twitter
    For Quick Alerts
    ALLOW NOTIFICATIONS  
    For Daily Alerts

    निर्देशन अभिनय से मुश्किल है: नंदिता

    By Staff
    |

    nandita das

    गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म फ़िराक़ से निर्देशन में उतर रही नंदिता दास का कहना है कि निर्देशन अभिनय से मुश्किल काम है.इस बार हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं फ़िल्म फायर से मशहूर हुई अभिनेत्री और अब डायरेक्शन में उतर रही नंदिता दास के साथ.

    आपकी तारीफ़ में लोग तरह-तरह के कसीदे पढ़ते हैं. आपको पूर्ण कलाकार माना जाता है यानी उस ख़ास श्रेणी में? ये तो निर्भर करता है. कुछ लोग कहते हैं कि बड़ी आर्टी टाइप हैं, दिल्ली में रहने वाली हैं. मुख्य धारा का सिनेमा नहीं करती है, अपने आप को बहुत समझती है. तो लोग तरह-तरह की बातें करते हैं. लेकिन सबको अपनी-अपनी राय देने का पूरा-पूरा हक़ है.

    तो खुद के बारे में ये राय कैसी लगती है?

    पहली बात तो ये है कि मैं खु़शकिस्मत हूँ कि मेरे पास बहुत काम हैं और अपने बारे में सोचने का बहुत वक़्त नहीं मिलता. शुरू-शुरू में जब ज़्यादा काम नहीं था, तब ज़रूर गुस्सा आता था कि ये लोग तो मुझे जानते भी नहीं है और मेरे बारे में राय दे देते हैं. लेकिन अब मुझे फ़िल्म इंडस्ट्री में 10-12 साल हो गए हैं. इसलिए मैं अब लोगों की राय को बहुत गंभीरता से नहीं लेती.

    आप हमेशा से ही अभिनेत्री बनना चाहती थी क्या?

    नंदिता दास: बिल्कुल नहीं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि अभिनेत्री बनूँगी. न कोई ख़्वाहिश थी और न ही कभी ख़्वाब था. मैंने भूगोल से स्नातक किया. मुझे ये विषय अच्छा लगता था. तीन साल बीए करने के बाद लगा कि भूगोल बहुत दिलचस्प नहीं है. उस समय ये भी लगता था कि पढ़ाई से क्या फ़ायदा है. ईमानदारी से कहूँ तो मैं आगे नहीं पढ़ना चाहती थी, लेकिन मेरे माता-पिता का कहना था कि मैं अच्छी स्टूडेंट हूँ और मुझे एमए करना चाहिए. नंदिता दास ने सफ़दर हाशमी के ग्रुप जन नाट्य मंच में भी काम किया

    मैंने अपने माता-पिता का कहना तो मान लिया, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि किस विषय में एमए करूँ. मैंने ऋषि वैली स्कूल में चार महीने पढ़ाया और फिर मुझे लगा कि मुझे ऐसा कुछ करना चाहिए कि पढ़ाई कम हो और लोगों के बीच ज़्यादा काम हो. मैंने एमए सोशल वर्क में किया. मैं एनजीओ में काम कर रही थी और फ़िल्म इत्तेफ़ाक से मिली.

    आप थिएटर भी करती थी?

    थिएटर थोड़ा बहुत करती थी. स्ट्रीट थिएटर करती थी. स्कूल के बाद मैंने सफदर हाशमी के ग्रुप जन नाट्य मंच में चार-पाँच साल तक काम किया था. इसमें नाटकों से मैंने काफ़ी कुछ सीखा. और इसका असर मेरे सामाजिक कार्यों और व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ा है.

    थिएटर से फ़िल्मों में कैसे आईं?

