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    फ़िल्मों में LGBT: पिछले कुछ दशकों में इनके लिए कितना बदला है हिंदी सिनेमा

    By Bbc Hindi
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    "इस फ़िल्म के पात्र, कथा और घटनाएँ काल्पनिक हैं. किसी भी जाति, जीवित या मृत व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है. और यदि है तो वो काल्पनिक हैं."

    कई फ़ीचर फ़िल्मों के पहले ये अनिवार्य सी चंद लाइनें दिखाई जाती हैं, ताकि सनद रहे कि आप अगले दो-तीन घंटे के लिए जिस फ़िल्मी दुनिया के किरदारों को हँसते-खेलते-रोते, दर्द सहते और कभी-कभी मरते हुए देखेंगे, वो सब कोरी कल्पना भर है, जिसका हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं.

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    बिल्कुल यही तीन लाइनें साल 2005 की फ़िल्म 'माई ब्रदर निखिल' के शुरू होने से पहले पर्दे पर आती हैं. याद न हो तो यूट्यूब पर जाकर तस्दीक कर सकते हैं. लेकिन फ़र्क इतना भर है कि इस फ़िल्म में दिखाई गई ये तीन लाइनें सच नहीं हैं.

    क्योंकि फ़िल्म 'माई ब्रदर निखिल' डोमिनिक डिसूज़ा नाम के एक युवक की असली ज़िंदगी से प्रेरित थी. ये पात्र काल्पनिक नहीं था. इस किरदार का संबंध हाड़-माँस से बने एक असल इंसान से था, भले ही सिनेमाई ज़रूरत के हिसाब से उसमें तब्दीलियाँ की गई थीं.

    गोवा के रहने वाले डोमिनिक समलैंगिक थे और वो भारत के पहले व्यक्ति थे, जो एचआईवी पॉज़िटिव पाए गए थे. ये बात साल 1989 की है.

    वेलेनटाइन डे की सुबह अचानक डोमिनिक को पुलिस पकड़कर ले गई और टेस्ट के बाद उन्हें सेनिटोरियम भेज दिया गया और वहाँ से कोर्ट ने उन्हें हाउस अरेस्ट में भेज दिया.

    कई महीनों की क़ानूनी लड़ाई के बाद जब डोमिनिक नज़रबंदी से आज़ाद हुए, तो उन्होंने एड्स के क्षेत्र में बहुत काम किया. लेकिन 1992 में उनकी मौत हो गई.

    'माई ब्रदर निखिल'

    जून महीने को हर साल 'प्राइड मंथ' के तौर पर मनाया जाता है, जहाँ एलजीबीटीक्यू समुदाय के मुद्दों पर बात होती है. 'माई ब्रदर निखिल' समलैंगिकता के विषय पर एक ज़रूरी फ़िल्म है.

    लेकिन जब निर्देशक ऑनिर ने ये फ़िल्म बनाई, तो न इसे बनाना इतना आसान था और न ही इस फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से पास करवाना. 2005 वो वक़्त था जब भारत में समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में आती थी.

    अपनी किताब 'आई एम ऑनिर एंड आई एम गे' में ऑनिर लिखते हैं, "सेंसर बोर्ड स्क्रीनिंग के दिन संजय सूरी और मैं बाहर बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे... मेरे घुटने डर के मारे हिल रहे थे. कमरे मे ख़ामोशी पसरी थी. सेंसर बोर्ड के सदस्यों ने कहा कि हमें आपकी फ़िल्म अच्छी लगी और इसे 'यू सर्टिफ़िकेट' दे सकते हैं, लेकिन मुझे शुरू में एक 'डिस्क्लेमर' लगाना होगा कि सब कुछ काल्पनिक है और सच्ची कहानी पर आधारित नहीं है. इसलिए हम फ़िल्म में ये बात नहीं लिख पाए कि फ़िल्म डोमिनिक की असल ज़िंदगी से प्रेरित थी. हालांकि प्रेस में हर जगह हमने ये बात कही और मानी."

