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    'मैंने अपना फोकस कभी नहीं छोड़ा'

    By सुशील झा,
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    मधुर आगे भी रियलस्टिक फ़िल्में ही बनाना चाहते हैं फॉर्मूला फ़िल्में बिल्कुल नहीं
    किराए पर डीवीडी देने से लेकर फ़िल्मी दुनिया का जाना माना निर्देशक बनना इतना आसान नहीं था लेकिन मधुर धुन के पक्के थे.

    उन्होंने तकलीफ़ें सही, जिल्लत बर्दाश्त की लेकिन हार नहीं मानी और न ही कभी कुछ और करने की सोची.

    अंधेरी के अपने फ्लैट में बातचीत के दौरान वो खुद ही अपने संघर्ष की परतें खोलते रहे.

    मधुर को बचपन से ही फ़िल्में देखने का जूनून था और शायद इसीलिए उन्होंने डीवीडी किराए पर देने का काम शुरु किया.

    वो बताते हैं, ‘ मैं तो निम्न मध्यवर्गीय परिवार से हूं. उन दिनों लोग सीडी, कैसेट और डीवीडी पर फ़िल्में देखते थे और मुझे लगा ये धंधा ठीक है. मैं बांद्रा से अंधेरी साइकिल पर डीवीडी देने आता था. गणपति और अन्य उत्सवों में सड़कों पर फ़िल्में देखता था.

    मुंबई ड्रीम्स शृंखला के तहत आज डीवीडी किराए पर देने से लेकर नेशनल अवार्ड जीतने तक का सफ़र तय करने वाले निर्देशक मधुर भंडारकर के संघर्ष की कहानी पेश है.

    धीरे धीरे धंधा जम गया और मधुर के पास क़रीब 1700 फ़िल्में आ गईं. मधुर कहते हैं कि उन्होंने दो तीन साल में ही ये सारी फ़िल्में देखी, मराठी, अंग्रेज़ी, हिंदी, बांग्ला सारी फ़िल्में वो देखते थे.

    ग्रैजुएट नहीं हूं मैं

    मधुर की तीन फ़िल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है

    गुरु दत्त और विजय आनंद से ख़ासे प्रभावित मधुर का धंधा जब बंद हो गया तो उन्होंने फ़िल्मों में जाने की सोची. वो कहते हैं, ‘ मैंने लाइफ में फ़िल्में ही देखी थीं तो मुझे लगता था कि इसी में कुछ कर सकूंगा. मैंने फ़िल्म इंस्टीट्यूट पूना में अप्लाई किया तो मेरा एडमीशन नहीं हुआ क्योंकि मैं ग्रैजुएट नहीं था.

    मधुर ने हार नहीं मानी और कुछ निर्देशकों के साथ असिस्टेंट डायरेक्टर का काम शुरु किया. आगे चलकर उन्हें रामगोपाल वर्मा को असिस्ट करने का मौका मिला. ये काम कैसे मिला, वो कहते हैं, ‘ मैं रामू जी से काम मांगने गया तो उन्होंने पूछा कि पहले क्या किया, मैंने कहा कि मेरा डीवीडी का धंधा था तो उन्होंने मुझे रख लिया. असल में पहले रामू भी यही काम किया करते थे.

    मधुर ने रामगोपाल वर्मा के साथ शिवा, द्रोही और रँगीला में काम किया लेकिन इसके बाद वो अपने बलबूते फ़िल्म बनाने की कोशिश में लग गए.

    वो बताते हैं, ‘ नब्बे के दशक में फॉर्मूला फ़िल्में बनती थीं. मैं रियलिस्टिक सिनेमा बनाना चाहता था. फाइनेंसर नहीं मिले. बाद में मैने तय किया एक फॉर्मूला फ़िल्म बनाने का.

    निर्देशक के तौर पर मधुर की पहली फ़िल्म त्रिशक्ति थी जो बुरी तरह फ़्लाफ रही. मधुर हंसते हुए बताते हैं, ‘ यह पूरी फॉर्मूला फ़िल्म थी लेकिन इस बी ग्रेड फ़िल्म को किसी ने पूछा तक नहीं. रिलीज़ देर से हुई तब तक इसके हीरो मिलिंग गुनाजी और शरद कपूर का मार्केट डाउन हो चुका था. बहुत बुरी तरह फ़्लाप हुई.

    मैं फ्लॉप डाईरेक्टर था तो मुझे पार्टी में लोग नहीं बुलाते थे. मैं किसी के साथ जाता तो हीरो हीरोईन मुझसे कतरा जाते थे
    इसके बाद तो मधुर को काम मिलना बंद हो गया. वो बताते हैं, ‘ मेरे पास पैसे नहीं होते थे तो मैं बस में सफर करता था. बस में मुझे त्रिशक्ति में काम कर चुके छोटे मोटे किरदार दिखते तो मुझे शर्म आती थी. मैं तो बस स्टॉप पर मोबाइल बंद करके बात करता था ताकि लोगों को लगे मैं बड़ा आदमी हूं.

    इतना ही नहीं मधुर को पार्टियों में नहीं बुलाया जाता. वो बताते हैं, ‘ मैं फ्लॉप डाईरेक्टर था तो मुझे पार्टी में लोग नहीं बुलाते थे. मैं किसी के साथ जाता तो हीरो हीरोईन मुझसे कतरा जाते थे लेकिन मैं फिर भी काम की तलाश करता रहा.

    हालांकि त्रिशक्ति के तकनीकी पक्ष को फ़िल्म इंडस्ट्री में सराहा गया और कई लोगों ने मधुर को टेक्नीकल क्षेत्र में काम करने की सलाह दी. मधुर ने मना कर दिया क्योंकि उन्हें तो निर्देशक ही बनना था.

    मिल गया मौका

    आगे चलकर मधुर ने कम बजट में चादंनी बार बनाई जो सुपर हिट रही. फिर आई पेज 3 और फिर ट्रैफ़िक सिग्नल. चाँदनी बार और पेज 3 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनी तो मधुर को ट्रैफ़िक सिग्नल के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय अवार्ड मिला.

    अब उनको काम की दिक्कत नहीं है और वो सफल निर्देशक हैं.

    वो संघर्ष कर रहे लोगों को एक ही सलाह देते हैं, ‘ चाहे आप फ़िल्म लाइन में हैं या किसी और क्षेत्र में. अपना फ़ोकस मत छोड़िए. जो करना है उसी पर ध्यान केंद्रित रखिए.

    मधुर कहते हैं, ‘ लोग रास्ता भटकते हैं. कोई डायरेक्टर बनने आता है. बाद में टेलीविज़न में हीरो बन जाता है. कोई कुछ करने आता है कुछ और करने लगता है. ऐसे में सफलता नहीं मिलती. फोकस रखें तो तकलीफ के बाद भी सफलता मिल जाती है.

    तकलीफ़ों में पले बढ़े मधुर अपने दोस्तों को आज भी नहीं भूले हैं. लोग उन्हें पहचानते हैं और रास्तों में भीड़ लग जाती है लेकिन वो अभी भी अपने पुराने दोस्तों से मिलने जाते हैं, सड़क पर बड़ा पाव खाते हैं क्योंकि उनके शब्दों में इन्हीं से उन्हें अपनी फ़िल्मों के लिए प्रेरणा मिलती है.

    मधुर भंडारकर के संघर्ष भरे जीवन पर अपनी राय hindi.letters @bbc.co.uk पर भेजें

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