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ब्लैक लेबल छोड़कर वोदका क्यों पीने लगे थे शशि कपूर?
शशि कपूर ने इतना अधिक फ़िल्मों में काम किया जिस वजह से उनके बड़े भाई राज कपूर उन्हें टैक्सी कहा करते थे.
जैसे टैक्सी में एक मुसाफ़िर बैठता है फ़िर मीटर डाउन होता है, एक मुसाफ़िर उतरता है फिर दूसरा मुसाफ़िर बैठता है और मीटर डाउन होता है.
इसी तर्ज़ पर शशि कपूर सुबह 8 बजे घर से निकलते और लगातार अलग-अलग स्टूडियो में अलग-अलग फ़िल्मों की शूटिंग किया करते थे. रात के 2 बजे तक काम करके वह घर लौटते थे जिसके कारण राज कपूर ने उन्हें टैक्सी एक्टर कहकर पुकारा था.
सबसे बड़ी बात यह है कि इतनी मेहनत करके शशि कपूर ने जो पैसा कमाया, उसका न 100 एकड़ का फ़ार्म हाउस ख़रीदा, न ही 10-12 बंगले ख़रीदे, न ही कोई डिपार्टमेंटल स्टोर बनाया बल्कि उन पैसों से श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, गिरीश कर्नाड जैसे निर्देशकों के साथ मिलकर सामाजिक सरोकार की फ़िल्में बनाईं.
यह निर्देशक कम बजट की फ़िल्में बनाया करते थे जिसे उन्होंने काफ़ी पैसा दिया और कहा कि जैसी चाहो वैसी फ़िल्म बनाओ. इसके बाद अद्भुत फ़िल्मों का निर्माण किया गया.
जब अपर्णा सेन '36 चौरंगी लेन' बना रही थीं तब उसका बजट 20 लाख रुपये था लेकिन फ़िल्म 40 लाख रुपये में पूरी हुई. शशि कपूर ने जी खोलकर अपने फ़िल्म निर्माण पर पैसा ख़र्च किया.
विलक्षण काम
उन्होंने एक ऐसा अद्भुत काम किया है जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. उन्होंने जुहू जैसे महंगे इलाक़े में पृथ्वी थियेटर का निर्माण किया. यह सेंट्रलाइज़्ड एसी और साउंडप्रूफ़ वाला हॉल है जहां रोज़ाना नाटक मंचित होते हैं.
नाटकों से बहुत अधिक किराया नहीं लिया जाता बल्कि जितने टिकट बिकते हैं, उसका 60 फ़ीसदी नाटक बनाने वाले को मिलता है और 40 फ़ीसदी पृथ्वी थियेटर को मिलता है.
जुहू में ऐसी जगह हॉल का किराया एक दिन में 60 हज़ार भी हो सकता था लेकिन शशि कपूर और उनके बेटे-बेटियां थियेटर के प्रति समर्पित रहे हैं जिसके कारण ऐसा संभव हो पाया है.
पृथ्वी थियेटर शशि कपूर द्वारा देश को दी गई ऐसी देन है जो लंबे अरसे तक क़ायम रहेगी.
दोस्तों के लिए पीने लगे वोडका
वह जब कामयाब अभिनेता थे तो आयात की गई जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल शराब पीते थे. लेकिन जब गिरीश कर्नाड, श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी के साथ उन्होंने फिल्म बनाना शुरू किया तो पता चला कि ये सभी निर्देशक हिंदुस्तानी वोडका पीते हैं.
इसके बाद शशि कपूर ने जॉनी वॉकर पीनी बंद कर दी और वोदका पीने लगे.
वह दूसरों की भावनाओं के प्रति इस क़दर समर्पित थे जो बिलकुल मामूली बात नहीं है.
कमर्शियल सिनेमा से थियेटर
शशि कपूर ने ख़ूब कमर्शियल फ़िल्में कीं लेकिन इसके बाद कला फ़िल्में और थियेटर भी किया. इस बदलाव के लिए दो शख़्सियत ज़िम्मेदार हैं. पहली उनके पिता पृथ्वीराज कपूर और दूसरा उनकी पत्नी जेनिफ़र कैंडल.