    एलजीबीटीक्यू मुद्दों पर बनी मुख्य फ़िल्में (फ़ैक्ट बॉक्स)

    दरमियां- 1997

    तमन्ना- 1997

    फ़ायर- 1996

    माई ब्रदर निखिल- 2005

    अलीगढ़- 2014

    इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा- 2019

    बधाई दो- 2022

    माई ब्रदर निखिल एक ऐसे दौर में बनी फ़िल्म है, जब 'धारा 377' भारतीय दंड संहिता का हिस्सा थी. इसका मतलब ये था कि हक़ीक़त जानते हुए भी फ़िल्म बनाने वाले को उस व्यक्ति की ही मौजूदगी को नकारने पर मजबूर होना पड़ा, जिसकी वजह से उस किरदार और फ़िल्म का अस्तित्व था.

    गोवा का वो किरदार समलैंगिक था, उसे एड्स था. ऑनिर की किताब के मुताबिक़ इससे गोवा की छवि को नुकसान पहुँच सकता है.

    समलैंगिकता पर बनी फ़िल्में

    एलजीबीटीक्यू मुद्दों पर फ़िल्म बनाना लंबे समय तक हिंदी सिनेमा में एक नाज़ुक और जटिल मुद्दा रहा है.

    आज की तारीख़ में भले ही 'बधाई दो', 'चंडीगढ़ करे आशिक़ी', 'इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' जैसी फ़िल्में बनाना, रिलीज़ करना आसान हो गया हो, लेकिन यहाँ तक का सफ़र टेढ़ा और मुश्किलों भरा रहा.

    इस सदी से पहले वाले दौर में न तो समाज ही इसके लिए तैयार नज़र आया और न ही फ़िल्मकार. अक्सर एलजीबीटीक्यू समुदाय से जुड़े किरदार, किरदार न होकर ताने, तंज़ और फूहड़ मज़ाक का ज़रिया होते थे. जाने-अनजाने में बड़ी-बड़ी फ़िल्मों में ऐसा होता आया है.

    फ़िल्म 'शोले' में हिटलर के ज़माने वाले जेलर याद कीजिए और जेल में क़ैद जय और वीरू और साथ में क़ैदी नंबर 6.

    वो रोल चंद मिनट का ही है और कुछ भी प्रत्यक्ष रूप से बोला नहीं गया, लेकिन जिस तरह से क़ैदी नंबर 6 जेलर को देखता है, उसके जो हाव-भाव होते हैं जब वो धर्मेंद्र से बात करता है. उसके हाव-भाव से आप समझ जाते हैं कि वो कौन है.

    और उसकी कमीज़ पर लिखा 'क़ैदी नंबर 6' उस छवि को और पुख़्ता कर देता है. सब जानते हैं कि कैसे 'छक्का' ट्रांस समुदाय के लिए अपमानजनक शब्द के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.

    हालांकि उस दौर में एलजीबीटीक्यू को लेकर जितनी समझ और संवेदनशीलता थी, उसे आज की कसौटी पर तौलना पूरी तरह ठीक न हो. लेकिन इसे नकारा भी नहीं जा सकता.

    70, 80 और 90 के दशक की फ़िल्में उठा लीजिए और उनमें दबे-घुटे स्वर में दिखाए समलैंगिक या ट्रांस किरदारों को ज़रा दोबारा गौर से देखिए तो ये फ़र्क समझ में आ जाएगा. लेस्बियन किरदार दिखाना तो ख़ैर अभी बरसों दूर था.

    1971 की 'बदनाम गली'

    यहाँ 1971 की एक ऐसी फ़िल्म के बारे में बात करना अहम है जिसे कि कई फ़िल्म विशेषज्ञ समलैंगिकता के विषय को छूती पहली हिंदी फ़िल्म भी कहते हैं.

