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    भोजपुरी सिनेमाः समय के साथ बदला रंग

    By डा.चंद्रभूषण अंकुर
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    हिन्दी सिनेमा का यह वह समय था जब स्टूडियो का जमाना खत्म हो रहा था और स्टारों का जमाना आ गया था। जोड़ियों का चलन था। फिल्मों पर उनकी मनमानी शुरू हो रही थी। भोजपुरी फिल्मों के कलाकार इससे पीछे क्यों रहने लगे। गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो के हिट होते ही असीम व कुमकुम की जोड़ी बन गयी थी। लागी नाहीं छूटे राम के लिए एक नया चेहरा सुजीत कुमार के रूप में तलाशा गया। लेकिन फिल्म की हिरोइन कुमकुम ने उनके साथ काम करने से इनकार कर दिया।

    आइटम सांग का चढ़ा बुखार

    भोजपुरी सिनेमा के शुरूआती सालों में ही ठहराव आ जाने के कई कारण थे। एक तो यह पूरे सिनेमा उद्योग के लिए मंदी का दौर था, दूसरे इस वक्त लोगों के लिए नया आकर्षण रंगीन फिल्में थीं। तकनीकी स्तर पर भी हिन्दी सिनेमास्कोप और 70 एमएम जैसे प्रयोग हो रहे थे। इस तरह की तकनीकी को अपनाने और प्रयोग करने के लिए जिस पूंजी की जरूरत थी उसमें भोजपुरी फिल्में पिछड़ रही थीं। संभवत: विषय-वस्तु का दोहराव भी एक कारण था। गॉव की एक खास स्थिति, परिवेश और पात्रों में भी टहराव दिखता है। कुल मिलाकर जोर गीतों पर था कवायद यह होती थी कि बढ़िया गीत फिल्मा लिये जायें।

    पहली फिल्म से ही आइटम सांग का बुखार चल पड़ा था। दरअसल यह आइटम संस्कृति लोक से उठाई गयी थी। भोजपुरी अंचल में बाइयों का नाच और नौटंकी में इस तत्व के सूत्र पकड़े जा सकते हैं। पहले दौर के उतार के बाद निर्माताओं को यह समझ में आ गया कि बिना रंग और नई तकनीकी के टिकना संभव नहीं होगा। लम्बे अन्तराल के बाद भोजपुरी फिल्मों का रंगीन दौर शुरू हुआ। भोजपुरी फिल्म निर्माण यह दौर 1977 से 1982 तक चला। दंगल, बलम परदेसिया, धरती मइया और गंगा किनारे मोरा गांव जैसी फिल्मों की सफलता ने यह स्थापित किया कि भोजपुरी फिल्मों का दर्शक वर्ग है। बशर्ते नाच और गाने फार्मूले से हटकर स्थानीय कथा तत्वों को भी जगह मिले।

    'दंगल' ने शुरु किया एक नया दौर

    पहले दौर में बिदेसिया जैसी हिट फिल्म के निर्माता बच्चू भाई शाह ने भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म दंगल (1977) बनाई। फिल्म के पात्र और कथा लगभग वही थी। लेकिन रंग के अलावा मिस इंडिया प्रेमा नारायण भी इस फिल्म में अतिरिक्त आकर्षण थी। यह वह समय है जब भारतीय फिल्म फलक पर शोले आकर जा चुकी थी। दंगल में शोले की तर्ज पर घोड़े पर सवार डकैतों का पकड़ने का लम्बा चेज सीन था। डाकू का नाम 'कालिया" था जो संवाद अदायगी में विशिष्ट शैली अपनाता है। उसकी डेन शोले के गब्बर से कम नही थी।

    'भेड़ों की लड़ाई" और 'कुश्ती" जैसे खास स्थानीय 'तमाशा" की चीजें डाली गई थीं। इफ्तेखार और कन्हैयालाल जैसे अभिनेता थे। नदीम श्रवण की जोड़ी का ताजातरीन संगीत था। ऐसा कहा जाता है कि नदीम श्रवण का परिचय भी फिल्मी दुनिया से इसी फिल्म की बदौलत हुआ। फिल्म हिट रही। भोजपुरी फिल्मों में गीतों की सशक्त जमीन के बावजूद मसाला मिलाने की प्रवृत्ति यहीं से शुरू हुई। यह एक तरह से मुख्यधारा सिनेमा की गिरफ्त में जाने और उसके मुहावरे में अपनी बात कहने की शुरूआत थी। यह मौलिकता से अनुकरण की ओर लपकने की सस्ती कोशिश थी, जिससे अच्छी कमाई हो सकती थी। दंगल ने इसकी राह दिखा दी।

    ज्यादा दिनों तक नहीं चला फार्मुला

    दंगल की सफलता के बाद एक बार फिर से नजीर हुसैन हकरत में आये। उन्होंने पूना फिल्म इंस्टीट्‌यूट से अभिनय के स्नातक राकेश पाण्डेय को लेकर बलम परदेसिया नाम की फिल्म बनाई। लास्ट एण्ड फाउण्ड फार्मूले की इस फिल्म ने रजत जयंती मनाई। इसमें चित्रगुप्त के संगीत का जादू सिर चढ़ कर बोला। मो0 रफी की आवाज में 'गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ी-उड़ी जाये" से भोजपुर की गलियां गुलजार हुई। हालांकि भोजपुरी बाजार की हालत नरम देखकर नजीर साहब ने बहुत कम दामों पर ही उसके राइट बेच दिये थे।

    इसके बाद आरा के रहने वाले सिनेमा वितरक अशोक चंद जैन का फिल्मी आकाश पर धमाकेदार अवतरण हुआ। अब तक के अशोक चन्द जैन ने बिहार में लास्ट एण्ड फाउण्ड फार्मूले पर ही बनी गंगा किनारे मोरा गांव पटना के अप्सरा सिनेमा हाल में 30 सप्ताह तक चली। इस फिल्म ने 50 लाख रूपये का व्यवसाय किया। मुम्बई के मशहूर सिनेमा हाल 'मिनर्वा" में चार सप्ताह तक हाउसफुल चली। भोजपुरी की यह पहली फिल्म है जिसका प्रदर्शन मारीशस में हुआ। इस फिल्म में पहली बार भोजपुरी फिल्मों के नायक की पोशाक बदली। उसने धोती के बाद पतलून भी पहना। गंगा किनारे मोरा गांव जैसी शानदार सफलता किसी दूसरी भोजपुरी फिल्म को नसीब नहीं हुई। इस सफलता से अघाये अशोक चन्द्र जैन ने तुरन्त तीसरी फिल्म 'दुलहिन" बनाई। इस बार वे निर्माता, निर्देशक और लेखक स्वयं थे। अपने भाई मोहन जैन को हीरो बना लिया था। फिल्म औधें मुंह गिरी।

    आगे पढेः भोजपुरी सिनेमा से मिटने लगी माटी की महक

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