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दक्षिण भारतीय के कलाकार मुखर, पर बॉलीवुड खामोश!
किसी भी लेख की तुलना में हाल की दो घटनाएं उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच सांस्कृतिक मतभेद के कारगर उदाहरण हैं.
रविवार को बेंगलुरु में तमिल, तेलुगू और कन्नड़ अभिनेता प्रकाश राज ने सत्ताधारी बीजेपी पर 'सत्ता पर अपनी पकड़' बनाए रखने के लिए हर विरोध को शांत करने का आरोप लगाया.
उनकी प्रतिक्रिया हिंदी फ़िल्म निर्माता संजय लीला भंसाली के उस वीडियो के कुछ देर बाद आई जिसमें भंसाली अपनी फ़िल्म 'पद्मावती' का विरोध कर रहे असंतुष्ट हिंदुत्व समूह को शांत करने की कोशिश करते दिख रहे हैं.
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उठी दक्षिण से आवाज़
पिछली सर्दियों के दौरान महाराष्ट्र में उनकी फ़िल्म के विरोध के जवाब में करण जौहर द्वारा जारी वीडियो की तुलना में भंसाली के स्वर सच में दयनीय नहीं थे.
नवनिर्माण सेना ने तब पाकिस्तानी कलाकारों के होने के कारण 'ऐ दिल है मुश्किल' का विरोध किया था. हालांकि, हिंसा और तथ्यात्मक रूप से निराधार आपत्तियों के मद्देनज़र भंसाली और उनकी टीम अब तक उस फ़िल्म के लिए समझौताकारी सुर अपनाए हैं जो अभी रिलीज़ नहीं हुई है.
इसके विपरीत दक्षिण भारतीय फ़िल्म उद्योग की ओर से करीब एक महीने से बीजेपी को निशाना बना कर लगातार कड़े प्रहार किए जा रहे हैं.
तमिल फ़िल्म दिग्गज कमल हासन ने इसी महीने एक पत्रिका के कॉलम में हिंसक हिंदू कट्टरता के उत्थान की निंदा की है.
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विजय का मामला
हासन उन सितारों में से थे जिन्होंने तब सुपरस्टार विजय का समर्थन किया जब तमिलनाडु में बीजेपी ने उनकी फ़िल्म 'मेरसल' में जीएसटी का मज़ाक उड़ाने पर आपत्ति जताई और उसे हटाने की मांग की.
विजय पर 'मेरसल' के दक्षिणपंथी विरोधियों ने उनके ईसाई मूल का होने को लेकर भी हमला किया था जिसका उन्होंने अपने पूरे नाम सी जोसेफ़ विजय के साथ एक धन्यवाद पत्र जारी कर सामना किया.
भारतीय कलाकारों को दशकों से उनके काम और बयानों के लिए राजनीतिक संगठनों और धार्मिक समुदायों द्वारा परेशान किया जाता रहा है.
बॉलीवुड सितारों की चुप्पी
केंद्र की सत्ता में बीजेपी के आने के तीन साल बाद यहां और विदेश के उदार टीकाकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कमी देखी जा रही है.
ऐसे समय में जब अधिकांश हिंदी फ़िल्म स्टार बीजेपी के सामने अपने बयान और चुप्पी से नतमस्तक हैं, और जब शाहरुख ख़ान और आमिर ख़ान जैसे कुछ एक बड़े योद्धा भी केंद्र सरकार के निशाने पर आ चुके हैं, बीजेपी और दक्षिण के फ़िल्मी सितारों के बीच टकराव को उत्तर भारत में आश्चर्य से देखा जा रहा है.
कई लोगों द्वारा ये धारणा बनाई जा रही है कि दक्षिण के मुखर अभिनेता राजनीति में अपना करियर तलाश रहे हैं. इन अटकलों को तब और हवा मिली जब कमल हासन ने सक्रिय राजनीति में उतरने की पुष्टि की.
उत्तर-दक्षिण का फ़र्क
आखिरकार दक्षिण में ये परंपरा भी रही है कि अभिनेता अपनी स्टार अपील को भंजाते हुए हाई प्रोफ़ाइल राजनीति में कदम रखते हैं, इनमें आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री एनटी रामाराव, तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन और जे जयललिता कुछ खास नाम हैं.
अब तक राजनीति में आने वाला कोई भी हिंदी फ़िल्म कलाकार सरकार में इस कदर ऊंचाई तक नहीं पहुंचा.
हालांकि, दक्षिण भारतीय सितारों के हालिया विरोधी रवैये के पीछे एक वैकल्पिक करियर बनाने की उम्मीद से कहीं अधिक कुछ और ही है.