    'बदनाम गली' नाम की ये फ़िल्म प्रेम कपूर ने बनाई थी. फ़िल्म के कलाकारों के नाम आपने शायद ही सुने हों- नितिन सेठी, अमर कक्कड़ और नंदिता ठाकुर. उस वक़्त ये फ़िल्म एनएफ़डीसी ने प्रोड्यूस की थी. देखने के लिए फ़िल्म की तलाश मुझे लेखक मनीष गायकवाड़ के आर्टिकल तक ले गई, जिन्होंने इस फ़िल्म पर काफ़ी शोध किया है.

    फ़िल्म के बारे में पढ़ने पर पता चलता है कि इसमें प्रत्यक्ष रूप से समलैंगिकता को नहीं दर्शाया गया, लेकिन एक ट्रक ड्राइवर और उसके साथ काम करने वाले एक युवक की कहानी समलैंगिकता के विषय को उतना भर छूकर निकल जाती है, जितनी आज़ादी 1971 के सीमित माहौल ने फ़िल्मकार को दी होगी.

    लेकिन उस दौर में इस विषय को चुनना और फ़िल्म बनाना ही अपने आप में एक चुनौती रही होगी.

    ऐसी ही एक कोशिश 1995 में हुई और इसे वाक़ई हिंदी की पहली समलैंगिक फ़िल्म कहा जा सकता है, जिसमें खुले रूप से इस विषय को उठाया गया है. 'अधूरे' नाम की इस फ़िल्म में इरफ़ान ख़ान ने काम किया था, लेकिन ये फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने पास नहीं की थी.

    लेखक मनीष गायकवाड़ ने हाल ही में इस फ़िल्म का ज़िक्र किया, तब से इस फ़िल्म के प्रिंट को लेकर चर्चा फिर से छिड़ी है कि आख़िर इसका प्रिंट है किसके पास.

    समलैंगिक किरदार सिर्फ़ फ़ूहड़ता के लिए?

    ये बहस लगातार जारी है कि क्या और कैसे एलजीबीटीक्यू समुदायों से जुड़े किरदारों का फूहड़ प्रदर्शन किया जाता है.

    2019 में आई 'हाइसफ़ुल' जैसी सफल फ्रैंचाईज़ी की फ़िल्म का ये डायलॉग लीजिए, जिसमें एक किरदार कहता है- इसके जेंडर का टेंडर नहीं हुआ.

    अगर रिवाइंड मोड में देखने बैठो तो पिछले 2-3 दशकों की सबसे हिट और फ़ील गुड फ़िल्मों में ये दिक्कत नज़र आने लगती है.

    इन फ़िल्मों में ये किरदार या तो मज़ाक का ज़रिया होते थे या फिर पूरी तरह से नेगेटिव. जैसे फ़िल्म 'सड़क' में महारानी (सदाशिव अमरापुरकर) का ट्रांसजेंडर किरदार. हालांकि इस नैरेटिव को तोड़ती या कम से कम चैलेंज करती फ़िल्में भी आई हैं.

    1997 में आई महेश भट्ट की फ़िल्म 'तमन्ना' जिसने टिकू नाम के एक ट्रांसजेंडर किरदार (परेश रावल) को तमाम स्टीरियोटाइप से दूर एक ऐसे आम इंसान की तरह दिखाया, जिसके जज़्बात हैं, जिसकी एक बच्ची है. लेकिन क्या वो बच्ची एक ट्रांसजेंडर को अपनी माँ या अपने बाप के रूप में स्वीकार कर पाएगी. ये फ़िल्म भी सच्ची कहानी पर ही बनी थी.

    1997 में ही आई कल्पना लाजमी की 'दरमियां' में एक माँ (किरण खेर) और उसके बेटे (आरिफ़ ज़कारिया) की दास्तां की परतों को खोला गया- एक ऐसी माँ जिसे पता चलता है कि उसका बेटा किन्नर समुदाय से है.