    मैं एनजीओ में औरतों के विषय पर बहुत काम करती थी. मैंने एक छोटी सी फ़िल्म की थी 'एक थी गुंजा'. ये फ़िल्म एक आदिवासी औरत की सच्ची कहानी पर आधारित थी. फ़िल्म में दिखाया गया था कि किस तरह से वो औरत शिक्षा के लिए लड़ती है और समाज के भारी विरोध के चलते आत्महत्या करने पर मज़बूर हो जाती है. इस फ़िल्म के बारे में किसी ने लेख लिखा और किसी ने दीपा मेहता से इसका जिक्र किया. फायर मेरी पहली फ़िल्म थी जो रिलीज हुई और लोगों ने मेरे बारे में जाना. तो मुझे कहीं न कहीं ये लगता था कि अभिनय भी अपनी बात को कहने का एक ज़रिया है.

    अभी आपने फायर की बात की. इस फ़िल्म ने आपको कैसे बदला?

    हर चीज़ का आपके जीवन पर जाने-अनजाने असर तो पड़ता ही है. दीपा मेहता के साथ मैंने सवा दो फ़िल्में की. वाटर में मैं थी, लेकिन फिर ये विवादों में आ गई और बन नहीं पाई. लेकिन जब बाद में ये शुरू हुई तो मैं इसमें काम नहीं कर पाई. तो फ़िल्मों का असर तो पड़ा और ख़ासकर फायर का. दस-बारह साल पहले हमारे समाज में समलैंगिकता को लेकर चर्चा करने से डरते थे. इस विषय को लेकर मेरी संवेदनशीलता भी इन बारह साल में बढ़ी है.

    नंदिता दास का कहना है कि उन्हें कला फ़िल्मों में काम करना ज़्यादा अच्छा लगता है. इन फ़िल्मों की थीम उस समय ही नहीं आज के हिसाब से भी काफ़ी बोल्ड थी.

    तो बोल्ड थीम चुनते हुए कोई झिझक थी?

    मुझसे लोग अक्सर ये पूछते हैं कि आपने पहली फ़िल्म इतनी बोल्ड क्यों ली. लेकिन हक़ीक़त ये थी कि जब आपको पता नहीं होता कि आपकी दूसरी फ़िल्म होगी भी कि नहीं तो आप उसे पहली फ़िल्म के हिसाब से नहीं देखते. जब मैंने फायर की स्क्रिप्ट पढ़ी तो बड़ी दिलचस्प लगी. मेरा परिवार काफ़ी लिबरल है, फिर भी हमारे परिवार में समलैंगिकता को लेकर कभी चर्चा नहीं हुई. ये पता था कि सबको अपने तरीके से जीने का अधिकार है. मुझे ये तो पता था कि कुछ मुश्किलें आएँगी, लेकिन जो विवाद हुए, उसका अंदाज़ा नहीं था.

    विवाद तो ज़बर्दस्त हुआ?

    आपको याद हो तो फ़िल्म रिलीज़ होने के 13 दिन तक कुछ नहीं हुआ. लेकिन फिर कुछ लोगों ने हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया. उनमें से कुछ ने तो फ़िल्म देखी भी नहीं थी. कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ये फ़िल्म भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ है. फिर देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ लोगों ने फ़िल्म का समर्थन किया और कहा कि विरोध का ये तरीक़ा ठीक नहीं है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. तो इस फ़िल्म से अन्य विषयों अरेंज मैरिज, औरतों के पास विकल्पों की कमी आदि को लेकर भी चर्चा शुरू हो गई.

    इस दौरान का कोई ऐसा वाकया, जो आपकी यादों में हो?

    फ़ायर के बाद कई घटनाएँ हुई. मुझ पर उस विषय पर बात करने का दबाव बनाया गया, जिसके बारे मैं खुद ज़्यादा नहीं जानती थी. मुझे याद है कि मैं अपने बाल कटाने गई थी तो एक लड़की ने मुझसे कहा कि मैडम 'मैं उस तरह की हूँ. मेरे मां-बाप ने मुझे घर से निकाल दिया है. हालाँकि मैं उन्हें हर महीने पैसे भेजती हूँ, लेकिन उन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया.' वो अपने मां-बाप की बुराई नहीं कर रही थी. कहने का मतलब ये है कि फायर से मेरी समझ काफ़ी बढ़ी है.लेकिन इसके लिए एक्टिविस्ट बनने की ज़रूरत नहीं है. दरअसल, इन मुद्दों को हम अपनी ज़िंदगी का हिस्सा नहीं मानते. एड्स, बाल श्रम जैसे मुद्दे हैं जिन्हें हम खुद से जुड़ा नहीं मानते.

