एक्ट्रेस के साथ काम करता हूँ.

    बात यह है कि माधुरी दीक्षित को तो अदाकारा के तौर पर भी शोहरत मिली थी मगर हाल की आपकी चंद फ़िल्मों में काम करने वाले लोग...बड़े एक्टर के तौर पर नहीं जाने जाते?

    मेरी समझ आपकी समझदारी से अलग है. मैं इसपर कुछ नहीं कहूँगा.

    आपके व्यक्तिगत जीवन की कितनी छाप होती है आपकी फ़िल्मों पर?

    व्यक्ति और समाज लगभग एक ही हैं. उसमें हमारी क्या छाप रहेगी? हम रोज़ सीखते हैं समाज से.

    मेरे पूछने का मतलब था कि जैसा कहा जाता है कि हर कलाकार की, उसके जीवन की कुछ न कुछ छाप उसके काम में दिखती है.

    यह मैं नहीं कह सकता. यह दूसरे लोग कहेंगे तो ज़्यादा अच्छा होगा.

    आप कैसी फ़िल्में बनाते हैं? यानी आजकल जो बात बार-बार आती है कि स्क्रिप्ट पूरी तरह से बधी होनी चाहिए जिसकी बात आमिर ख़ान बार बार करते हैं. या कुछ दूसरी तरह की फ़िल्में जिसके बारे में कहा जाता है जिनके स्क्रिप्ट सिगरेट के डब्बों पर तैयार हुए? और अक्सर कितने दिन लगते हैं आपको एक फ़िल्म बनाने में?

    मुझे समय लगता है. मैं ज़रा कमज़ोर किस्म का आदमी हूँ. काफ़ी काम करना पड़ता है. रिसर्च करनी पड़ती है. मुझे हमेशा स्क्रिप्ट तैयार करने में चार-पांच साल लग जाते हैं इसीलिए मैंने कम फ़िल्में बनाई हैं.

    मैं बड़े आराम से, पहले से प्लानिंग करके, सबकुछ सोच समझ के, बार बार लोगों से बातचीत करके, तब फ़िल्में बनाता हूँ.

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