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'जो दिल चाहता है वही करना चाहिए'
इसी श्रृंखला में हम इस बार आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं जाने-माने एड फ़िल्म लेखक और अपने गीतों और नग़मों से हर आम-व-ख़ास के दिलों को जीतने वाले हिंदी फ़िल्मों के चर्चित गीतकार प्रसून जोशी से.
जोशी जी एक पुरानी कहावत है कि क़लम तलवार से अधिक ताक़तवर होती है और आप क़लम के उस्ताद हैं और क़लम की तलवार हमेशा चलाते रहते हैं. क्या आप इसमें यक़ीन करते हैं?
जी मैं इसे मानता हूँ, लेकिन क़लम और तलवार के चलाने में फ़र्क़ है. क़लम हमेशा तलवार की तरह लड़ने के लिए उतारू नहीं होती. क़लम सकून के लिए भी चलाया जाता है.
आप ने जिस सरलता से जवाब दिया है क्या हम ये समझें कि आप के व्यक्तित्व में एक ठहरे से, शांत-चित और धीरज जैसे पुट भी हैं.
यह मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है. मैं नहीं मानता कि हर आदमी की एक ही इमेज (छवि) होती है, दरअसल हम एक दूसरे से बातें नहीं करते हैं बल्कि एक दूसरे की इमेज से बातें करते हैं. मैं आपकी उस इमेज से बात कर रहा हूँ जो इतनी देर बात करने के बाद मेरे ज़ेहन में बनी है और आप मेरी उस इमेज से बात कर रहे हैं जिसे पहले से जानते हैं.
बातचीत में यहां वह हिस्सा सामने आ रहा है जो एकदूसरे को पसंद आ रहा है. इसलिए एक व्यक्ति दूसरे को भिन्न-भिन्न तरह से जानता है. आप मेरे बच्पन के दोस्त से मिलेंगे तो वो मुझे किसी और तरह से जानता है. मेरी माँ से मिलेंगे तो वो कहेंगी कि वो तो उस तरह का इंसान है. एक इंसान कई इंसानों का मिलाजुला रूप होता है. अलग-अलग समय पर एक इंसान का अलग-अलग पक्ष उभर कर सामने आता है.
आप का ‘सकून’ शब्द सुन कर काफ़ी अच्छा लगा. आप को लग सकता है कि मैं आप के पीछे पड़ गया हूँ, लेकिन क्या आप इतने 'सकून' वाले हैं?
बस मैं इतना कहना चाहूंगा कि मैं जितना जुझारू हूँ उतना ही सकून वाला भी हूँ.
हम आप के लिखे हुए गानों की बात करेंगे, लेकिन उससे पहले शब्दों के इस्तेमाल की बात हो जाए. मुझे लगता है कि आप के दोस्त कहते होंगे की आप तो शब्दों के जादूगर हैं. यह फ़न आप ने ख़ुद बनाया है या ऊपर वाले की देन है?
यह ख़ुदबख़ुद होता है. कुछ चीज़ें मेहनत करने से भी नहीं पैदा होतीं. अगर दक्षिण अफ़्रीक़ा में उगने वाले किसी पौधे को हम भारत में उगाने की कोशिश करें तो यहां का वातावरण उसे पनपने नहीं देता. आप ज़बरदस्ती कर लें तो भी नहीं उगेगा.
इसलिए कुछ न कुछ मस्तिष्क की उर्वरक ज़मीन होती है और उस पर वही उग सकता है जिसके लिए वहां का वातावरण उसे अनुमति देता है. उसके बाद आप उस पौधे को लगा कर किस तरह सींचते हैं और उसे वृक्ष बनने देते हैं, यह आप के ऊपर है.
जिन दिनों लिखने की सोच पैदा हूई तो कैसे सोचा कि मैं इसी मैदान में जाऊंगा और लिखने का काम करुंगा?