    आपका चेहरा खूबसूरत है और भारतीय है. ये बहुत कुछ कहता है. तो आपकी अलग छवि में इसका भी कुछ योगदान है?

    नंदिता दास मानवाधिकार मामलों को बहुत ज़ोर-शोर से उठाती रही हैं. मेरा तो मानना है कि मेरा चेहरा आम भारतीय सा है. मुझे कई बार लोग मिलते हैं और कहते हैं कि मेरी बहन की शक्ल आपसे मिलती है. मैं जब ऐसी फ़िल्में करती हूँ जिसमें मुझे दलित महिला, निचले तबके की भूमिका करनी होती है तो सांवले रंग से फर्क नहीं पड़ता. जब एक फ़िल्म में मैं उच्च मध्यम वर्ग की महिला की भूमिका कर रही थी तो डायरेक्टर मेरे पास आए और हिचकिचाते हुए मुझसे व्हाइटनिंग क्रीम लगाने को कहा. वो इसलिए कि मैंने कहीं बोला था कि मैं व्हाइटनिंग क्रीम नहीं लगाऊँगी. मेरा मानना है कि हम जो हैं वो हैं.

    भारत में देखिए कितनी विभिन्नताएँ हैं. कश्मीर भी है, केरल भी है और गुजरात भी है. आप किसका प्रतिनिधित्व ज़्यादा मानेंगे. अब मैं भी डायरेक्टर बन गई हूँ, इसलिए जानती हूँ कि किरदार का अपना महत्व होता है. कुछ भूमिकाओं में आप फिट होते हैं तो कुछ में नहीं.

    जब आप शुरू-शुरू में आई थीं तो लोग कहते थे कि ये लड़की स्मिता पाटिल की याद दिलाती है?

    शायद इसलिए कि वो भी सांवली थी और मैं भी. उन्होंने भी कुछ आर्ट फ़िल्में की थी और मैंने भी कीं. लेकिन मुझे लगता है कि लोग बहुत जल्दी तुलना करने लगते हैं. अगर आप सामाजिक कार्य कर रही हैं तो शबाना आज़मी के रास्ते पर चल रही हैं. अगर आप सांवली हैं और कला फ़िल्में कर रही हैं तो स्मिता पाटिल की राह पर हैं.

    आपने स्मिता पाटिल की फ़िल्में देखी हैं?

    मैंने स्मिता पाटिल की कई फ़िल्में देखी हैं. मैं उनकी बहुत बड़ी प्रशंसक हूँ. उन्होंने बहुत शानदार काम किया है. मेरा तो कहना है कि आजकल वैसी फ़िल्में बनती ही नहीं है. भूमिका, मंथन, अर्थ, मिर्च-मसाला, चक्र, सुबह कई फ़िल्में की हैं. इसलिए ऐसा कहना गलत है कि इन दो कलाकारों का सफर एकसा रहा है.

    बीबीसी एक मुलाक़ात में नंदिता दास के पसंद के गाने?

    देव आनंद की फ़िल्म का गाना 'अभी न जाओ छोड़कर', तनुजा और संजीव कुमार पर फ़िल्माया गाना 'मुझे जां न कहो मेरी जान', 'चैन से कभी हमको आपने जीने न दिया' ,'यही वो जगह है, यही वो फ़िज़ा है', 'भीगी-भीगी खुशबू तेरा है' और अर्थ का गाना 'रितु आ गई रे' मुझे बहुत पसंद हैं. इसके अलावा 'फूलों के रंग से' और गुरुदत्त की फ़िल्म का गाना 'हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा लें तो' काफ़ी पसंद है.

