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नो स्मोकिंग रिव्यू
नो स्मोकिंग देखने का सबसे पहला और एकमात्र कारन अनुराग कश्यप हैं. इस फ़िल्म के ज़रिये अनुराग ने समाज को सिगरेट जैसे नशे का सेवन ना करने का संदेश दिया है लेकिन वे इसमें सफल नही हो पाए.
इस फ़िल्म में जॉन एक चैन स्मोकर हैं और ऐसे इंसान की भूमिका निभा रहे हैं जो केवल अपने मन की सुनता है और उसी के हिसाब से काम करता है. और इसी वजह से उसकी अपनी पत्नी (आयशा टाकिया) से भी नही बनती और आखिरकार वो घर छोड़कर चली जाती है.
इसके बाद रणबीर शौरी की एंट्री होती है जो जॉन का दोस्त है और एक ज़माने मी वो भी चैन स्मोकर हुआ करता था. उसी की सलाह पर जॉन गुरूजी के पास जाता है और गुरूजी हैं परेश रावल.
इसके बाद कहानी में इतने सरे मोड़ आते हैं की हमे यही समझ में नहीं आता की अखिर अनुराग ने क्या बताने की कोशिश की है?
कुल मिलाकर जॉन एक कन्फ्यूज़ कैरैक्टर लगे हैं और चुलबुली आयशा टाकिया ने गंभीर किस्म का रोल किया है जो उन पर फिट नही बैठता है. रणवीर शौरी और परेश रावल ने अपने अभिनय में जान डाली है.
राजीव राय की सिनेमाटोग्राफी बेहतरीन है जिसकी प्रेरणा एक यूरोपियन फ़िल्म से ली गई है. मॉडल जेस्स रंधावा का अभिनय भी ठीक है लेकिन बिपाशा के आइटम नम्बर मी वो बात नही आ पाई जो 'बीडी जलइले' के वक्त थी.
नो स्मोकिंग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है की उसमे एक दमदार कहानी का आभाव है, और इसी वजह से वो दर्शकों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने में सफल नही हो पाई.
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