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कौन हैं महान गाँधी या अम्बेडकर! बताएगी फिल्म शूद्र
ये फिल्म बताती है कि अंबेडकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से किस तरह कुछ मायनों में अलग थे और कितने महान थे। फिल्म 'शूद्र-द राइजिंग'से जुड़े निर्माता-निर्देशक संजीव जायसवाल ने जानकारी देते हुए बताया कि आज से दो साल पूर्व अंबेडकर जयंती के दिन एक बुजुर्ग ने उन्हें अंबेडकर के बारे में बताते हुए एक उपेक्षित समाज की करुण गाथा सुनाई थी कि उस समय इतिहास में कैसे एक समाज को अपने पैरों में घंटी पहननी पड़ती थी ताकि जब वह चले तो उसके बजने की आवाज से दूसरे लोगों को पता चल जाए कि वह कौन है।
उन्होंने बताया कि शूद्र की करुण कहानी सुनकर वे सोंचने पर मजबूर हुए और उन्होंने इस विषय पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया। उन्होंने इस विषय पर शोध और गहन अधयन्न किया, जिसमें उन्होंने पाया कि अंबेडकर कितने महान व्यक्ति थे।
फिल्म में बाबा साहब की उस दूरदशिर्ता को सलाम करते हुए ये बताया गया है कि हमारे संविधान को बने हुए आज 64 साल हो चुके है और आज भी ये इतना कारगर है कि बरसों तक इसे बदलने कि ज़रुरत नहीं होगी।
इस फिल्म में ये भी दिखाने की कोशिश की गई है कि बाबा साहब ने कैसे इस कुरीति को दूर करने के लिए संघर्ष किया और कैसे एक पूरे समाज को फिर से जीने की चाह और राह दिखाई। वह क्यों इतने महान थे, ये शायद आज कि पीढ़ी को पता होना चाहिये, लेकिन अफसोस शायद आज के लोगों को अम्बेडकर के बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं है।
इस फिल्म में अम्बेडकर के उन अनछुए पहलुओं को दिखाया गया है जिसके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। बाबा ने बहुत समय पहले कहा था की जो लोग इतिहास के बारे में नहीं जानते वे कभी इतिहास नहीं बना सकते। इसलिए इतिहास सभी को पता होना चाहिए, ताकि आने वाले कल में वह भूल फिर से न दोहराई जा सके जो पहले एक बार हो चुकी है।
जायसवाल कहते हैं कि इसलिए हमने अपनी आगामी फिल्म 'शूद्र- द राइजिंग' में उस इतिहास को, इंसानियत की उस पीड़ा को रुपहले परदे पर लाने का प्रयास किया है। उनका मानना है कि आज की पीढ़ी बहुत संवेदनशील है यदि उसे सच का ज्ञान होगा तो शायद उनके मन में ऊंच-नीच, भेद-भाव, जाति-पाति की भावना घर नहीं कर सकेगी और वे मानवता के रास्ते पर चल सकेंगे ।
वह कहते हैं कि हमारी यह फिल्म जातिवाद का विरोध करती है क्योंकि आज तक सम्पूर्ण विश्व में जितने भी युद्ध हुए उन सबके पीछे कहीं न कहीं जाति भेद या रंग भेद ही मुख्य मुद्दे थे। इस जातिवाद ने अब तक दुनिया को सिर्फ तबाही के अलावा कुछ और नहीं दिया है। आज वही जातिवाद आतंकवाद का रूप लेकर सारी दुनिया को निगल जाने के लिए तैयार खड़ा है।
जायसवाल ने आगे जानकारी देते हुए कहा कि यह विषय इतना गम्भीर और संवेदनशील है कि इस पर बिना इतिहास की जानकारी के कुछ भी कहना बहुत खतरनाक साबित हो सकता था, इसलिए उन्होंने सारा शोध पूरा करने के बाद प्राचीन काल में इतिहास के तथ्यों को उठा कर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की और तब कहीं जाकर इस फिल्म का निर्माण संभव हो सका।
इस विषय पर इससे पहले भी कई फिल्मों का निर्माण हो चुका है। जिसमें 1946 में चेतन आनंद निर्मित 'नीचा नगर' और श्याम बेनेगल निर्मित 'अंकुर' प्रमुख नाम है इन फिल्मों में एक समाज के साथ हो रहे भेदभाव का मार्मिक चित्रण किया था।
फिल्म के बारे में बात करते हुए संजीव जायसवाल बताते हैं कि हमारी इस फिल्म का उद्देश्य किसी भी समुदाय, धर्म या व्यक्ति को ठेस पहुंचाना नहीं है बल्कि आज कि पीढ़ी को यह बताना है कि उसके अपने ही पूर्वजों द्वारा की गई एक गलती के परिणामस्वरूप एक पूरे समाज को किस हद तक पीड़ा का बोझ उठाना पड़ा।
यह फिल्म आज के लोगों में हमेशा के लिए जाति भेद-भाव खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण पहल हो सकती है।आज के लोगों को एक सन्देश देते हुए फिल्म के निर्देशक संजीव जायसवाल ने कहा की 'शुद्र-द राईजिंग' बाबा भीम राव अंबेडकर को एक सच्ची श्रद्धांजलि है और हमारे ही पूर्वजों द्वारा की गई एक गलती का प्रायश्चित है। यदि इस फिल्म से हम चंद लोगों की भावनाओं और मानसिकता को बदल सकें तो हमारी मेहनत सफल हो जायगी।