    वहीं 1996 में आई 'दायरा' एक ट्रांसवेस्टाइट (निर्मल पांडे) और एक रेप सर्वाइवर की कहानी है, जो जेंडर के सामजिक दायरों पर सवाल खड़े करती है.

    हालांकि सामजिक स्तर पर सबसे बड़ा हंगामा 1996 की दीपा मेहता की फ़िल्म 'फ़ायर' से हुआ था. दो समलैंगिकों की कहानी और वो भी दो महिलाओं की. समाज का एक तबका फ़िल्म के साथ था, तो एक पूरी तरह ख़िलाफ़.

    मुझे याद है इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख में नाज़ फ़ाउंडेशन की अंजलि गोपालन ने कहा था, "पुरुषवादी सोच को चुनौती देने वाली इससे बड़ी बात क्या हो सकती थी, जहाँ महिलाएँ कहें कि उन्हें पुरुषों की ज़रूरत ही नहीं. ख़ुद को लेस्बियन मानने वाली महिलाएं तो आज भी समाज की निचली पायदान पर हैं. उस फ़िल्म ने इसलिए सबकी मदद की, क्योंकि इसने बहुत से लोगों को एनक्यूज़िवनेस पर बात करने के लिए मजबूर किया."

    1996 की 'फ़ायर' से लेकर 2019 की फ़िल्म 'इक लड़की को देखा तो लगा' के सफ़र में करीब 23 साल लगे. दो औरतों की प्रेम कहानी कहना, दो मर्दों की प्रेम कहानी कहने के मुक़ाबले ज़्यादा जोखिम भरा रहा है. लेकिन 2022 में ये जोखिम एक्टर भी उठा रहे हैं, लेखक भी और फ़िल्मकार भी.

    ग़ज़ल धालीवाल- ट्रांसवुमेन बनने की कहानी

    बात 2014 की है जब कुर्ता और चूड़ीदार पहने आत्मविश्वास से भरी एक लड़की आमिर ख़ान के शो 'सत्यमेव जयते' में आई थी. उनका नाम था- ग़ज़ल धालीवाल. और मुझे उन दर्शकों के चेहरे पर अचंभे और हैरत का भाव भी याद है, जब ग़ज़ल ने बताया कि उनका जन्म बतौर लड़का हुआ था.

    ग़ज़ल ने लोगों को अपनी बचपन की तस्वीर भी दिखाई थी, जिसमें वो एक सिख लड़का हैं और पगड़ी पहने हुए हैं.

    https://www.instagram.com/p/BnXutc7gw06/?hl=en

    इन्हीं ग़ज़ल धालीवाल ने फ़िल्म 'इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' की कहानी लिखी, जो दो औरतों की प्रेम कहानी थी. ग़ज़ल ख़ुद ट्रांसवुमेन हैं यानी सर्जरी के बाद मर्द से औरत बनी हैं.

    'सत्यमेव जयते' में उन्होंने कहा था, "जब मैं पाँच साल की थी, तब भी मैं ख़ुद को लड़की जैसा महसूस करती थी, जबकि मैं लड़का थी. उम्र के साथ-साथ ये अहसास और बढ़ता गया. मैं लड़कियों जैसा बनना-संवरना चाहती थी. मुझे लगता था कि मैं मर्द के शरीर में क़ैद होकर रह गई हूँ. मेरी रूह औरत की है."

    ग़ज़ल ने 'इंक टॉक्स' के आयोजन में बताया था कि 12 साल की उम्र में उन्होंने नींद की गोलियों से ख़ुदकुशी करने की योजना तक बनाई थी. और जब पिता से पहली बार बताया तो उन्होंने बात को दरकिनार तो नहीं किया, पर ये कहा कि शायद ये अस्थायी दौर है, जो गुज़र जाएगा और बार-बार यही कहते रहे.

    पटियाला जैसी जगह में, मध्यमवर्गीय समाज में सबको ये बता पाना कि वो है तो लड़का पर लड़की की तरह रहना चाहती हैं, आसान नहीं था.