    तो निर्देशक बनने की कैसे सूझी?

    कहीं न कहीं अभिनय करते हुए लगता था कि अगर कहानी मैं अपने तरीके से कहूँ तो ज़्यादा मजा आएगा.कई साल से सोच रही थी कि अपना काम करूँगी. मैं एक स्क्रिप्ट लिख भी रही थी, लेकिन पता नहीं कहाँ छूट गई. लेकिन फ़िराक़ का जन्म अलग तरीक़े से हुआ. इसमें मेरे मानवाधिकार कार्यों का बहुत योगदान है. पिछले सात-आठ साल में मैंने स्कूल-कॉलेज में जाकर बड़ी तादाद में युवाओं से बात की. तो फ़िराक़ की पृष्ठभूमि गुजरात दंगों के एक महीने के बाद की कहानी है.नंदिता का कहना है कि डायरेक्शन अभिनय से अधिक मुश्किल काम है

    आप इसमें अभिनय भी कर रही हैं क्या?

    नहीं, मैं इसमें अभिनय नहीं कर रही हूँ. मुझे लगता है कि निर्देशन खुद में भारी भरकम काम है. तो निर्देशन के साथ अभिनय मुश्किल होता. फ़िल्म में बहुत अच्छे कलाकार हैं. नसीरुद्दीन शाह, रघुवीर यादव, दीप्ति नवल, परेश रावल, संजय सूरी, नवाज जैसे कलाकार हैं. एक सात साल का बच्चा भी है जो पहली बार कैमरे का सामना करेगा.

    नसीरुद्दीन शाह के साथ काम करने का अनुभव?

    मैं नसीर को कई साल से जानती हूँ. मैं अक्सर उनसे कहा करती थी कि मेरी सिफारिश कीजिए तो बतौर कलाकार साथ-साथ काम करने का मौका मिलेगा. लेकिन वो तो हो न सका, लेकिन अब मैं उन्हें डायरेक्ट कर रही हूँ. फ़िल्म में डायरेक्टर और कलाकारों की मिलीजुली भूमिका होती है. तो साथ काम करने से कई नई चीजें होती हैं.

    नसीरुद्दीन शाह के अलावा और कौन से कलाकारों के साथ मजा आया?

    मेरे ख़्याल से रघुवीर यादव बेहतरीन कलाकार हैं. परेश रावल के साथ भी काम करने में बहुत मजा आया. परेश रावल को हमने अधिकतर कॉमेडी रोल में देखा है, उन्हें इस फ़िल्म में गंभीर भूमिका करने में मजा आया. इस फ़िल्म में चार भाषाएँ हैं. हिंदू, उर्दू, गुजराती और अंग्रेजी. परेश रावल ने गुजराती बोली है और चूँकि ये उनकी मातृभाषा है इसलिए बहुत मजा आया है. दीप्ति नवल का काम लोगों ने बहुत सराहा है. शहाना गोस्वामी बहुत अच्छी कलाकार हैं.

    संजय सूरी और तिस्का ने भी बहुत अच्छा काम किया. जब मैंने मुंबई में पहली स्क्रीनिंग की तो नसीरुद्दीन ने कहा कि इस फ़िल्म में अगर सर्वश्रेष्ठ कलाकार का पुरस्कार मिलना चाहिए तो पूरी टीम को मिलना चाहिए.

    तो फ़िराक़ कब रिलीज़ हो रही है?

    ये फ़िल्म 20 मार्च को रिलीज़ हो रही है. कमर्शियल सिनेमा से कुछ ऐतराज़.

    यानी कमर्शियल सिनेमा में आपकी कितनी दिलचस्पी है?

    कुछ अच्छे संबंध नहीं है. उसकी वजह ये है कि मेरी परवरिश कुछ ऐसी ही हुई. मैंने बचपन से ऐसी फ़िल्में नहीं देखी. मेरे माता-पिता ने नहीं देखी तो शायद मुझे भी नहीं दिखाई. तो कमर्शियल फ़िल्मों की तरफ़ मेरा रुझान नहीं रहा है. हम लोग नाटक, नृत्य देखने जाते थे.

