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भोजपुरी सिनेमा की संघर्ष भरी यात्रा
ससुरा
बड़ा
पइसा
वाला
फिलहाल
इसका
उदाहरण
ससुरा
बड़ा
पइसा
वाला
ही
है।
फिल्म
में
तीस
लाख
रूपये
लगे
और
इसने
पन्द्रह
करोड़
का
व्यवसाय
किया।
इसी
तरह
मनोज
तिवारी
की
दरोगा
बाबू
आई
लव
यू
ने
चार
करोड़
और
बंधन
टूटे
ना
ने
तीन
करोड़
का
व्यवसाय
किया।
इसी
के
चलते
अब
भोजपुरी
फिल्मों
का
बजट
भी
बढ़ने
लगा
है
और
एक
से
डेढ़
करोड़
रूपये
बजट
की
फिल्में
भी
बनने
लगी
हैं।
भोजपुरी
में
भी
मनोज
तिवारी
रवि
किशन
और
निरहुआ
जैसे
स्टार
सामने
आये
हैं
जिनका
प्रति
फिल्म
पारिश्रमिक
25
से
लेकर
50
लाख
होती
है।
यह
दौर
चकाचौंध
से
लबरेज
है
पर
अधिकांश
भोजपुरिहों
का
मानना
है
कि
इनमें
इनकी
माटी
की
गंध
और
उनके
सवालात
अनुपस्थित
हैं।
व्यावसायिक
सफलता
निश्चित
तौर
पर
संभावनाओं
के
नए
द्वार
खोलती
हैं।
निश्चय
ही
आने
वाले
दिनों
में
कुछ
अच्छी
और
सार्थक
भोजपुरी
फिल्में
सामने
आएंगी
क्योंकि
भोजपुरी
फिल्मों
की
यात्रा
साढ़े
चार
दशक
पुरानी
है
और
उसने
कई
कालजयी
फिल्में
दी
हैं।
भोजपुरी
सिनेमा
का
आरंभिक
दौर
1963
में
प्रदर्शित
विश्वनाथ
शाहाबादी
की
फिल्म
गंगा
मइया
तोहें
पियरी
चढ़इबो
से
भोजपुरी
सिनेमा
की
शुरूआत
होती
हैं
हालांकि
20वीं
सदी
के
पांचवें
दशक
में
भोजपुरी
क्षेत्र
के
कई
लेखक
कवि
कलाकार
बम्बई
फिल्म
उद्योग
में
सक्रिय
थे
और
इन
भोजपुरिहों
को
अपने
देश,
गांव-जवार
की
बड़ी
याद
सताती
थी।
बरहज
के
मोती
बीए
को
हिन्दी
फिल्मों
में
भोजपुरी
गीतों
के
प्रचलन
का
श्रेय
दिया
जाना
चाहिए
इससे
हिन्दी
भाषी
दर्शक
भोजपुरी
की
मिठास
से
परिचित
हुआ।
पचास के दशक में भाषाई आधार पर भारत में राज्यों का पुनर्गठन हो रहा था। वास्तव में उसी दौर में हिन्दी फिल्म उद्योग की भी तस्वीर बदल रही थी। सत्यजीत रे ने पाथेर पांचाली बनाकर प्रादेशिक अथवा आंचलिक भाषाओं में सिनेमा बनाने की संभावना और उसकी ताकत दोनों का एहसास करा दिया था। अब हिन्दी फिल्म उद्योग में भी कन्टेंट को लेकर बहस शुरू हुई थी और जिन भाषाओं में सिनेमा नहीं था उन भाषाओं में इस जन कला माध्यम को अपनाये जाने की छटपटाहट इसने पैदा की। 1961 में नितिन बोस के निर्देशन में बनी गंगा-जमुना ने पहली बार अवधी भाषा में संवादों का इस्तेमाल हुआ और भोजपुरी में गीत लिखे गये। फिल्म और उसके गीत सुपरहिट हुए इससे पहली बार यह विश्वास पैदा हुआ कि उत्तर भारतीय बोलियों में भी फिल्म बनायी जा सकती है।
डा.राजेंद्र
प्रसाद
ने
दी
थी
प्रेरणा
इसी
साल
विश्वनाथ
शाहाबादी
जो
बिहार
के
एक
बड़े
व्यवसायी
थे
और
जिन्हें
भारत
के
तत्कालीन
राष्ट्रपति
डा
राजेन्द्र
प्रसाद
ने
भोजपुरी
में
फिल्म
बनाने
के
लिए
प्रेरित
किया
था;
वे
बम्बई
पहुंचे।
दादर
में
वे
प्रीतम
होटल
में
ठहरे
जो
पुरबियों
का
अड्डा
था
यहीं
उनकी
मुलाकात
नजीर
हुसैन
से
हुई
जो
वर्षों
से
एक
पटकथा
तैयार
करके
भोजपुरी
फिल्म
बनाने
की
जुगत
में
थे
और
इस
तरह
जनवरी
1961
में
नजीर
हुसैन
के
नेतृत्व
में
गंगा
मइया
तोहें
पियरी
चढ़इबो
के
निर्माण
की
योजना
बनी।
फिल्म
का
निर्देशन
बनारस
के
कुंदन
कुमार
को
सौंपा
गया।
बनारस
के
ही
रहने
वाले
कुमकुम
और
असीम
को
फिल्म
में
नायिका
और
नायक
बनाया
गया।
संगीत
निर्देशन
की
जिम्मेदारी
चित्रगुप्त
को
दी
गई
तब
बकायदा
16
फरवरी
1962
को
पटना
के
ऐतिहासिक
शहीद
स्मारक
पर
फिल्म
का
मुहुर्त
सम्पन्न
हुआ।
1963 में यह फिल्म प्रदर्शित हुई और बेहद सफल हुई। बनारस में यह फिल्म प्रकाश टाकीज में प्रदर्शित हुई थी और प्रदर्शन के एक सप्ताह के भीतर ही इसकी सूचना आसपास के गांवों में फैल गयी और लोग बैलगाड़ी इक्का और पैदल झुण्ड के झुण्ड सिनेमा देखने पहुंचने लगे। प्रकाश टाकीज के बाहर मेले जैसा दृश्य होता था और कहा जाने लगा-'गंगा नहा विश्वनाथ जी के दरसन कर, गंगा मइया देखऽ तब घरे जा।'
सफलता
का
इतिहास
गंगा मइया तोहे पियरी ...की सफलता के बाद तो भोजपुरी फिल्मों की लाइन लग गई 1963 से लेकर 1967 के बीच सौ से ज्यादा भोजपुरी फिल्मों के निर्माण की घोषणा की गई। इनमें से जो फिल्में प्रदर्शित हुई उनमें विदेशिया, लागी नाहीं छूटे राम, नइहर छूटल जाय, हमार संसार, बलमा बड़ा नादान, कब होई गवना हमार, जेकरा चरनवा में लगलें परनवा, सीता मइया, सइयां से भइलें मिलनवा, नजीर हुसैन की हमार संसार और भौजी, आकाशवाणी पटना के विख्यात रेडियो नाटक पर आधारित लोहा सिंह, विधवा नाच नचावे, सोलह सिंगार करे दुलहिनिया और गंगा प्रमुख है।
आगे पढ़ेः 'गोल्डेन एज' था भोजपुरी सिनेमा का आरंभिक दौर
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