    फ़िल्मों में काम करने की तमन्ना ही ग़ज़ल को मुंबई लाई, जहाँ उन्होंने ट्रांसजेंडर लोगों पर एक फ़िल्म बनाई. इस फ़िल्म को बनाते वक़्त वो कई ट्रांस लोगों से मिलीं, जिनमें से कुछ ने सेक्स बदलवाया था.

    जब ये फ़िल्म ग़ज़ल ने अपनी माँ-बाप को दिखाई, तो उनका पहला सवाल यही थी कि तुम अपनी सेक्स चेंज सर्जरी कब करवा रही हो. ये बातें 'सत्यमेव जयते' में भी ग़ज़ल ने साझा की थी.

    एक लंबा वक़्त लगा ग़ज़ल के माँ-बाप को ग़ज़ल की दुनिया समझने में. लेकिन बाद में ग़ज़ल के पिता भजन प्रताप सिंह और माँ सुकर्नी धालीवाल ने ख़ुद ये ज़िम्मा उठाया कि वो अपनी पड़ोसियों को जाकर बताएँ कि जिसे अब तक वो लड़के के तौर पर जानते आए हैं, वो अब लड़की बन रही है और सब उनकी बेटी का समर्थन करें.

    ग़ज़ल जैसे लोगों की असली और अनकही कहानियाँ ग़ुमनामी, हिचक और डर के पर्दों से अब बाहर आ रही हैं.

    'मार्गेरिटा विद ए स्ट्रा' एक विकलांग लड़की की सेक्शुएल डिज़ायर को खंगालती फ़िल्म थी, तो 2022 में आई 'बधाई दो' की सूमी (भूमि पेडनेकर) लेस्बियन है और परिवार से बचने के लिए एक समलैंगिक पुरुष (राजकुमार राव) से शादी की हुई होती है.

    जब सूमी की दोस्त रिमझिम बताती है कि उसके घरवालों ने लेस्बियन होने पर उससे नाता तोड़ लिया है और उसे समझने की कोशिश नहीं की, तो पल भर के लिए निराश सूमी कहती है- "कोई नहीं समझता यार, हम डिफ़रेंट हैं न, तो उन्हें लगता है कि हम पर्वट (विकृत) हैं."

    लेकिन दूसरे ही पल अंदर से बाग़ी सूमी ये सवाल भी करती है- "पर (दूसरों को) समझाना भी क्यों है? ये हमारी लाइफ़ का हिस्सा है. पूरी लाइफ़ थोड़े न है."

    2021 में आई ख़ालिस कॉमर्शियल फ़िल्म 'चंडीगढ़ करे आशिक़ी' एक ट्रांसवुमेन की कहानी है- ग़ज़ल धालीवाल की तरह. इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक मैचो-मैन जैसी छवि रखने वाला जिम का मालिक़ और हीरो ये स्वीकार नहीं कर पाता था कि जिससे वो प्यार करता है, वो एक ट्रांस औरत है. उसे तो ये भी नहीं पता था कि ये ट्रांस होता क्या है.

    फ़िल्म में ट्रांस औरत का रोल करने वाली वाणी कपूर कहती हैं, "तुझे पता है प्रॉब्लम क्या है. ये बात तू न हज़म कर पा रहा है और न मैं ख़त्म कर पा रही हूँ."

    फ़िल्मी पर्दे पर दिखने वाली ये उलझन, कशमकश और मुद्दे कोई काल्पनिक या आभासी मुद्दे नहीं है. बदलते भारत में ये असली मसले हैं.

    फ़िल्म 'शुभ मंगल ज़्यादा सावधान' में कार्तिक सिंह (आयुष्मान ख़ुराना) समलैंगिक हैं और उनका एक डायलॉग है- "दोस्तो, शंकर त्रिपाठी (गजराज राव) बीमार हैं, बहुत बीमार हैं, उस बीमारी का नाम है होमोफ़ोबिया. रोज़ हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है ज़िंदगी में. पर जो लड़ाई परिवार के साथ होती है, वो सारी लड़ाइयों में सबसे ख़तरनाक होती है."