    तो आप अब भी कमर्शियल फ़िल्में नहीं देखतीं?

    बहुत कम.

    गोविंदा की फ़िल्में नहीं देखी?

    फ़िल्म तो नहीं देखी, लेकिन गाने देखे हैं. उनके गाने और डांस बहुत अच्छा होता है. अब बॉलीवुड की कुछ फ़िल्मों की बात करें तो चक दे इंडिया मुझे अच्छी लगी. रॉक ऑन भी मुझे अच्छी लगी.

    आपके पसंदीदा अभिनेता?

    फेवरिट मैं किसी को नहीं मानती. कई अच्छे अभिनेता हैं, लेकिन पसंदीदा पूछेंगे तो मुश्किल होगी. अगर कोई ये पूछे कि आपकी पसंदीदा जगह कौन सी है तो दुनिया भर में इतनी सारी अच्छी जगहें हैं कैसे एक जगह बता सकते हैं.

    जब आप काम नहीं कर रही होती हैं तो क्या करना पसंद करती हैं?

    मैं अपने काम में बहुत मजा लेती हूँ. मैं वही काम करती हूँ जिसमें मजा आए. क्रिएटिव काम और लोगों से मिलना-जुलना मुझे पसंद है.

    मुझे लग रहा है कि इन दिनों आप कुछ ज़्यादा मेहनत कर रही हैं. कहने का मतलब कुछ दुबली-पतली लग रही हैं?

    मैं ज़िंदगी में पहली बार व्यायाम कर रही हूँ. मैं बहुत आलसी रही हूँ. मैं हमेशा से ही सोचा करती थी कि योग, ध्यान करना चाहिए. मेरे कई शुभचिंतक फ़िल्म डायरेक्टर कहा करते थे कि तुमने तो इसका बहुत वैल्यू बना लिया है कि मैं व्यायाम नहीं करती. अब मैं एक फ़िल्म के लिए ऐसा कर रही हूँ. लेकिन मुझे अब इसमें मजा आने लगा है और जब आप कोई काम किसी मकसद के लिए करते हैं तो ये आसान हो जाता है.

    लगता है कि आप ये मेहनत किसी कमर्शियल फ़िल्म के लिए कर रही हैं?

    फिलहाल तो मैं यही कह सकती हूँ कि ये बहुत रोमांचक फ़िल्म है. ऐसा किरदार मैंने पहले कभी नहीं किया है. कुछ ही दिनों में आपको इस बारे में पता चल जाएगा.

    आपके माता-पिता बहुत जाने-पहचाने हैं. परिवार में सभी लोग बुद्धिजीवी हैं. तो कभी ऐसा लगा कि दूसरे बच्चों से कुछ अलग हैं?

    ऐसा कुछ नहीं है. क्योंकि हर चीज़ की अहमियत अलग है. जैसे डॉक्टरों के बच्चों को पता होता है कि किस बीमारी के लिए क्या दवा होती है, जो हम नहीं जानते. मुझे याद है जब गुजरात में भूकंप आया तो हम अहमदाबाद में थे और हम बुरी तरह हिल गए थे. तब मुझे लगा था कि मैं कैसा काम कर रही हूँ जिसका लोगों को कोई फायदा नहीं है. काश मैं डॉक्टर होती तो लोगों की मदद कर सकती थी. तो ये माहौल-माहौल पर निर्भर करता है. हमें फ़िल्मों, गानों, लय-धुन का पता है तो दूसरे बच्चों को कुछ और पता होता है.

    मैं अक्सर सबसे पूछता हूँ कि अगर आप ये नहीं होती तो क्या होती, लेकिन आप तो इतना कुछ कर ही रही हैं?

