Just In
- 3 hrs ago GQ Awards में हीरोइनों के सिर चढ़कर बोला ग्लैमर, शाहिद कपूर की बीवी ने बोल्डनेस में छुड़ा दिए सबके छक्के
- 3 hrs ago GQ Awards: देर रात रेड कार्पेट पर सितम करती दिखी भूमि पेडनेकर, कोई नहीं है हसीना की टक्कर में
- 4 hrs ago भांजी की शादी में खाने को लेकर मेहमानों से ऐसी बात कर रहे थे गोविंदा, कैमरे में रिकॉर्ड हो गया सब कुछ
- 4 hrs ago Arti Singh Wedding: अपनी शादी में इस शख्स को देखते ही झरने से बहे दुल्हनिया के आंसू, खूब रोई आरती सिंह
Don't Miss!
- News CG Lok Sabha Chunav Live: छत्तीसगढ़ में दूसरे चरण का चुनाव आज, भूपेश समेत इन दिग्गजों की प्रतिष्ठा दांव पर
- Education IIT JEE Advanced 2024: जईई एडवांस के लिए 27 अप्रैल से होंगे आवेदन शुरू, देखें परीक्षा तिथि फीस व अन्य डिटेल्स
- Lifestyle First Date Tips: पहली ही डेट में पार्टनर को करना है इम्प्रेस तो ध्यान रखें ये जरूरी बात
- Technology इस दिन होने जा रहा Apple का स्पेशल इवेंट, नए iPad के साथ इन प्रोडक्ट्स की हो सकती है एंट्री
- Finance Bengaluru Lok Sabha Election 2024: फ्री Rapido,बीयर.! वोटिंग प्रतिशत बढ़ाने के लिए वोटर्स को दिए जा रहे ऑफर्स
- Travel 5 दिनों तक पर्यटकों के लिए बंद रहेगा शिमला का 'द रिट्रीट', क्या है यह और क्यों रहेगा बंद?
- Automobiles करोड़ों की संपत्ति का मालिक, लग्जरी कारों का कलेक्शन, फिर भी Maruti की इस कार में चलते दिखे Rohit Sharma
- Sports Japan Open 2023: सेमीफाइनल में पहुंचे लक्ष्य सेन, एचएस प्रणय की विक्टर एक्सेलसन से भिड़ंत आज
बिहार में पले-बढ़े आर माधवन का कैसा रहा तमिल से लेकर हिंदी सिनेमा का सफ़र
चुप तुम रहो, चुप हम रहें... एक ख़ूबसूरत शाम और मेहमानों से सजी महफ़िल में गीत गाता एक क्लब सिंगर. जिसने भी 1996 की हिंदी फ़िल्म 'इस रात की सुबह नहीं देखी' को देखा है, उन्हें ये गीत याद होगा.
पूरी फ़िल्म में वो क्लब सिंगर सिर्फ़ और सिर्फ़ इस गाने में दिखाई देता है. दुबला-पतला सा एक युवक जो कुछ सालों में तमिल फ़िल्मों का सुपरस्टार और हिंदी फ़िल्मों का हीरो बनने वाला था- नाम था आर माधवन, जो अब नई फ़िल्म 'रॉकेट्री' में नज़र आ रहे हैं.
चंद सेकेंड के इस रोल में आर माधवन की मौजूदगी तो दर्ज नहीं हुई थी और फ़िल्में अभी दूर थी. लेकिन टीवी पर वो एक्टर नाम बनने की ओर क़दम बढ़ा चुके थे. 90 के दशक में एक के बाद उनके सीरियल आए- बनेगी अपनी बात, साया, घर जमाई, सी हॉक्स... और इनके ज़रिए वो अच्छे ख़ास मशहूर हो गए.
वैसे फ़िल्मों में माधवन ने अपना डेब्यू तमिल या हिंदी में नहीं, 1997 की इंग्लिश फ़िल्म 'इन्फ़र्नो' और 1998 में आई 'शांति शांति शांति' नाम की एक कन्नड़ फ़िल्म से किया था. आर माधवन उन चंद अभिनेताओं में से एक हैं, जो हिंदी, तमिल और कुछ हद तक दूसरी भाषाओं में अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे हैं.
दक्षिण भारत के कई सुपरस्टार हिंदी फ़िल्मों में काम कर चुके हैं, जैसे रजनीकांत, चिरंजीवी, नागार्जुन, कमल हासन, मोहनलाल, पृथ्वीराज, राणा दग्गुबती और इनकी कुछ फ़िल्में हिट भी रहीं.
