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    'द कश्मीर फाइल्स' रिव्यू- विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म को देखकर भूल पाना मुश्किल है

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    Rating:
    3.0/5

    निर्देशक- विवेक अग्निहोत्री
    कलाकार- अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी, प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव, चिन्मय मांडलेकर, भाषा सुंबली

    "क्या विडंबना है, लोग कश्मीर को जन्नत मानते हैं, और जो कश्मीर को जहन्नुम बना रहे हैं वो भी जन्नत जाना चाहते हैं.." आंखों में दर्द लिये फिल्म का एक किरदार कहता है। एक सच्ची त्रासदी पर आधारित, भावनात्मक रूप से आपको हिला देने वाली यह फिल्म 1990 में कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा को दिखाती है, जिन्हें इस्लामिक आतंकियों द्वारा अपने घरों से भागने के लिए मजबूर किया गया था। फिल्म बताती है कि वह सिर्फ एक पलायन नहीं था, बल्कि नरसंहार था।

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    लगभग 2 घंटे 40 मिनट लंबी इस फिल्म में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री भारत के एक प्रमुख शैक्षणिक संस्थान और मीडिया पर निशाना साधते हैं। वह अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से लेकर कश्मीर के प्राचीन इतिहास और पौराणिक कथाओं पर बात करते हैं। लगभग 30 सालों के बाद, कश्मीरी पंडित आज भी न्याय की उम्मीद करते हैं। ये फिल्म उनकी पीड़ा, उनकी आवाज को सामने रखती है। यह दिखाती है कि किस तरह राजनीतिक कारणों से कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को सालों साल दबा दिया गया।

    कहानी

    कहानी

    फिल्म 1990 से शुरु होती है और मौजूदा साल तक पहुंचती है। दिल्ली में पढ़ रहा कृष्णा (दर्शन कुमार) अपने दादाजी पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए श्रीनगर आया है। कश्मीर के अतीत से बेखबर वह अपने परिवार से जुड़ी सच्चाई की खोज में है। श्रीनगर में उसकी मुलाकात दादाजी के चार दोस्तों से होती है। उनके बीच धीरे धीरे कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार की चर्चा शुरु होती है और कहानी पहुंचती है साल 1990 में।

    साल 1990 की कहानी जेकेएलएफ (JKLF) द्वारा सतीश टिक्कू की हत्या के साथ शुरू होती है। दिखाया जाता है कि किस तरह कश्मीर की गलियों में आतंकी बंदूकें लेकर चारों ओर घूम रहे हैं और कश्मीरी पंडितों को ढूंढ ढूंढ कर मार रहे हैं, उनके घर जला रहे हैं। ना महिलाओं को बख्शा जा रहा है, ना बच्चों को। गली गली में 'रालिव, चालिव या गालिव' के नारे गूंज रहे हैं, जिसका अर्थ है " या तो धर्म बदलो, या भागो या मर जाओ.." पहली सीन के साथ ही निर्देशक स्पष्ट कर देते हैं कि यह फिल्म 1990 की घटना को गहराई से छूने वाली है।

    कहानी

    कहानी

    प्रलेखित रिपोर्ट्स के आधार पर फिल्म कश्मीरी पंडितों पर हुए तमाम हिंसा को दर्शाती है। बीके गंजू की चावल की बैरल में हत्या हो या नदीमर्ग नरसंहार हो, जहां 24 कश्मीरी पंडितों को भारतीय सेना की वेश में आए आतंकियों ने गोली मार कर हत्या कर दी थी। ये घटनाएं हम पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) और उनके परिवार की नजरों से देखते हैं। वह अपने बेटे, बहू और दो पोतों के साथ श्रीनगर में रहते हैं। जब उनके परिवार पर खतरा मंडराता है तो वो अपने चार दोस्तों ब्रह्म दत्त (मिथुन चक्रवर्ती) जो कि आईएएस हैं, डीजीपी हरि नारायण (पुनीत इस्सर), विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) जो कि मीडिया के लिए काम करते हैं और डॉ महेश कुमार (प्रकाश बेलावाड़ी) से मदद मांगते हैं, लेकिन तत्कालीन राज्य के अपंग प्रशासन के सामने सभी असहाय दिखाई देते हैं। ये सभी किरदार प्रतीकात्मक हैं, जो उस वक्त मौन रही सरकार को दिखाते हैं।

    निर्देशक ने फिल्म में कृष्णा की दुविधा के द्वारा आज के युवाओं को इंगित किया है। एक तरफ उसकी प्रोफेसर राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) कश्मीर की "आजादी" के नारे लगवाती है, दूसरी तरफ है उसके परिवार और कश्मीरी पंडितों का इतिहास। कृष्णा किस पक्ष की ओर से न्याय की मांग करता है, यही है फिल्म की कहानी।

