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केसरी फिल्म रिव्यू : अक्षय कुमार सिंह की तरह गरजते हैं लेकिन फिल्म दहाड़ नहीं पाती
एक गोरे ने मुझसे कहा था कि तुम गुलाम हो, हिंदुस्तान की धरती से डरपोक पैदा होते हैं। आज जवाब देने का वक्त आ गया है - हविलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) ऐसा अपने साथी जवानों से कहता है जब सामने लगभग 10 हज़ार की अफगानी फौज सारागढ़ी के किले पर कूच करने के लिए आगे बढ़ रही होती है।
इस माहौल में जितनी टेंशन होनी चाहिए वो नज़र आती है और आपको महसूस भी होती है लेकिन दुख की बात ये है कि केसरी में ऐसे भावनाओं से भरे हुए सीन बहुत ही कम हैं।
फिल्म 1987 के समय में ले जाती है। केसरी शुरू होती है ब्रिटिश भारतीय सेना के जवान हविलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) के कुछ अफगानों के साथ झड़प के साथ। ये अफगान एक औरत को मारने की कोशिश कर रहे होते हैं। ईशर सिंह अपने ब्रिटिश अफसरों का हुकुम मानने से इंकार करता है और उसे सारागढ़ी के किले पर ट्रांसफर कर दिया जाता है जहां वो 36 सिख रेजीमेंट के 21 जवानों का इंचार्ज होता है।
लेकिन अफगान तय करते हैं कि वो सारागढ़ी के किले पर हमला करेंगे। लेकिन ईशर सिंह की अगुआई में उनके 21 जवान लड़ते हुए शहीद हो जाना चुनते हैं लेकिन समर्पण नहीं करते हैं।
सारागढ़ी के युद्ध की कहानी एक अच्छी फिल्म के रूप में परदे पर आनी ही चाहिए थी। काफी समय से भारतीय फिल्मों के डायरेक्टर, इस विषय पर फिल्म बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ये एक वीर गाथा है जो लोगों को पता होनी ही चाहिए। और ये मौका मिला अक्षय कुमार और उनकी टीम को।
डायरेक्टर अनुराग सिंह, इस फिल्म से अपना डेब्यू कर रहे हैं। वो अपने काम के साथ ईमानदार हैं लेकिन फिल्म का लचर लेखन इसे ले डूबता है। फिल्म का पहला हाफ बहुत ही धीमा है औऱ कहीं कहीं तो आपके धैर्य की परीक्षा लेगा। अनुराग लड़ाई का माहौल बनाने के लिए काफी समय ले लेते हैं। लेकिन वहां पर दर्शकों के पचाने के लिए ज़्यादा कुछ है ही नहीं।
लेकिन इंटरवल के बाद मानो फिल्म में कोई जान फूंक दी गई हो। केसरी इतनी तेज़ गति से चलती है कि आपको पलकें झपकाने का भी मौका नहीं मिलेगा और देखते ही देखते आप फिल्म से पूरी तरह जुड़ जाते हैं। फिल्म के आखिरी 20 मिनट इतने बेहतरीन हैं कि आपके साथ काफी समय तक रहेंगे।
फिल्म की एक बड़ी कमी है किसी भी किरदार के पीछे की कहानी ना बता पाना। इसलिए उनके सफर के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ना काफी मुश्किल हो जाता है।
अगर अभिनय की बात करें तो अक्षय कुमार ने ईशर सिंह की भूमिका को बेहतरीन ढंग से निभाया है। उनके हाव भाव से लेकर सब कुछ किरदार के साथ बेहतरीन ढंग से मेल खाता है। स्टंट्स में तो अक्षय को महारत हासिल ही है इसलिए वो अपनी छाप छोड़ जाते हैं। हालांकि उनकी नकली मूंछ लोगों का ध्यान भटकाती है। लेकिन उनके 21 जवान भी फिल्म को शानदार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं।
परिणीति चोपड़ा का फिल्म में ना के बराबर रोल है और वो कहानी में ऐसा कोई गहरा असर नहीं छोड़ती हैं।
मनीष मोरे की एडिटिंग फिल्म को बेहद लचर और ढीली बनाती है। अगर फिल्म में कुछ और अच्छे गाने होते तो ये दर्शकों को बेहतरीन ढंग से लुभा पाती। हालांकि फिल्म के युद्ध के सीन आपको बांधे रखेंगे और पसंद भी आएंगे।
अंशुल चौबे का छायांकन, फिल्म के प्लॉट के साथ बहुत अच्छी तरह से बैठता है। अगर संगीत की बात करें तो तेरी मिट्टी छोड़कर और कोई भी गाना, परदे पर अच्छा नहीं दिखता है। फिल्म को बनाने के पीछे अक्षय कुमार की इरादा भले ही नेक है लेकिन फिल्म के लेखन के कारण अक्षय कुमार इस जंग को हार जाते हैं।
हमारी तरफ से फिल्म को 2.5 स्टार।
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