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द व्हाइट टाइगर रिव्यू- मॉडर्न इंडिया पर गहरा व्यंग्य कसती है फिल्म, आदर्श गौरव और राजकुमार राव हैं दमदार
निर्देशक- रमीन बहरानी
कलाकार- आदर्श गौरव, राजकुमार राव, प्रियंका चोपड़ा
प्लेटफॉर्म- नेटफ्लिक्स
"ये जगह मुर्गी के दड़बे की तरह है.. वो देख और महसूस कर सकते हैं कि अगला नंबर उनका है, लेकिन फिर भी वो विद्रोह नहीं करते हैं, वो उस दड़बे से बाहर निकलने की कोशिश नहीं करते हैं। यहां नौकर भी इसी तरह की मानसिकता के साथ चल रहे हैं।" सामंतवाद के जाल में फंसा बलराम कहता है।
रमीन बहरानी के निर्देशन में बनी यह फिल्म 'द व्हाइट टाइगर' नाम से 2008 में आये अरविंद अडिगा के नॉवल पर आधारित है। ये फिल्म मार्डन इंडिया में पल रहे जातिवाद, सामंतवाद, भ्रष्टाचार, राजनीतिक उठापटक और गरीबी पर व्यंग्य कसती है।
यह कहानी दबे कुचले वर्ग के किसी डरे सहमे लड़के की नहीं है। यहां प्रतिशोध है.. प्रतिस्पर्धा है और कुछ भी करके 'दड़बे' से निकलने की जिद है। बलराम एक संत या नैतिक पुरुष नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ अमीर बनना चाहता है। वह समाज की धुरी की दूसरी तरफ जाना चाहता है। एक दृश्य में बलराम खुद से कहता है- "क्या हम प्यार के मुखौटे में छिपकर अपने मालिक से नफरत करते हैं- या हम नफरत के मुखौटे में छिपकर उनसे प्यार करते हैं?"
कहानी
फिल्म की कहानी बलराम हलवाई (आदर्श गौरव) की है, जो गांव लक्ष्मणगढ़ के एक ऐसे घर में पैदा हुआ है, जहां किसी तरह गुजर बरस चल रही है। बीमार पिता को दिखाने के लिए दूसरे गांवों में चक्कर लगाना पड़ता है, जिससे उनकी मौत हो जाती है। भूख से बिलबिलाते परिवार की वजह से उसे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है। लेकिन उस अंधकूप से बाहर निकलने की चाह लगातार उसके मन में उफनती रहती है। वह सामंतवाद की कैद से निकलना चाहता है। ऐसे में उसके सामने आता है वहां के क्रूर जमींदार (महेश मांजरेकर) का अमेरिका रिटर्न छोटा बेटा अशोक (राजकुमार राव)।
पहली नजर में ही बलराम को अंदाजा हो जाता है कि अशोक ही वो इंसान है, जिसके सहारे वो इस 'दड़बे' से बाहर निकल सकता है। वह शहर आता है और अशोक के ड्राइवर की नौकरी पर लग जाता है। अब बलराम की दुनिया अशोक सर और उनकी आज़ाद ख्यालों वाली पत्नी पिंकी मैडम (प्रियंका चोपड़ा) के इर्द गिर्द घूमती है। अमीर और गरीब की दुनिया के बीच यहां दूरी कम होती नजर ही आ रही होती है.. कि एक हादसा घटता है। इस दुर्घटना के साथ ही दोनों दुनिया के बीच जोरदार भिड़ंत होती है और जन्म होता है 'व्हाइट टाइगर' का। 'व्हाइट टाइगर'- एक पीढ़ी में एक ही पाई जाने वाली दुर्लभ नस्ल..