    निर्देशन

    निर्देशन

    विवेक अग्निहोत्री ने सालों रिसर्च के बाद इस फिल्म की पटकथा पर काम किया है और वो पर्दे पर भी दिखता है। कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और नरसंहार की इस कहानी में निर्देशक ने तमाम बिंदु उठाए हैं। जैसे कि कई लोग हैं जो मानते हैं कि कोई पलायन नहीं हुआ था, कोई नरसंहार नहीं हुआ था। कुछ मानते हैं कि कश्मीरी हिंदुओं को उनके घरों से बाहर नहीं निकाला गया था, बल्कि वे अपनी मर्जी से चले गए थे। फिल्म में इसका जवाब दिया गया है। निर्देशक मुख्य तौर पर तीन किरदारों के जरीए हमें कश्मीरी पंडितों की पीड़ा दिखाने की कोशिश करते हैं- पुष्कर नाथ पंडित का किरदार एक आम पीड़ित पंडित को दिखाता है, तो शारदा का किरदार महिलाओं पर हुए अत्याचार को, और कृष्णा का किरदार पंडितों की तीसरी पीढ़ी है, जो अतीत की वास्तविकताओं से बेखबर है।

    हालांकि भावनात्मक पक्ष से ऊपर उठें तो फिल्म में थोड़ी कमियां भी दिखती हैं। कहानी कई जगह दोहराती सी लगती है और कल्पना के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती। नरसंहार के दृश्य हों या अन्य हिंसात्मक कृत्य.. निर्देशक आतंकियों की बर्बरता दिखाने के लिए spoonfeed करते दिखे हैं। फिल्म में इतने सारे मुद्दे एक के बाद एक सामने आते हैं कि आपको इक्के दुक्के किरदारों को छोड़, किसी से जुड़ने का मौका ही नहीं मिलता है।

    अभिनय

    अभिनय

    फिल्म की स्टारकास्ट बेहद दमदार है। पुष्कर नाथ पंडित के किरदार में अनुपम खेर ने बेहतरीन काम किया है। उनका किरदार आपको झंझोरता है और जाते जाते आंखे नम कर जाता है। कश्मीरी पंडितों के दर्द, निराशा और उम्मीद को उनके हर हाव भाव में देखा जा सकता है। कृष्णा के किरदार में दर्शन कुमार को कुछ दमदार सीन मिले हैं, जिसके साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। वहीं, चिन्मय मांडलेकर अपने किरदार (फारुक मलिक बिट्टा) में इतने रच बस गए हैं कि आप उनसे बिना नफरत किये थियेटर से बाहर नहीं आ पाएंगे। प्रोफेसर की भूमिका में पल्लवी जोशी भी उतनी ही प्रभावी हैं। फिल्म में अहम किरदार निभाने वाले मिथुन चक्रवर्ती, अतुल श्रीवास्तव, प्रकाश बेलावड़ी, पुनीत इस्सर, भाषा सुंबली अपने किरदारों में प्रभावशाली लगे हैं।

    तकनीकी पक्ष

    तकनीकी पक्ष

    फिल्म तकनीकी स्तर पर काफी प्रभावित करती है। उदयसिंह मोहिते की सिनेमेटोग्राफी कश्मीर के गलियों में उठ रहे भयावह मंजर को बखूबी दिखाती है। डल झील और पर्वतों की खूबसूरती से होते हुए सड़कों, गलियों और घरों में लगे आग को देखकर आपको लगातार बेचैनी होती है। लेकिन कहानी लगातार बांधे रखती है। फिल्म की एडिटिंग कुछ हिस्सों में काफी जबरदस्त है। लेकिन थोड़ी और चुस्त की जा सकती थी। कुछ हिंसात्मक दृश्यों को दर्शकों की कल्पना हेतु भी छोड़ दिया जा सकता था। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर दिया है रोहित शर्मा ने, जो फिल्म को एक मजबूती देती है।

    देंखे या ना देंखे

    देंखे या ना देंखे

    कश्मीर की खूबसूरत घाटियों के इस काले इतिहास को बड़े पर्दे पर देखना बेहद मार्मिक और दर्दनाक है। लेकिन महत्वपूर्ण भी है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' तथ्यों पर आधारित है। राजनीतिक झुकाव से अलग होकर देंखे.. तो इस फिल्म में कश्मीरी पंडितों पर हुए क्रूर अत्याचारों को देखना, मानवता और न्याय व्यवस्था को घुटने टेकते देखना दिल दहलाने वाला है। 'द कश्मीर फाइल्स' को फिल्मीबीट की ओर से 3 स्टार।

    English summary
    The Kashmir Files Review: This film by Vivek Agnihotri revolves around the genocide of Kashmiri Pandits in 1990. It is inspired by the true events. And the director didn't hesitated to show the brutal truth in most fearless way. The strong starcast supported it impressively.
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