    फ़िल्मों में दिखाए जाने वाले परिवारों की तरह ही, असली परिवार और समाज भी इस मुद्दे को लेकर उतने ही बंटे हुए हैं. सदियों से चला आ रहा पारिवारिक ताना-बाना और नए ज़माने की क़ानूनी सच्चाई आज भी कई बार आमने-सामने ख़ड़े नज़र आते हैं.

    समलैंगिकता पर क़ानून और समाज का नज़रिया

    सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने वाला भारत, नेपाल के बाद दक्षिण एशिया का दूसरा देश बन चुका है. इस फ़ैसले को आए भी करीब-करीब चार साल होने को हैं और इस बदलाव की आहट दिखने भी लगी है.

    क्या है विभिन्न देशों काक़ानून (फ़ैक्ट बॉक्स)

    भारत- सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबध अपराध नहीं

    नेपाल- 2007 में अपराध की श्रेणी से बाहर

    चीन- 1997 से अपराध की श्रेणी से बाहर

    ईरान- मौत की सज़ा

    फ़्रांस, अमरीका, ब्रिटेन औरन्यूज़ीलैंड- समलैंगिक शादी की अनुमति

    'अलीगढ़' जैसी फ़िल्मों से जुड़े रहे स्क्रीनराइटर अपूर्व असरानी ने 80 और 90 के बॉम्बे में एक समलैंगिक युवक की अपनी कहानी कई बार साझा की है और नए बदलावों की भी.

    उन्होंने कहा था, "13 साल तक हम कज़न बनने का नाटक करके साथ रहे, ताकि हम किराए के घर में साथ रह सकें. हमें कहा गया कि पड़ोसियों को नहीं पता चलना चाहिए कि तुम क्या हो. अब हमने अपना नया घर ख़रीदा है. अब ख़ुद से जाकर पड़ोसियों की बताते हैं कि हम पार्टनर हैं. वक़्त आ गया है कि एलजीबीटीक्यू परिवारों को भी सामान्य समझा जाए."

    ये बात अपूर्व असरानी ने 2020 में साझा की थी.

    ओटीटी और इंटरनेट आने के बाद से एलजीबीटीक्यू मुद्दों और परंपराओं से उनके टकराव को लेकर कहानियाँ बनने लगी हैं. फिर चाहे वो कोंकणा सेन शर्मा की 'गीली पुच्ची' हो, 'मेड इन हेवन' या 'शीर कोरमा' हो.

    अभी हाल ही में स्टैंड-अप कॉमेडियिन स्वाति सचदेवा का वीडियो ख़ूब वायरल हुआ था, जिसमें उन्होंने पहली बार दुनिया को बताया कि वो बाइसेक्शुयल हैं.

    'इक्वेलिटी नॉन-नेगोशिएबल है'...

    ख़ैर बात परंपराओं और फ़िल्मों की हो रही थी तो निर्माता-निर्देशक ऑनिर की बात पर लौटते हैं, जिनसे इस लेख की शुरुआत हुई थी. ऑनिर ने अपनी किताब में अपने समलैंगिक होने का सफ़र, उसका अकेलापन सब कुछ बयान किया है.

    उनकी किताब की टैगलाइन है- 'इक्वेलिटी नॉन-नेगोशिएबल' है यानी समानता को लेकर किसी तरह का तोल-मोल नहीं हो सकता.

    लेकिन भावनाओं, सच्चाई, सोशल कं​डिशनिंग, परंपराओं, समानता और क़ानून के इस चक्र में अभी कई पेच हैं, कई परते हैं, कई अधूरे पहलू हैं, इरफ़ान ख़ान की फ़िल्म 'अधूरे' की ही तरह... और फ़िल्में इन पेचीदगियों का आईना भर हैं.

    (बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)

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    English summary
    LGBT community in hindi cinema and its journey
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