लेकिन श्रीदेवी, वैजयंतीमाला, रेखा, हेमा मालिनी, जया प्रदा जैसी अभिनेत्रियों के उलट, दक्षिण भारतीय हीरो को हिंदी फ़िल्मों में सीमित सफलता मिली है. रामचरण, एनटीआर जूनियर जैसे हीरो का तात्कालिक क्रेज़ ज़रूर है, लेकिन ये अभी शुरुआती दौर है. माधवन इस क्रम का अपवाद कहे जा सकते हैं, जिन्होंने इस धारणा को तोड़ा है.
कई भाषा की फ़िल्मों में सफल होने का राज़
कुछ दिन पहले बीबीसी से बातचीत में माधवन ने अपनी सफलता को यूँ बयां किया था, "दरअसल मैं दोनों भाषा ठीक तरह से बोल लेता हूँ. मैं (तब के) बिहार और आज के झारखंड (जमशेदपुर) में पला-बढ़ा हूँ. चूँकि हिंदी ठीक से बोल लेता हूँ, तो दर्शकों को मेरे साथ रिलेट करना आसान हो गया. मैं तमिल परिवार से हूँ, तो वो भाषा भी ठीक से बोल लेता हूँ. मणिरत्नम जी ने मुझे इंट्रोड्यूस किया है. तमिल इंडस्ट्री में भी मुझे स्वीकार करने में लोगों को कोई दिक्कत नहीं हुई.''
उन्होंने कहा था, ''मैं सिक्स पैक वाला हीरो तो हूँ नहीं. रोमांटिक फ़िल्में कम ही की हैं मैंने. लेकिन मैंने जो भी फ़िल्में की हैं, वो ये सोचकर की हैं कि युवा दर्शकों को ये न लगे कि 'मैडी रीचेबल' है. मैं उनके लिए एस्पिरेशनल होना चाह रहा था. उन्हें लगे कि चाहे वो 'तनु वेड्स मनु' का मनु हो या 'थ्री इडियट्स' का फ़रहान- मैडी में एक क्षमता है, जो हममें भी होनी चाहिए. तो मैंने ऐसे ही रोल चुने, जो एस्पिरेशनल हों और वो लोगों को पसंद आया."
आर माधवन की इस सफलता के क्रम को समझने के लिए उनके अतीत में भी झाँकना होगा. आर माधवन की पैदाइश झारखंड के जमदेशपुर में हुई- हिंदी परिवेश, तमिल परिवार और महाराष्ट्र में पढ़ाई. इसका उन पर मिला-जुला असर हुआ. एक्टर बनना कोई शुरुआती सपना नहीं था.
फ़िल्म 'थ्री इडियट्स' के फ़रहान वाला सीन जहाँ माँ-बाप बेटे के इंजीनियर बनाना चाहते हैं, कुछ वैसा ही मिलता-जुलता क़िस्सा माधवन की ज़िंदगी में भी था. बोर्ड में 58 फ़ीसदी नंबर आए. एनसीसी कैडेट के रूप में प्रदर्शन इतना अच्छा रहा कि इंग्लैंड भेजा गया, जहाँ ब्रिटिश आर्मी के साथ ट्रेनिंग ली.
बीएससी इलेक्ट्रॉनिक्स किया जैसा कि माँ-बाप की ख़्वाहिश थी कि इंजीनियर जैसा कुछ बने. लेकिन सबकी इच्छा के ख़िलाफ़ माधवन ने पब्लिक रिलेशन्स में मास्टर्स किया. कोल्हापुर में पब्लिक स्पीकिंग की क्लास भी लेने लगे, तो ज़बरदस्त हिट हो गए. बाद में मुंबई आकर थोड़ी बहुत मॉडलिंग की, तो वहाँ से सीरियल और फ़िल्मों का रास्ता खुल गया.
माधवन का फ़िल्मी सफ़र
टुकड़ों-टुकड़ों में ये तब्दीलियाँ होती रहीं, लेंकिन माधवन के करियर में बड़ा बदलाव तब आया, जब 2000 में उन्हें मणिरत्नम ने अपनी तमिल फ़िल्म अलईपायुदे (Alaipayuthey) में लिया और फिर 2001 में तमिल फ़िल्म 'मिन्नले' आई. रोमांटिक हीरो के तौर पर बस माधवन युवाओं के दिल में बस गए और फिर तमिल फ़िल्म 'रन' से माधवन ने एक्शन में एंट्री ली. मणिरत्नम की फ़िल्म युवा के जिस रोल में आपने अभिषेक बच्चन को देखा, वो रोल 2004 में तमिल फ़िल्म में माधवन ने ही किया था.
