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हल्की पड़ गई आज की फिल्मी मां
मां के चरित्र को आज कितना हल्का कर दिया गया है, इसका अनुमान पिछले हफ्ते रिलीज हुई हास्य फिल्म 'मिस्टर व्हाइट एंड मिस्टर ब्लैक' देखकर आसानी से बताया जा सकता है।
यह फिल्म 'दीवार' के 'ऑल टाइम फेवरेट' डायलॉग 'मेरे पास मां है' के साथ-साथ 'राजा और रंक' के गीत 'ओ मां तू कितनी अच्छी है' के मुकाबले में खड़ी होती नहीं दिखतीं।
हिंदी सिनेमा में मां को केंद्र में रखकर बनी फिल्मों को यदि याद करें तो महबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' को बेहतरीन कहा जा सकता है।
मां के किरदार में फिल्म 'ममता' में सुचित्रा सेन, 'आराधना' में शर्मिला टैगोर और 'दीवार' में निरुपा राय ने जबरदस्त भूमिका निभाई है। प्रवीण भट्ट की फिल्म 'भावना' में शबाना आजमी ने भी मां के किरदार में जान डाल दी थी।
यूं तो मां के चरित्र में निरुपा राय की कुर्बानियों को देखकर उन्हें बालीवुड की 'मम्मी नंबर वन' कहा जाने लगा था। इसके बावजूद सुलोचना, लीला चिटनिस, कामिनी कौशल और अचला सचदेव ने भी मां की भूमिका में दर्शकों की आंखें नम करने का माद्दा दिखाया है।
आज 30 साल से कम उम्र के युवाओं के मां की भूमिका में रीमा लागू, अंजना मुमताज और बीना ने हिंदी सिनेमा में अपना अलग मुकाम बना लिया है। वहीं, बड़े दिल वाली राखी गुलजार की टक्कर में ये हल्की पड़ गई हैं।
माना जा सकता है कि निरुपा राय और सुलोचना की जगह ग्लैमरस मां के किरदार में आज वहीदा रहमान और राखी को अधिक पसंद किया जा रहा है।
कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो समय के साथ हिंदी फिल्मों में एक बात आज भी बनी हुई दिखती है। दर्शक आज भी मां को स्वर्ग की दूत जैसी देखना पसंद करते हैं। वह चाहते हैं कि उनकी मां हमेशा एक देवी ही बनी रहे, जिसे पूरी तरह सही नहीं कहा जा सकता।
बी. आर. ईशारा की फिल्म 'कागज की नाव' में 30 साल पहले अपनी विधवा मां को अन्य पुरुष के साथ देखकर हेलन की बेटी सकीरा अंदर तक दहल गई दिखाया गई थी। इस दृश्य में हेलन भी अन्य मां की तरह मार्मिक लगीं।
अंतिम क्षण तक भी फिल्मों में दर्शक मां को उनकी कुर्बानियों और दैवीय चरित्र में देखने को बेसब्र नजर आते हैं। इशारा की फिल्म 'लोग क्या कहेंगे?' में शबाना आजमी और इंद्र कुमार की फिल्म 'बेटा' में अरुणा ईरानी को ऐसी ही भूमिकाओं में देखा गया है।
इंडो-एशियन
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