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    दो फ़िल्में और दो रंग

    By Staff
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    दो फ़िल्में और दो रंग

    भावना सोमाया, वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक

    बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

    ऐक्शन रिप्ले में किरदारों ने प्रभावित नहीं किया.

    इस दीवाली दो फ़िल्में रिलीज़ हुई हैं और दोनों काफ़ी चर्चा में हैं.

    'गोलमाल-3' इसलिए चर्चा में है क्योंकि आम तौर पर हिंदुस्तान में ज़्यादा सीक्वेल नहीं बनते और बनते भी हैं तो चल नहीं पाते और दूसरी है 'ऐक्शन रीप्ले' जो कि 70 के दशक की कहानी है.

    दीवाली के दिनों में किसी का दिल नहीं तोड़ना चाहिए इसीलिए ज़्यादा शब्दों का प्रयोग न करते हुए मैं कहूँगी कि इन त्योहारों के दिन ऐक्शन रीप्ले से दूर रहिए.

    प्रोड्यूसर ने जितनी मेहनत फ़िल्म के कपड़ों और प्रस्तुति पर की है अगर उससे आधी मेहनत भी कहानी पर लगाते तो शायद कुछ बात बन सकती थी.

    निर्देशक विपुल शाह ने इसके पहले भी दो फ़िल्में 'आंखें' और 'वक़्त' गुजराती नाटकों पर बनाई है. ऐक्शन रीप्ले भी आतिश कपाडिया के ज़रिए लिखी गई उसी नाम के बहुत मश्हूर गुजराती नाटक पर आधारित है.

    इसमें एक बेटा अपने बरसों से झगड़ते मां-बाप में सुलह कराने के लिए टाइम मशीन की मदद से उनके अतीत में सफ़र करता है और पत्ते बदल देता है.

    अफ़सोस कि जो बात बहुत सरलता से नाटक में बताई गई थी वह पर्दे पर नहीं दिखती. और इसका दोष मैं स्क्रीनप्ले लेखक सुरेश नायर को दूँगी.

    पूरी फ़िल्म में एक भी दृश्य, एक भी सीन या गीत आपको अपनी ओर नहीं खींचता. ढाई घंटे में एक भी किरदार या उनकी कोई बात हमारे दिलों को नहीं भाती.

    नया लड़का आदित्य राय कपूर ठीक है और ऐश्वर्या राय बिलकुल मेकैनिकल हैं. एक नई भूमिका में अक्षय कुमार पूरी मेहनत करते हैं मगर दिल को नहीं छू पाते हैं.

    ऐक्शन रीप्ले में न अच्छा संगीत है, न कहानी और न ही अच्छी अदाकारी है. आप इंतिज़ार में रहते हैं कि कब कोई इंटरवल हो और आप बाहर निकल कर समोसे खाएं. और इंटरवल के बाद आप इंतिज़ार में हों कि कब 'द एंड' हो और आप घर जाकर चाय के साथ एक सिर दर्द की गोली खा सकें.

    फ़िल्म में वैसे तो पात्र 10-12 हैं लेकिन हिरोइन के नाम पर सिर्फ़ करीना कपूर हैं.

    गोलमाल-3 ये साबित करती है कि इंटरटेनिंग यानी मज़ेदार फ़िल्म के लिए लॉजिक यानी तर्क ज़रूरी नहीं है.

    फ़िल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि न इसमें कोई संदेश है न कोई क्वालिटी का झूठा वादा. निर्देशक रोहित शेट्टी का सिर्फ़ एक ही एजेंडा है कि उन्हें दर्शकों को हंसाना है और वह इसके लिए कुछ भी करेंगे--ऐक्शन, ड्रामा, स्टंट, मोटर कार रेस, मार-धाड़ स्लैप स्टिक कॉमेडी, एक बिल्कुल क्रेज़ी कहानी और 10-12 पागल किरदार.

    जैसे कि हिंदी फ़िल्मों में होता है और ख़ास तौर पर मनमोहन देसाई की फ़िल्मों में होता था, रोहित शेट्टी की कहानी में भी एक मां रत्ना पाठक हैं, एक बाप मिथुन चक्रवर्ती और पांच बच्चे--अजय देवगन, श्रयस तालपडे, अरशद वारसी, तुषार कपूर और कुणाल खेमू.

    हमदर्दी और ग्लैमर के लिए है एक हीरोइन-- करीना कपूर, अच्छे दिल के गुंडे जिनमें एक है जॉनी लीवर और उनके दो चमचे.

    मनमोहन देसाई धारावाहिक क़िस्म की कॉमेडी बनाते थे, रोहित शेट्टी ने भी कुछ ऐसा ही किया है और मज़े की बात ये है कि इतने पात्रों के होने के बावजूद पटकथा हर किसी के साथ इंसाफ़ करती है.

    कोई हकलाता है, कोई बौखलाता है, किसी को भूल जाने की बीमारी है, किसी को ग़ुस्सा जल्दी आता है, किसी को अंग्रेज़ी पसंद है और कोई हर समय झगड़ने को तैयार है. सारे कलाकार अपनी भूमिका बख़ूबी निभाते हैं.

    ये सच है कि गोलमाल-3 'जाने भी दो यारो' जैसी इंटेलिजेंट कॉमेडी नहीं है, न ही ये 'चुपके चुपके' है मगर इसके बावजूद आप को दो घंटे हंसा हंसा कर पागल कर देती है.

    दीवाली का त्योहार हंसके बिताओ, दिमाग़ घर पर छोड़ कर दिल को साथ लेकर सिनेमा हॉल में जाओ. जॉनी लीवर के साथ भूल भूलैयां खेलो और संजय मिश्रा के साथ अंग्रेज़ी सीखो.

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