यह चुनाव बहुत मुश्किल होता है, ख़ासकर अगर आप एक छोटे से शहर में पैदा हुए हैं. जब आप देखते हैं कि करियर के बहुत से रास्ते हैं तो आप को लगता है कि क्या करें.
देखिए मैं करियर को दो तरह से देखता हूँ. पहला जीविकोपार्जन और दूसरी अभिरुचि. आप की इच्छा क्या है और आप को करना क्या पड़ रहा है कई बार दोनो एक हो जाते हैं. मेरे साथ शुरू में दोनों एक साथ नहीं हुए. पहले मैंने एमबीए किया. उसके बाद मुझे एहसास हुआ कि विज्ञापन में लेखक की भी आवश्यकता होती है.
मुझे लगा कि शायद मेरे लिए रास्ता निकल आएगा, क्योंकि मेरी इच्छा थी कि मैं अपने क़लम से ही जीविकोपार्जन करूं और विज्ञापन में मुझे वो मौक़ा मिला. फिर विज्ञापन लिखना शुरू किया और लगा कि यह अच्छी चीज़ है. इस तरह से मेरी अभिरुचि और मेरी लिविंग की शादी हो गई. और जो सिलसिला निकला उसके बाद फ़िल्मों के लिए भी लिखना शुरू कर दिया.
आप हिंदी भाषी हैं, ज़मीन से जुड़े हुए हैं, मध्यम परिवार से आते हैं और देश के एक औसत शहर से आते हैं. फिर आप ऐड कि दुनिया में अंग्रेज़ी ज़बान से जुड़े लोगों के लिए ख़तरा बने. क्या इसकी शुरूआत आप से हुई थी.
विज्ञापन की दुनिया के लिए यह बात सही है, लेकिन फ़िल्मों के लिए ऐसा नहीं है. फ़िल्मों में कई जगहों से लोग आए हैं. विज्ञापन की दुनिया के बारे में कहा जाता था कि बड़े लोग सामान ख़रीदते हैं और पहले आम आदमी से बात करने का साधन नहीं था. टेलीविजन आने के बाद इसमें बदलाव आया और लोगों को लगा कि इस माध्यम से अधिक लोगों तक पहुँचा जा सकता है. उसी समय अर्थव्यवस्था बढ़ी, तब आम लोगों की जेब भी बाज़ार के लिए अहम हो गई. तो फिर हमारे जैसे लोगों की अहमियत बढ़ गई. फिर हम लोगों ने उस तरह के विज्ञापन बनाए.
आप प्रकृति की ख़ूबसूरत पहाड़ियों के बीच पले-बढ़े. क्या उसका भी आप के लिखन में, सोच में प्रभाव रहा है?
इसका प्रभाव कविताओं में अधिक है विज्ञापन में कम हैं. क्योंकि मेरे अपने रुपक, बिंब और उपमाएं हैं. वो ज़्यादातर प्रकृति से आते हैं, क्योंकि मैं प्रकृति के बहुत क़रीब रहा हूँ. मैंने प्रकृति से प्रेरणा ली है. मैं आम ज़िंदगी और प्रकृति के बीच रिश्ता बनाता हूँ.
लिखने के लिए कोई ख़ास टोटका है कि उस जगह पर लिखने का शौक़ है जैसे घर से उस कोने पर, उस मेज़ पर....
न इस कोने में न उस कोने में, बस ख़ुद को खोने में, भूल जाने में.
कहीं भी लिख सकता हूँ, भीड़ में लिख सकता हूँ. मेरी ऐसी कोई लालसा नहीं है कि मुझे अलग कमरा या खास जगह चाहिए. कहीं भी और कभी भी लिख लेता हूँ. लिखना मेरी आदत है और मजबूरी भी.
जब आप ऐड के लिए लिखते हैं और कविता, गाने या उस तरह की चीज़ें लिखते हैं तो क्या अलग-अलग तरह से दिमाग लगाना होता है?
