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    सारे जहां में धूम उर्दू ज़बाँ की है..!

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    सारे जहां में धूम उर्दू ज़बाँ की है..!

    मिर्ज़ा एबी बेग

    बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, दिल्ली से

    आम तौर पर देखा गया है कि बड़ी भाषाओं के विस्तार के सामने दूसरी भाषाएँ या तो लुप्त होती जा रही हैं या फिर मरती जा रही हैं. वैसे प्रत्येक भाषाविदों को आम तौर पर ये शिकायत है कि उनकी ज़मीन कम होती जा रही है और उनकी भाषा ख़त्म होती जा रही है.

    इस मामले में विभाजन के बाद से ही ये शोर ज़ोर पकड़ने लगा कि उर्दू भाषा मरती जा रही है, वजह चाहे कुछ भी हो उर्दू वाले इसका मर्सिया (शोक काव्य) पढ़ने में आगे-आगे ही नज़र आए.

    लेकिन मंगलवार को दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में विदेश मंत्रालय के सौजन्य से कामना प्रसाद की उर्दू पर 27 मिनट की एक डॉक्यूमेंट्री ‘उर्दू और जदीद हिंदुस्तान’ दिखाई गई.

    इसके ज़रिए ये दिखाने की कोशिश की गई है कि आम धारणा के विपरीत उर्दू आसमान की नई बुलंदियों को छू रही है.

    ललित कला अकादमी के चेयरमैन और हिंदी के जाने माने लेखक अशोक वाजपेयी ने इस फ़िल्म को देखकर कहा, "इस फ़िल्म ने मेरे हौसले बुलंद कर दिए हैं और वास्तव में उर्दू ने अपने पांव फैलाए हैं और वह नए संचार माध्यमों को बड़ी रास आ रही है. अंग्रेज़ी की तरह इसने भी दूसरी भाषाओं में जगह बनाई और इसके शब्द वहाँ प्रचलित हैं."

    इस फ़िल्म में परवेज़ आलम ने कहानी बयान की है.

    इस फ़िल्म की निर्माता और दिल्ली में जश्न-ए-बहार के नाम से अंतरराष्ट्रीय मुशायरों की आयोजक कामना प्रसाद ने कहा, "उर्दू महज़ एक ज़बान नहीं मुकम्मल तहज़ीब है, ये हमारी साझा तहज़ीब है और आधुकिन काल में यह ज़बान अपना रोल बख़ूबी निभा रही है."

    उन्होंने कहा, "हमने इस डॉक्यूमेंट्री के रिसर्च के दौरान पाया कि इसके शेर युवकों में लोकप्रिय हैं और वे अपनी भावना की अभिव्यक्ति के लिए एसएमएस में इसका काफ़ी प्रयोग करते हैं.” उन्होंने कहा, 'उर्दू इज़ रॉकिंग'."

    इस फ़िल्म में उर्दू से जुड़ी तहज़ीब और उसकी सुंदर लिपि को दर्शाया गया और विशेषज्ञों की राय को भी पेश किया गया.

    उर्दू के मशहूर विद्वान और आलोचक प्रोफ़ेसर गोपीचंद नारंग ने इस फ़िल्म में कहा है, "उर्दू ज़बानों का ताजमहल है.” यानी जो स्थान भवनकला निर्माण में ताजमहल को हासिल है वही स्थान भाषाओं में उर्दू को प्राप्त है."

    फ़िल्म के बाद उस पर परिचर्चा भी हुई.

    बहरहाल, फ़िल्म के बाद हुई परिचर्चा में कारपोरेट और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान ख़ुर्शीद को कड़े सवालों का सामना करना पड़ा और खचाखच भरे हॉल में लोगों ने कहा कि फ़िल्म में जो ‘सब कुछ ठीक है’ दिखाया गया है, वह ज़मीन पर नहीं दिखता है.

    लोगों का कहना था कि सरकार की योजना चाहे कुछ भी हो लेकिन इस ख़ूबसूरत ज़बान की पढ़ाई का इंतज़ाम नहीं हो रहा है और शिक्षकों की नियुक्ति दिल्ली में ही ज्यों की त्यों पड़ी है.

    इस फ़िल्म की एक ख़ास बात इसकी प्रस्तुति और बैकग्राउंड आवाज़ है जो बीबीसी के मशहूर प्रेज़ेंटर परवेज़ आलम की है. फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म की तर्ज़ पर परवेज़ आलम ने अपनी आवाज़ के जादू और उतार-चढ़ाव से इसमें एक नई जान डाल दी है.

    किसी भी भाषा के सफ़र पर बनी ये बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है और इसका निर्देशन अपर्णा श्रीवास्तव ने किया है जो उर्दू के नए मिज़ाज को भी दिखाती है.

    फ़िल्म में मशहूर पत्रकार मार्क टली ने कहा है कि ख़ुद उनके देश में बोले जाने के लिहाज़ से अंग्रेज़ी के बाद उर्दू ही है. तो हम क्या समझें कि वाक़ई यह भाषाओं का ताजमहल रॉकिंग है.

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