    मैं अलग-अलग चीजें करना पसंद करती हूँ. मुझे लगता है कि अगर मैं एक ही चीज करती तो पागल हो जाती. पिछले दो सालों में मैंने फ़िराक़ के अलावा बहुत कम दूसरी चीजें की हैं. यही वजह है कि अब मैं उकता सी गई हूँ और चाहती हूँ कि फ़िल्म जल्दी से रिलीज़ हो जाए.

    दो साल तक एक फ़िल्म डायरेक्ट करना. इतना अनुशासन कैसे आया?

    नंदिता मानती हैं कि सफ़र मजेदार है तो मंजिल पर पहुँचने की जल्दी नहीं होनी चाहिए. दो साल लगातार. फ़िल्म बनाने में मुझे यही चुनौतीपूर्ण लगा कि हर क्षेत्र में कुछ अलग था. हमें स्क्रिप्ट लिखने में तीन साल लगे. इस दौरान मैं सिर्फ़ स्क्रिप्ट ही नहीं लिख रही थी, मैंने तकरीबन पाँच फ़िल्में की. उसके बाद प्री-प्रोडक्शन. पाँच छोटी-छोटी कहानियाँ 30 दिन में. साउंड, डायलॉग और एडिटिंग. तो हर फेज़ में मजा आया. कुछ हद तक अनुशासन भी दिखाया. मैं समझती हूँ कि मेरे भीतर कुछ ठहराव आया है.

    कुछ ख़ास करने की तमन्ना?

    कहीं पहुँचने की तमन्ना तो नहीं है. मेरा ज़ोर सफ़र पर ज़्यादा रहता है, इसे खत्म करने पर नहीं. अगर आपको सफर अर्थपूर्ण लग रहा है तो मंजिल पर पहुँचने की जल्दी नहीं होनी चाहिए. हाँ, सपने कई हैं. कभी लगता है कि नदी किनारे छोटा स्कूल शुरू किया जाए. कभी लगता है कि और फ़िल्में बनाई जाएँ. कभी लगता है कि ये सब बेकार है. तो सपने हैं, लेकिन ऐसी महत्वाकांक्षा नहीं है कि बेस्ट एक्टर या डायरेक्टर होना है.

    आप खुद को कितना सुलझा हुआ इंसान मानती हैं?

    इसके बारे में बहुत उलझन है. कई चीजें लगता है कि सुलझ गई हैं, लेकिन कई अब भी उलझी हैं. ये व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है. कुछ लोगों को लगता है कि ये उलझी हुई है, कुछ को लगेगा कि ये सुलझी हुई है. ज़िंदगी में बहुत उतार-चढ़ाव हैं. ज़िंदगी में सब कुछ सही-गलत नहीं होता. बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जिनके बारे में काफ़ी सोच विचार करना होता है और हर इंसान इसे अपने तरीके से परिभाषित करता है.

    आप खुद को दो-तीन वाक्यों में कैसे बताएँगी?

    नंदिता दास आराम करना पसंद नहीं करती. मेरे लिए कोई मुद्दा नहीं है. अगर यहाँ पर किसी बच्चे को पीटा जाता है तो ये मेरे लिए मुद्दा नहीं है, बल्कि मैं इसमें घुस जाती हूँ. मुझे गुस्सा जल्दी आता है. लेकिन शांत भी जल्दी हो जाती हूँ. अगर मुझे लगता है कि मैं गलत हूँ तो मुझे माफ़ी मांगने में कोई मुश्किल नहीं होती.

    मैं कई बार अपनी राय कायम कर लेती हूँ, लेकिन कई बार मुझे ये भी लगता है कि सबका अपना-अपना नज़रिया है. एक दौर था जब मुझे लगता था कि मुझमें चीज़ें इतनी उल्टी-पुल्टी क्यों होती हैं, लेकिन जब मैंने अपने आसपास देखा तो मुझे लगा कि ये तो सभी में है. तो कहना चाहिए कि मैं विसंगतियों की गठरी हूँ.

    तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
    Enable
    x
    Notification Settings X
    Time Settings
    Done
    Clear Notification X
    Do you want to clear all the notifications from your inbox?
    Settings X
    X