देखिए स्त्रोत तो एक ही है. मैं जब पैदा हुआ तो मेरे माता-पिता को इस बात की बधाई नहीं दी गई थी कि लीजिए कॉपीराइटर पैदा हो गया.
हम धीरे-धीरे अपनी प्रतिभा तो समझते हैं और उसी तरह से सोचते हैं. स्त्रोत एक ही है. आप की एक दृष्टि है. कविता एक विधा का नाम नहीं है वल्कि एक दृष्टि का नाम है. एक कैमरामैन, निर्देशक, गायक, संगीतकार भी कवि हो सकता है. कविता जीवन का नाम है. आप ऐड बना रहे हैं, ट्रक चला रहे हैं, नहा रहे हैं उसमें कविता हो सकती है. कविता जीवन के हर पक्ष से जुड़ी हुई है. मेरे अंदर स्त्रोत एक कविता का ही है. संगीत भी मेरे लिए कविता है. गीत तो है ही. इसलिए मैं उसे खानों में बाँट कर नहीं देखता. अगर अमीर ख़ुसरो से कोई ये सवाल करता तो क्या जवाब होता. वो सूफ़ी संत या लेखक या संगीतकार हैं?.... ऐसा नहीं होता.
आप कवि हैं, कॉपीराइटर हैं, गीतकार है, संवाद लेखक हैं, ऐड लेखक हैं, कौन सी भूमिका में आप अधिक मज़ा करते हैं या प्राकृतिक रुप से कौन सी विधा अधिक आती है.
ऐसा कुछ भी नहीं है. मैं रोल से आंनद नहीं लेता बल्कि प्रोजेक्ट से आनंद लेता हूँ. वो विज्ञापन भी हो सकता है. जब मैंने 'ठंडा मतलब कोका कोला' लिखा था तब भी मैं मज़े ले रहा था. कभी इच्छा के ख़िलाफ़ भी काम करना पड़ता है. ऐड या गाने भी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ लिखने पड़ते हैं. जिस पल आप लिखते हैं उसमें मज़ा लेते हैं.
‘ठंडा मतलब कोका कोला’ की प्ररेणा कहां सी ली थी, सुना है कि किसी ट्रेन के सफ़र के दौरान.....
सच है कि इसकी कृति में जीवन से जुड़ी कुछ घटनाएं रहीं हैं.
अच्छा यह बताएं कि ऐड में एक पंच लाइन देनी होती है जो लोगों के दिलों दिमाग़ को छू जातीं हैं. ख़ुदबख़ुद यह आ जाता है या फिर उसके लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है?
कई बार काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है और कभी बहुत जल्दी पंच लाइन आ जाती है.
सबसे जल्दी ऐड की पंच लाइन कौन सी आई थी जो मशहूर भी हुई हो.
‘दोबारा मत पूछना’ जो कलोरमिंट का विज्ञापन है. वो बहुत आसानी से लिखा था.
एक एड जो बहुत मशक़्क़त के बाद बना और काफ़ी कामयाब रहा.
बहुत बार ऐसा हुआ है कि अच्छी मेहनत मशक़्क़त के बाद अच्छा विज्ञापन बना है. हैप्पी डेंट का विज्ञापन उसी श्रेणी में आता है. उस विज्ञापन में सब लोगों के दांत से बल्ब जल रहे हैं. उसे करने में काफ़ी वक़्त लगा था. लेकिन इस विज्ञापन ने इनाम भी जीते थे. उसमें अलग मज़ा आया था. चीज़ अच्छी होनी चाहिए. ख़ुद पता लग जाता है कि चीज़ कैसी है.
जब चीज़ अच्छी नहीं लगती और अधिक दिमाग़ नहीं लगा सकते तो कैसा लगता है?
उस वक़्त बुरा लगता है. लगता है कि काश थोड़ा वक़्त होता, सब हटाकर दोबारा लिखते, लेकिन कई बार गाड़ी इतनी आगे निकल चुकी होती है कि आप ठीक नहीं कर पाते हैं. कोशिश यही रहती है कि ऐसी नौबत नहीं आए.