'एक लड़की देखी बिल्कुल बिजली की तरह. एक चमक और मैं अपना दिल खो बैठा. बस अब एक ही तमन्ना है. रहना है उसके दिल में'.
यही वो डायलॉग और फ़िल्म है, जिससे आर माधवन ने 2001 में हिंदी फ़िल्मों में बतौर रामोंटिक हीरो एंट्री ली. उस वक़्त तो फ़िल्म पिट गई, लेकिन माधवन 'मैडी' के नाम के उस रोमांटिक रोल से मशहूर हो गए.
माधवन तमिल में सुपरस्टार रोल में स्थापित होते गए, तो 2005 के बाद से हिंदी फ़िल्मों में ज़्यादा दिखने लगे. हिंदी में उन्होंने छोटा रोल या सह कलाकार का रोल करने में भी गुरेज़ नहीं किया. जैसा उनकी फ़िल्म 'दिल विल प्यार व्यार' का डायलॉग भी है- 'बड़ी चीज़ों की क़ीमत कभी छोटी नहीं हुआ करती.'
फिर चाहे फ़िल्म 'गुरु' (2007) के आदर्शवादी पत्रकार श्याम सक्सेना का रोल हो, जो अभिषेक बच्चन (धीरूभाई) को चैलेंज करता है, 'मुंबई मेरी जान' का निखिल हो, जो मुंबई ब्लास्ट के बाद डिप्रेशन से गुज़र रहा है या फिर 'रंग दे बसंती' (2006) का फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट अजय सिंह राठौड़ हो, जो सिखाकर जाता है कि 'कोई भी देश परफ़ेक्ट नहीं होता, उसे बेहतर बनाना पड़ता है.'
या फिर थ्री इडियट्स का फ़रहान जिसकी ये बात आज भी चेहरे पर शरारत भरी प्यारी मुस्कान ला देती है कि 'दोस्त फेल हो जाए तो दुख होता है, लेकिन दोस्त फ़र्स्ट आ जाए तो ज़्यादा दुख होता है'.
हिंदी फ़िल्मों में 2009 की फ़िल्म 'थ्री इडियट्स' एक तरह से उनके लिए गेमचेंजर साबित हुई. हालांकि, बीच-बीच में उनकी कई हिंदी फ़िल्में फ्लॉप भी हुईं. और यही वो वक़्त था, जब माधवन ने फ़िल्मों से ब्रेक ले लिया.
कैसे किया ख़ुद को रिइन्वेन्ट
माधवन को लगातार मिलती रही सफलता को इस नज़रिए से भी देखा जा सकता है कि उन्होंने अपने आप को रिइन्वेंट किया है. उनका रोमांटिक हीरो वाला अच्छा ख़ासा फेज़ चल रहा था. लेकिन 2010-11 के आसपास 40 की उम्र में उन्होंने बैकसीट लेते हुए कई सालों का ब्रेक लिया और नए तरीके से वापसी की. तब उनकी फ़िल्म 'तनु वेड्स मनु' रिलीज़ हुई ही थी और ज़बरदस्त धूम मचा रही थी.
पीटीआई से बातचीत में माधवन ने कहा था, "ब्रेक लेने को लेकर मैं थोड़ा नर्वस तो था. लेकिन सिर्फ़ बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करते रहने का कोई मतलब नहीं है, अगर आप अच्छी फ़िल्मों में काम नहीं कर रहे हो. मैंने आमिर ख़ान से ये सीखा. 'लगान' के दौरान उन्होंने भी चार साल का ब्रेक लिया था. अगर आप अच्छा काम नहीं करते, तो लोगों को भी याद नहीं रहता."
वापसी के बाद माधवन ने 'इरुधी सुत्रु' (irudhi Suttru) जैसी तमिल फ़िल्म की, जिसमें वो किसी रोमांटिक या एक्शन हीरो के रूप में नहीं, बल्कि एक बॉक्सिंग कोच के रोल में थे, जो एक युवा लड़की को ट्रेन करने का चैलेंज लेते हैं.