इसमें सबसे पहले फ़िल्म स्टार्स के नज़रिये में उत्तर-दक्षिण के फ़र्क का होना है.
जब जया बच्चन का उड़ा मज़ाक
उत्तर भारत कलाकारों के गंभीर सामाजिक-राजनीतिक बयानों को स्वीकार तो करता है लेकिन वो पॉप कल्चर, खास कर व्यावसायिक सिनेमा, के आइकॉन को हल्के अंदाज वाले व्यक्ति के रूप में देखता है.
फ़िल्मों से राज्यसभा पहुंची जया बच्चन द्वारा 2012 में असम से जुड़े एक बहस के दौरान उनकी टिप्पणी पर कांग्रेस के तात्कालीक गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे की प्रतिक्रिया में यह देखने को मिलती है. तब शिंदे ने उनसे कहा था, "यह एक गंभीर मसला है, न कि एक फ़िल्मी मुद्दा."
यह नहीं कहा जा सकता कि दक्षिण भारत के फ़िल्म कलाकार कभी राजनीतिक दबाव के आगे नहीं झुके, लेकिन उनसे ऑन स्क्रीन या ऑफ़ स्क्रीन हमेशा चुप्पी बनाए रखने की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती है.
फ़िल्म उद्योग पितृसत्तात्मक
हालांकि पूरे दक्षिण भारत को एक नज़रिए से नहीं देखा जा सकता, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि कन्नड़, तमिल, तेलूगु और मलयालम सिनेमा में मुख्यधारा की बॉलीवुड सिनेमा की तुलना में जाति समीकरण को लेकर ज्यादा फ़िल्में बनती हैं.
बॉलीवुड में बिरले ही पिछड़ी जाति को लेकर फ़िल्में बनती हैं.
यही कारण है कि इस सच के बावजूद कि केरल का फ़िल्म उद्योग पितृसत्तात्मक है, इस उच्च साक्षरता वाले राज्य की महिला फ़िल्म कलाकारों ने अपने अधिकारों को लेकर इस साल के शुरुआत में 'वूमन इन सिनेमा कलेक्टिव' बनाने का एक अभूतपूर्व कदम उठाया था.
क्यों दक्षिण में होता है विरोध?
दक्षिण भारत के अभिनेताओं की नाराज़गी को केंद्र में बीजेपी के उत्थान के संदर्भ से भी जोड़ कर देखा जा सकता है. आज़ादी के आंदोलन के वर्षों से, विशेषकर तमिलनाडु के लोगों में उत्तर भारतीय संस्कृति को थोपने के किसी भी प्रयास का कट्टर विरोध करने की परंपरा रही है.
अन्य चीज़ों के अलावा, केंद्र की सत्ता में आने के बाद से बीजेपी द्वारा अन्य भाषाओं की कीमत पर हिंदी का मज़बूती से प्रचार किया गया, जिसने एक बार फ़िर उत्तर भारत के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के पुराने भय को दक्षिण में पुनर्जीवित कर दिया है.
इसके साथ ही, दक्षिण की अपेक्षा उत्तर भारत में केंद्रित बीजेपी ने 2014 से दक्षिण भारत को लेकर थोड़ी बेखबरी दिखाई है. उदाहरण के लिए, दशकों से प्रशंसक संगठन में एकता की वजह से दक्षिण के फ़िल्मी प्रशंसक उत्तर की तुलना में अधिक संयोजित रहे हैं.
आख़िरकार राजनीति में उतर ही पड़े कमल हासन
जातिवाद का जोरदार विरोध
इसलिए उत्तर की तुलना में प्रशंसकों की कहीं तेज़ एक संगठित प्रतिक्रिया देखने को मिलती है, जैसा कि बीजेपी को 'मेरसल' के दौरान देखने को मिला. हालांकि दक्षिण भारत भी धार्मिक तनावों से मुक्त नहीं है, इसके बावजूद तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन और केरल में साम्यवाद ने जातिवाद का जोरदार विरोध किया है.
एक फ़िल्म के किरदार के रूप में जीएसटी की आलोचना के जवाब में बीजेपी का ईसाई होने के कारण विजय पर हमला बोलने को तो कम से कम दुस्साहस ही कहा जाएगा. यह वो स्थिति है जिसमें कमल हासन, प्रकाश राज और विजय का प्रतिरोध सामने आया है.
वो कोई सनकी नहीं हैं, हालांकि ऐसा बॉलीवुड के उन लोगों को लग सकता है जो सत्ता के प्रति नम्र रवैया रखने के अभ्यस्त हैं.
(ऐना एमएम वेट्टिकाड 'द एडवेंचर्स ऑफ़ एन इंट्रिपिड फ़िल्म क्रिटिक' किताब की लेखिका हैं.)
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