अभिनय
राजकुमार राव और प्रियंका चोपड़ा अपने किरदारों में शानदार लगे हैं, लेकिन आदर्श गौरव ने अपने जबरदस्त अभिनय से फिल्म को एक नई ऊंचाई दे दी है। हर फ्रेम में उनके हाव भाव बिल्कुल सटीक थे। बलराम के मन में चल रही दुविधा, कपट, घमंड, प्यार, द्वेष हर भाव के साथ आदर्श ने न्याय किया है। कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि 'द व्हाइट टाअगर' पूरी तरह से आदर्श की फिल्म रही। फिल्म की स्टारकास्ट इसका मजबूत पक्ष रहा है। जहां राजकुमार राव एक अमीर पॉवरफुल व्यक्ति हैं, जो राजनीतिक दांवपेंच और घूसबाजी से दलदल में फंस चुके हैं। उनकी पत्नी के किरदार में प्रियंका चोपड़ा आदर्शवादी है। वह रूढ़ीवादी विचारधाराओं से लड़ती है। दोनों कलाकार अपने किरदारों में सटीक लगे हैं।
निर्देशन
यह फिल्म अरविंद अडिगा के उपन्यास द वाइट टाइगर पर आधारित है, जिसके लिए उन्हें बुकर प्राइज से सम्मानित किया गया था। किताबों को बड़ी स्क्रीन पर लाना आसान नहीं होता है, लेकिन निर्देशक रमीन बहरानी ने अच्छी कोशिश की है। हालांकि किताब से कई अंश काट दिये हैं, जो दर्शकों को कहानी से और जोड़ सकते थे।
एक अमेरिकन होते हुए भी रमीन ने भारत के समाजिक ताने बाने को बखूबी दिखाया है। अच्छी बात यह है कि फिल्म अपने रास्ते से एक मिनट के लिए भी भटकती नहीं है। फिल्म में जातिवाद से लेकर अमीरी- गरीबी, धर्म, राजनीति, शोषण, पितृसत्ता.. हर तरह की सामाजिक धुरियों पर व्यंग्य कसा गया है।
तकनीकि पक्ष
फिल्म की कसी हुई पटकथा इसे मजबूत बनाती है। खासकर बलराम और अशोक के संवाद बेहद दिलचस्प हैं। बेहतरीन एडिटिंग के लिए टिम स्ट्रीटो की तारीफ होने चाहिए। हालांकि कुछ जगहों पर बैकग्राउंड में चल रही बलराम की आवाज तंग करती है। कुछ जगहों पर खामोशी एक दृश्य को ज्यादा प्रभावशाली बना सकती थी। बहरहाल, पाउलो कारनेरा की सिनेमेटोग्राफी कहानी को अलग रंग देती है। लक्ष्मणगढ़ हो या दिल्ली.. मालिकों की अमीरी हो या नौकरों की गरीबी.. उन्होंने अपने कैमरे से हर दृश्य को जुबान दी है।
क्या अच्छा क्या बुरा
फिल्म के स्टारकास्ट, संवाद और निर्देशन इसका मजबूत पक्ष है। कई दृश्यों में अमीरी- गरीबी के फर्क को बखूबी दिखाया है। एक दृश्य में बलराम अपने मालिक अशोक के साथ टीवी पर गेम खेलता होता है.. खेलते खेलते उत्साहित होकर अशोक उसे सोफे पर अपने बगल बिठा लेता है.. लेकिन बलराम तुरंत ही उचककर नीचे जमीन बैठ जाता है।
एक दूसरे दृश्य में बलराम और अशोक को मंदिर के दान पेटी में पैसे डालते दिखाया गया है.. जहां बलराम सिक्का डालता है, वहीं अशोक 100 रूपए का नोट डालता दिखता है।
यदि आपने किताब पढ़ी है, तो एक ही आपको परेशान कर सकती है कि असली कहानी से कई हिस्से काट दिये गये हैं।
देंखे या ना देंखे
गरीबी से अमीरी तक के सफर को कई फिल्मों में दिखाया गया है। लेकिन 'द व्हाइट टाइगर' आपमें दया, संवेदना या दंभ नहीं जगाती है। यह शीशा दिखाने जैसा लगता है। आदर्श गौरव और राजकुमार राव के जबरदस्त अभिनय के भी यह फिल्म एक बार जरूर देखी जा सकती है। फिल्मीबीट की ओर से 'द व्हाइट टाइगर' को 3.5 स्टार।
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