पहली सबसे कामयाब एड कैंपेन कौन सी थी और वो कैसी हुई थी.
मुझे याद है जब पी चिदंबरम ने वॉलेंटरी इंकम डिस्कलोज़र स्कीम की शुरूआत की थी तब सभी विज्ञापन मैंने किए थे. वो काफ़ी कामयाब रहे. उसके बाद नोकिया का विज्ञापन कामयाब हुआ.
एड की दुनिया से गीतकार की तरफ़ कैसे मुड़े? क्या किसी के पास गए कि मैंने यह लिखा है.
नहीं मैं किसी के पास नहीं गया. फ़िल्मों में गाने लिखने से पहले मेरे तीन एल्बम आ चुके थे. उन एल्बमों को सुनकर राजकुमार संतोषी जी ने फ़ोन किया. संतोषी जी को रेखा ने इन एल्बमों के बारे में बताया था.
प्रसून आमिर खान और धोनी के फैन हैं
उस समय वो लज्जा बना रहे थे और फ़िल्म का टाइटल गीत लिखा जाना बाक़ी था. वहां से सिलसिला शुरू हुआ.
एक और गाना था फ़िल्म हमतुम का लड़का लड़की वाला....जिस गाने ने शायद आप को पहचान दिलाई. उसके पीछे क्या सोच थी.
स्क्रिप्ट ऐसी थी जिसमें आधुनिक लड़के लड़की का किरदार था. पहले मुझे संवाद लेखन के लिए बुलाया गया था लेकिन मैंने कहा कि जो संवाद लिखे गए हैं वो सही है. तो फिर मैंने गाने लिखे. जिसमें कई गाने काफ़ी हिट हुए. जैसे लड़की क्यों न जाने क्यों लड़कों सी नहीं होती.
आप ने फ़िल्म दिल्ली-6 के गानों के साथ-साथ पूरी फ़िल्म का स्क्रीनपले भी लिखा हैं. कैसा अनुभव रहा?
अच्छा अनुभव रहा. जब आप फ़िल्म से जुड़ जाते हैं तो आप के गीत भी अधिक सटीक हो जाते हैं. आप को यह मालूम हो जाता है कि फ़िल्म क्या है और कहना क्या है, इसलिए गीत अधिक सार्थक हो जाता है. दिल्ली-6 में लिखना एक अच्छा अनुभव रहा.
तारे ज़मीं पर के माँ वाले गाने को कैसे लिखा?
यह विशेष गाना था, मैंने लिखने से पहले सोचा कि जब मैं बच्चा था तो मेरे क्या डर थे, वहम क्या थे. उन्हें ही लिखा. और जब गाना ख़त्म हुआ तो सब के आंखों में आँसू थे. शंकर जी, आमिर... तो मुझे लगा कि कुछ तो है. जब सबने गाने को पंसद किया तो मुझे लगा कि यह मेरा नहीं बल्कि सबका सच था.
आप की आवाज़ इतनी अच्छी है तो फिर गाते क्यों नहीं?
मैं हर चीज़ में टांग नहीं अड़ाना चाहता. कुछ चीज़ें अपने लिए भी छोड़ देनी चाहिए.
आप ‘रंग दे बसंती’ और ‘तारे ज़मीं पर’ से जुड़े थे. आमिर के साथ आप का कैसा अनुभव रहा है?
हमारा काफ़ी पुराना रिश्ता है. हम दोनों एक दूसरे का सम्मान करते हैं. हम दोनों के बीच अच्छी समझ है. इससे काम आसान हो जाता है. काफ़ी ऐड किए हैं. मुझे लगता है कि जिसे आपकी बेहतर समझ होती है उसके साथ काम करने में आसानी होती है.
क्या इसलिए आमिर को लोग परिपूर्ण मानते हैं?