इस रोल के लिए माधवन ने बॉक्सिंग सीखी, एक असल मार्शल आटर्स खिलाड़ी को रोल के लिए मनाया. इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और माधवन को फ़िल्मफेयर अवॉर्ड. जब हिंदी में 'साला ख़डूस' फ़िल्म को रिलीज़ करने की बारी आई, तो माधवन ने ख़ुद इसे डिस्ट्रीब्यूट करने का ज़िम्मा उठाया. माधवन ने एनकाउंटर स्पेशिलस्ट का जो रोल सुपरहिट तमिल फ़िल्म 'विक्रम वेधा' में किया था, आज ऋतिक रोशन वही रोल हिंदी में करने जा रहे हैं.
करियर और ज़िंदगी में रिस्क लेने की बात पर माधवन कहते हैं, "मुझे ख़तरा कभी नज़र ही नहीं आता. ख़तरा नज़र आए तो मैं डरूँ न. कभी-कभी तो ऐसी जगह घुस गया हूँ, जहाँ लगता है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ. चाहे वो एक्टिंग हो, पहली बार निर्देशन हो, पब्लिक स्पीकिंग का करियर हो या मोटसाइकिल और स्कीइंग का शौक हो, मैं एक हद तक सफल रहा हूँ. मैंने लाइफ़ में संघर्ष नहीं किया. मैं तो एक्टर बनने आया ही नहीं था. राह चलते इंसान को एक्टर बना दिया. मणिरत्नम ने सच में एक राह चलते इंसान को साउथ में सुपरस्टार बना दिया. राजकुमारी हिरानी, राकेश मेहरा इन सबने बुलाया. शाहरुख़ ख़ान मेरी पहली निर्देशित फ़िल्म में हैं. इसमें कुछ संघर्ष नहीं है. मैं इसे संघर्ष कहूँगा तो भगवान मेरे से ख़फ़ा हो जाएँगे. मैंने हर पल का आनंद लिया है."
फ़िल्में और रोल ही नहीं, माधवन ने समय के साथ नए माध्यमों को भी अपनाया है. 2018 में उन्होंने ब्रीद के साथ पहली बार वेबसिरीज़ में भी क़दम रखा.
और 50 साल की उम्र में माधवन ने ख़ुद को नया चैलेंज दिया. उन्होंने फ़िल्म डाइरेक्ट, प्रोडयूस और लिखने का ज़िम्मा उठाया और वो भी एक मुश्किल विषय पर- इसरो वैज्ञानिक डॉक्टर एस नांबी नारायण की कहानी, जिन्हें जासूस करार दिया गया और करियर तबाह हो गया लेकिन दशकों बाद वो बेक़सूर साबित हुए.
सिर्फ़ हीरो की भूमिका में काम करने वाले माधवन ने तब फ़िल्म बनाने का बीड़ा उठाया, जब फ़िल्म शुरु होने के कुछ दिन बाद निर्देशक अलग हो गए, जबकि इससे पहले माधवन को निर्देशन का कोई तज़ुर्बा नहीं है.
डॉक्टर नांबी नारायण पर बनी रॉकेटरी
डॉक्टर नांबी नारायण की बात चली है तो उनकी कहानी किसी भी फ़िल्मी थ्रिलर से कम नहीं है. 30 नंवबर, 1994 की दोपहर देश के अंतरिक्ष वैज्ञानिक नांबी को अचानक गिरफ़्तार कर लिया जाता है. उस व़क्त डॉक्टर नांबी इसरो के क्राइजेनिक रॉकेट इंजन कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे थे. इस प्रोजेक्ट के लिए वो रूस से तकनीक ले रहे थे. अख़बारों ने रातोंरात उन्हें 'गद्दार' घोषित कर दिया, एक ऐसा गद्दार जिसने मालदीव की दो महिलाओं के हनी ट्रैप में फंसकर रूस से भारत को मिलने वाली टेक्नोलॉजी पाकिस्तान को बेच डाली.
उन पर भारत के सरकारी गोपनीय क़ानून (ऑफ़िशियल सीक्रेट लॉ) के उल्लंघन और भ्रष्टाचार समेत अन्य कई मामले दर्ज किए गए. जब भी उन्हें जेल से अदालत में सुनवाई के लिए ले जाया जाता, भीड़ चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें 'गद्दार' और 'जासूस' बुलाती. झूठों आरोपों के एवज़ में 2018 में डॉक्टर एस नांबी नारायणन को सुप्रीम कोर्ट ने मुआवज़े के तौर पर 50 लाख रुपए देने का आदेश दिया.