उनके पिता उस ज़माने में एक लाख रुपये फ़िल्मों से कमाते थे जो उसे थियेटर में लगा देते थे. इसमें राज, शम्मी और शशि तीनों भाई काम किया करते थे.
वहीं, जेनिफ़र कैंडल का कैंडल परिवार हमेशा थियेटर में रहा. उन्होंने घूम-घूमकर थियेटर किया और लोगों को सिखाया. उनकी बेटी संजना कपूर स्कूलों में जाकर बच्चों को थियेटर सिखाती हैं तो कुनाल पृथ्वी थियेटर का प्रबंधन देखते हैं. करन अमरीका में फोटो जर्नलिस्ट हैं.
अलग अभिनय शैली
कपूर ख़ानदान के कई नगीनों में से एक शशि कपूर की अभिनय शैली भी बाकी लोगों से अलग थी. उन्होंने किसी की नकल नहीं की. तीनों भाइयों की अपनी अभिनय शैली थी. यहां तक की उन पर पृथ्वीराज कपूर के अभिनय का प्रभाव भी नहीं था.
मर्चेंट और जेम्स आइवरी दोस्त थे. इन्होंने अपनी फ़िल्म के लिए शशि कपूर को लिया लेकिन शशि ने इनसे 20 फ़ीसदी ही राशि ली. ताकि वे कलात्मक फ़िल्में बना सकें.
निर्देशक दोस्तों ने कई फ़िल्में बनाई हैं जिसके नायक शशि कपूर हैं. वह एकमात्र भारतीय अभिनेता हैं जिन्होंने एक दर्जन अंग्रेज़ी भाषा में बनी फ़िल्मों में काम किया है.
मर्चेंट की फ़िल्म मुहाफ़िज़ की शूटिंग भोपाल में हुई थी जिसके लिए एक महीना शशि कपूर वहां रहे. यह फ़िल्म उर्दू अदब की आदरांजलि के लिए बनाई गई थी.
शशि कपूर ने केवल अजूबा फ़िल्म का निर्देशन किया. लेकिन उन्होंने गिरीश कर्नाड की उत्सव जैसी फ़िल्म को प्रोड्यूस किया.
अजूबा कोई महान फ़िल्म नहीं थी. यह सोवियत संघ के सहयोग से बनने वाली थी लेकिन उसके विघटन के बाद शशि कपूर ने उसे ख़ुद बनाया और काफ़ी पैसा लगाया.
यह फ़िल्म फैंटेसी पर आधारित थी.
उम्दा इंसान थे
मैं उन्हें एक मनुष्य के रूप में ऊंचा आंकता हूं. उनके कई स्वरूप हैं. फ़िल्म निर्माण के दौरान जब वह शूटिंग के लिए बाहर जाते तो होटल में एक बड़ा कमरा शूटिंग स्टाफ़ के खाने-पीने के लिए हमेशा खुला रहता था.
ऐसा प्रोड्यूसर कहां मिलेगा जो टैक्नीशियनों और स्टाफ़ के लिए हर समय खाने और शराब का प्रबंध उपलब्ध रखे.
नहीं मिल पाया ऑस्कर
शशि कपूर 36 चौरंगी लेन के प्रोड्यूसर थे जो फ़िल्म ऑस्कर के लिए गई थी और बहुमत से तय पाया गया कि यह फ़िल्म महान है इसे पुरस्कार देना चाहिए.
लेकिन निर्णायक मंडल के एक सदस्य ने कहा कि टैक्निकल ग्राउंड पर इस फ़िल्म को पुरस्कार नहीं मिल सकता क्योंकि यह अंग्रेज़ी भाषा में बनी फ़िल्म है और इसकी एंट्री भारतीय भाषा की फ़िल्म के तौर पर हुई है.
टैक्निकल प्रॉबल्म की वजह से यह फ़िल्म ऑस्कर से महरूम रह गई और इतिहास बनते-बनते रह गया.
(बीबीसी संवाददाता मोहम्मद शाहिद से बातचीत पर आधारित.)
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