परिपूर्ण कहना सही नहीं है. मैं जितना आमिर को जानता हूँ, वो यही कोशिश करते हैं कि फ़िल्म किसी भी हाल में अच्छी से अच्छी हो. मेरे मुताबिक़ दर्शकों की जो समझ आमिर को है उस स्तर की समझ किसी के पास नहीं है. आमिर समझते हैं कि दर्शक को क्या चाहिए.
अच्छा ये बताएं कि ऐसा कैसे हो जाता है कि पहले संगीत तैयार कर लिया जाता है फिर गाना लिखा जाता है. क्या हर बार ऐसा ही होता है.
हर बार ऐसा नहीं होता. ‘थोड़ी सी धूल मेरी’ यह गाना मैंने पहले लिखा था और बाद में धुन बनाई गई थी.
‘बहका मैं बहका पहले’ की धुन पहले बनाई गई थी बाद में गाना लिखा गया था. मुझे दोनों में मज़ा आता है. जिस गाने की धुन पहले तैयार कर ली जाती है उसमें अधिक चुनौती होती है. जैसे कहा जा रहा हो कि आप समुद्र पार करें लेकिन हाथ बांधकर, ऐसे में थोड़ी मुश्किल होती है.
एआर रहमान को ऑस्कर में तीन नामांकन मिले हैं .क्या सही में वो इतने ख़ास हैं.
रहमान गिफ़्टेड संगीतकार हैं. उनकी तुलना आम संगीतकारों से नहीं हो सकती. उन्हें अच्छी धुनें आती हैं और वो काफ़ी मेहनती हैं. रहमान को आप अकेला छोड़ दें तो भी वो आप को धुन बना कर दे सकते हैं. वो वन-मैन आर्मी हैं.
क्या आप भी बहुत मेहनती हैं.
मैं बहुत मेहनती हूँ और मैं अपने आपको आमिर और रहमान से कम मेहनती नहीं समझता. मैं अपने काम के लिए धरती-आकाश को एक कर देता हूँ. जो लोग मुझे क़रीब से जानते हैं जो जानते हैं कि मैं 18 घंटे काम करता हूँ. मैं दो बराबर के पेशे में काम करता हूँ और दोनों को मिलाता नहीं.
बड़े बुज़ुर्ग कह गए कि दो घोड़ों की सवारी नहीं करनी चाहिए. लेकिन आप इतनी कामयाबी से कर रहे हैं.
ये दो घोड़ों की सवारी नहीं है. जो सृजन के ख़िलाफ़ होगा वो कहेगा कि एक ही काम करो या यह नहीं करो. लेकिन जो सृजनात्मक होगा वो कहेगा कि वो करो जो तेरा दिल कहता है.
आपका पसंदीदा बॉलीवुड एक्टर मैं अबतक समझ चुका हूं कि आमिर खा़न हैं.
इस समय आमिर हैं वैसे ओम पुरी जी काफ़ी पसंद हैं. नसीर साहब तो हैं ही. मुझे इरफ़ान भी पसंद है.
आपकी पसंदीदा अभिनेत्रियाँ?
नए लोगों में सोनम बहुत अच्छी हैं. आप देखेंगे दिल्ली-6 में. सांवारिया में भी काफ़ी अच्छा काम किया है और वो सबसे ख़ूबसूरत भी हैं.
बॉलीवुड में सबसे क़रीब दोस्त?
आमिर, रहमान, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, कुणाल कोहली, आदित्य चोपड़ा, शंकर माहादेवन मेरे बहुत क़रीब हैं.
पंसदीदा क्रिकेटर?
इस वक़्त महेंद्र सिंह धोनी.
अपने को आप कैसे परिभाषित करेंगे.
मैं अनुभव को अहम मानता हूँ. मेरा मानना है कि सुनकर किसी के बारे में कोई राय न बनाई जाए. क्योंकि जबतक आप किसी से मिले नहीं हो आप उनके सभी पहलुओं के बारे में नहीं जान सकते.
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