विज्ञान, भावनाओं, न्याय और दर्दनाक सफ़र वाली इसी कहानी को आर माधवन अपनी नई फ़िल्म 'रॉकेटरी' में लेकर आए हैं.
माधवन ने जब रोल के लिएतुड़वाया अपना जबड़ा
एक एक्टर, एक प्रोड्यूसर के बाद बतौर निर्देशक के तौर पर आना माधवन की ख़ुद को परखने की ये शायद नई कसौटी है. इस फ़िल्म के किरदार में फिट होने के लिए माधवन ने अपने दाँत और जबड़ा तुड़वाकर नए तरीक़े से सेट करवाए, ताकि वो डॉक्टर नांबी जैसे दिख सकें.
रॉकेटरी वो फ़िल्म जिसके लिए माधवन को शाहरुख़ ख़ान ने कहा था कि उन्हें इस फ़िल्म का हिस्सा बनना है और उन्हें कोई भी रोल चलेगा.
ये वही माधवन हैं, जिनकी पहली फ़िल्म 'अकेली' 1997 में बनी, तो कभी रिलीज़ ही नहीं हो पाई, क्योंकि कोई ख़रीदने वाला नहीं था और अभी कुछ साल पहले आख़िरकार यूट्यूब पर रिलीज़ की गई.
ऐसा नहीं है कि माधवन ने औसत या फ़्लॉप फ़िल्में नहीं की. दिल विल प्यार व्यार, जोड़ी ब्रेकर, झूठा ही सही, रामजी लंदनवाले, सिंकदर ऐसी कई फ़िल्में हैं, जो आईं और चली गईं. लेकिन वक़्त, उम्र, दर्शक, तकनीक, ओटीटी जैसे नए मीडियम, इन सबके हिसाब से ख़ुद को ढालते हुए माधवन ने ख़ुद की लगातार नई पहचान बनाई है.
माधवन की छवि एक ऐसे शख़्स की तरह मन में उभरती है, जो स्टार तो हैं पर स्टारडम की उलझनों से थोड़ा दूर.
जब मेरी सहयोगी मधु पाल ने माधवन से ये सवाल पूछा तो उन्होंने जवाब कुछ यूँ दिया, ''मुझे बच्चन साहब, कमल हासन, रजनीकांत जी सबसे मिलने का मौक़ा मिला है. मैं समझता हूँ कि स्टारडम कभी न कभी हमसे दूर हो जाएगा. हम सब तो बच्चन बनकर नहीं रह पाँएगे. ये शानो-शौक़त हमसे चली ही जानी है, पर अगर हम उसी स्टारडम वाले माइंडसेट में रहेंगे तो बाद के दिन बर्बाद हो जाते हैं.''
''मैंने शुरुआत से यही सोचा है कि अपनी औकात में रहूँ. जितनी चादर है उतने ही पैर फैलाऊँगा. मैं मानता हूँ कि स्टारडम को बस इतना ही इस्तेमाल करूँ कि कुछ देर के लिए स्क्रीन पर लोगों को ख़ुश कर सकूँ. बाक़ी मैं ख़ुद को दूसरे बंधनों से मुक़्त करना चाहता हूँ."
वेदांत माधवन के पिता के रूप में नई पहचान
वैसे इन दिनों एक्टर, डाइरेक्टर, राइटर से परे माधवन की एक नई पहचान भी है- 16 वर्षीय अंतरराष्ट्रीय तैराक वेदांत माधवन के पिता जो भारत के लिए कई मेडल जीत चुके हैं.
माधवन कहते हैं, वेदांत भी जानता है कि जितनी चर्चा उसकी हो रही है, उसकी एक वजह ये है कि वो आर माधवन का बेटा है, जबकि उससे बेहतर तैराकी करने वाले बच्चे भी हैं. मैं ख़ुश हूँ कि वेदांत इस बात को समझता है. उसे बचपन से ही तैराकी का शौक रहा है. थ्री इडियट्स करने की वजह से मैं समझ चुका था कि मुझे उसे आज़ादी देनी होगी.
वे कहते हैं, मुझे ये भी पता है कि कभी न कभी मैं उसका दुश्मन सा बन जाऊँगा जैसे पिता और बच्चों के बीच तक़रार होता है. पर प्यार भी है. किसी भी पिता की तरह मुझमें भी वो सारी भावनाएँ हैं- डर, घबराहट, प्यार.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)