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अवध की तवायफ़ी ग़ज़ल मिज़ाज वाले नौशाद
हिंदी फिल्मों के महान संगीतकारों पर 'संग संग गुनगुनाओगे' सिरीज़ की पहली कड़ी में संगीतकार नौशाद..
अवध की तवायफ़ी ग़ज़ल, मुजरों और बंदिशों पर हुनरमंद पकड़ का नाम नौशाद अली है.
हिंदी फ़िल्म संगीत की दुनिया में लखनऊ के ख़ास अंदाज़ का सलोना रंग भरने में इसी संगीतकार ने सबसे पहले कोशिश की थी.
कहा जाता है कि उन्होंने उस्ताद बब्बन साहब से लेकर मैरिस कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूज़िक (आज का भातखण्डे संगीत विश्वविद्यालय, लखनऊ) के प्रोफ़ेसर युसूफ अली ख़ाँ से बाक़ायदा शास्त्रीय संगीत की तालीम ली थी.
इसी के साथ उन्होंने अपनी संगीत कला में थोड़ी मिलावट करते हुए जो लोक-संगीत विकसित किया था, उसके पीछे लखनऊ में तवायफ़ों की महफ़िल में बजाने वाले ढेरों साजिंदों समेत ख़ुद तवायफ़ों और मिरासिनों का योगदान शामिल है.
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लखनऊ अपनी रचती-बसती तहज़ीब में कई बार नाचघरों और जलसों से नवाबों के समय में आबाद रहता आया था.
उसकी कुछ खरोंचें और पुरानी दस्तकारी बाद तक बची हुई थी, जब नौशाद जैसा दीवाना संगीत सीखते हुए तैयार हो रहा था.
सदाबहार धुनें
यही वो समय था, जब उन्होंने अपनी धुनों के लिए परंपरा में मौजूद ढेरों सुनी हुई चीज़ों के बीच रास्ता बनाया, जिस पर पहले सिनेमाई अर्थों में कोई संगीतज्ञ गया नहीं था.
शायद इसी कारण अवध की कजरी, दादरा, ठुमरी और चैती के बीच से कुछ ऐसी सदाबहार धुनें निकल सकीं, जिनके लिए हिंदी फ़िल्म संगीत को नौशाद के साथ-साथ लखनऊ की गानेवालियों का भी धन्यवाद करना चाहिए.
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यह नौशाद ही थे, जिन्होनें लखनऊ और बनारस के अधिकांश कोठों के इर्द-गिर्द बसे हुए पुराने साजिंदों के अलावा साजों की दुकानों पर मरम्मत का काम करने वाले हारमोनियम मेकरों और तबला और ढोलक तैयार करने वाले उस्तादों को पकड़ा.
उनके सहयोग से उन्होंने अपनी धुनों में वैसा प्रभाव डालने की कोशिश की, जिससे कुछ-कुछ पुराना अवध और नई तमीज़ में बनता हुआ लखनऊ आकार लेता है.
संगीत की दुनिया
नौशाद की धुनों में एक ख़ास बात और दिखाई पड़ती है, जो सीधे उनके भारतीय साज़ों से प्रेम का मामला रहा है.
आप ग़ौर करें तो पाएंगे कि उनके यहाँ जिन साजों ने सर्वाधिक मुखर उपस्थिति बनाई है, उनमें हारमोनियम, क्लैरेनेट, वॉयलिन, सारंगी, तार-शहनाई और पियानो को गिना जा सकता है.
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उनके बारे में तो यह संगीत की दुनिया में मशहूर ही रहा है कि दिन भर वे पियानो पर अपनी धुनें बनाते रहते थे और उनको गा-गाकर इसी साज़ पर सुधारा करते थे.
नौशाद की कला
आज पीछे मुड़कर उनके बनाए हुए सुरीले संसार को देखने पर यह अंदाज़ा लगता है कि कैसे उन्होंने अपनी मैरिस कॉलेज की तालीम को पूरी तरह आत्मसात करते हुए उपशास्त्रीय और लोक-संगीत के बीच सामंजस्य के तहत ख़ुद का संगीत रचा था.
'बैजू बावरा', 'मुग़ल-ए-आज़म', 'शबाब', 'आन', उड़न खटोला', 'अमर', 'मदर इंडिया', 'कोहिनूर', 'गंगा जमना' जैसी कई फ़िल्मों को याद करते हुए यह समझा जा सकता है कि खालिस अवधी अंदाज़ की गायकी और पूरब अंग की रागदारी का नाज़ुक मिज़ाज हर तरह से नौशाद की कला के खाते में जाता है.
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वह इलाका, जहाँ अवध की पुकार तान में ग़ज़लों से अलग सोज़ख़्वानी और नौहा का दर्द भी झलकता हुआ मौजूद है.
(यतीन्द्र मिश्र लता मंगेशकर पर ' लता : सुरगाथा ' नाम से किताब लिख चुके हैं.)
बीबीसी हिंदी फिल्मी दुनिया के महान संगीतकारों के बारे में ' संग संग गुनगुनाओगे ' नाम से एक ख़ास सिरीज़ शुरू कर रही है. सिरीज का पहला लेख संगीतकार नौशाद को समर्पित है.
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