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'संगीत की बहती गंगा को क्या छेड़ना...'
देश और दुनिया में बड़ी तादाद में इनके प्रशंसक हैं. हमारे मेहमान हैं इंडियन ओशन बैंड के सुष्मित सेन और अशीम चक्रवर्ती.
अभी मैंने इस बैंड की इतनी प्रशंसा की. कैसे बना ये बैंड. क्या रही कहानी?
सुष्मित: ये कहानी काफ़ी लंबी है. ये बैंड 18 साल पहले बना था. दरअसल मैं 80 के दशक में एक दोस्त के घर पार्टी में अशीम से मिला. उसके बाद मैंने गिटार की कुछ रचनाएं सुनाईं जो उसे पसंद आई. इसके बाद हम साथ-साथ काम करने लगे. लेकिन इंडियन ओशन 1990 में बना. तब से लेकर अब तक दो बदलाव हुए हैं. 1991 में राहुल और 1994 में अमित हमारे साथ जुड़े. तबसे हमारी टीम में कोई बदलाव नहीं हुआ.
तो क्या 1994 के बाद आपने बैंड में शामिल होने पर रोक लगा दी?
अशीम: नहीं ऐसा कुछ नहीं है. रोक-टोक तो कभी नहीं थी. कुछ लोग आए, कुछ गए. ये तो चलता रहता है.
अशीम: संगीत में मेरी दिलचस्पी बचपन से ही थी. मैं सात साल की उम्र से ही तबला बजाता था. कोलकाता में कई कलाकारों के साथ काम किया. मन्ना डे के साथ भी काम किया. मुझे लगने लगा था कि मैं अच्छा काम कर सकता हूँ. जब सुष्मित से मिला तो मुझे उसमें कुछ ख़ास लगा. जोश और अंदाज अलग था. सुष्मित कुछ बातों में कमज़ोर थे, लेकिन कुछ करने का जज्बा था और गिटार बेहतरीन बजाते थे.
बीबीसी एक मुलाक़ात का सफ़र आगे बढ़ाएं. इससे पहले अपनी पसंद का एक गाना सुनाएँ
सुष्मित: हमारी डीवीडी का नया गाना 'बुला रहा है...' काफी अच्छा है. कैलाश खेर का गाना 'अल्लाह के बंदे...' मुझे पसंद है. रब्बी का गाना 'बुल्ला कि जाना...' मुझे पसंद है.
अशीम: रोज़ा का गाना 'दिल है छोटा सा...' मुझे बहुत पसंद है. इसके अलावा 'तारे ज़मीं पर' के गाने भी मुझे पसंद हैं.
आप अपनी संगीत को किस तरह से देखते हैं?
अशीम: दरअसल, हम इस सवाल का अरसे से सामना कर रहे हैं. 10-12 साल पहले हमने इसका जो जवाब दिया था, आज भी वही जवाब देंगे. हमारी कोशिश थी कि अपनी अलग पहचान बनाएं. इसलिए हमने इसे इंडियन ओशन का नाम दिया.
दरअसल, मार्केटिंग के लोगों को बास्केट की ज़रूरत होती है. विदेशी लोग क्योंकि इस तरह का संगीत नहीं समझते इसलिए वे इसे वर्ल्ड म्यूज़िक कहते हैं.
सुष्मित: चार-पाँच साल पहले बीबीसी टेलीविज़न ने हम पर 12-15 मिनट की डॉक्यूमेंटरी बनाई थी. हमें पता भी नहीं चला था. जब हम लंदन पहुंचे तो लोगों से हमें इसकी जानकारी मिली. बीबीसी ने डॉक्यूमेंटरी में बताया कि विश्व में भारत की पहचान सिर्फ़ लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत से थी. पहली बार कुछ अलग तरह का संगीत भारत से दुनिया के सामने आया था और यही हमारी पहचान बन गई.
अशीम: भारत में जितने भी संगीतकार हैं, वो तमाम तरह के संगीत सुनते हैं. जिसकी परवरिश जिस माहौल में हुई है, वो उस तरह का संगीत सुनता है. हज़ारों भजन, ग़जल और न जाने क्या-क्या.
बैंड को बने 18 साल हो चुके हैं और इस दौरान इसमें सिर्फ़ दो ऐसे लोग जुड़े जो फिर हटे नहीं
मैंने सुना है कि आपके शुरुआती संगीत में वाद्य यंत्रों का ज़्यादा ज़ोर रहता था. गायिकी आप लोगों ने बाद में शुरू की. ऐसा क्यों?
सुष्मित: ये बहुत अच्छा सवाल है. दरअसल, बैंड मेरे कंपोजिशन से शुरू हुआ था. मैं गाता नहीं हूँ. मैं तो सिर्फ़ गिटार बजाता था. पहले एलबम में सिर्फ़ 40 सेकंड का वोकल था. अशीम ने भट्यारी गाया था. इसके बाद दूसरी एलबम में भी बहुत से गाने इंस्ट्रूमेंटल थे. फिर धीरे-धीरे इसमें गायिकी को शामिल किया गया. 'कंदीसा' एलबम में वोकल की मात्रा बढ़ गई थी. लेकिन मैं आपको बताना चाहूँगा कि हम जब कोई कंपोजिशन बनाते हैं तो इसमें बोल नहीं होते. अगर हमें धुन सही लगती है तभी हम अपने साथी गीतकार संजीव शर्मा से कहते हैं कि इस धुन के लिए बोल चाहिए. तो कमोबेश ढाँचा अब भी संगीत पर ही केंद्रित है.
अशीम: देखिए मेरा मत इसमें थोड़ा अलग है. मैं आज तक वोकल और इंस्ट्रूमेंटल में अंतर नहीं कर पाया. मुझे लगता है कि इनमें कुछ फ़र्क नहीं है. सब कुछ संगीत ही तो है. कुछ लोग 10 मिनट बात करते हैं और बोर हो जाते हैं. कुछ थोड़ा बोलते हैं और माहौल में मिठास घुल जाती है. कोई गिटार बजाता है तो मुझे लगता है कि वो मन में ज़रूर गाता है.
सुष्मित: मैंने स्कूल, कॉलेज में गाने गाकर कई पुरस्कार भी जीते, लेकिन जब बैंड शुरू हुआ और हम गाने लगे तो मैंने महसूस किया कि बैंड में शामिल बाक़ी तीन लोगों की पिच मुझसे तीन-चार गुना ज़्यादा है. मैं उनके सुर में नहीं गा सकता था. इसलिए मैंने बैंड में गाने को छोड़ गिटार पर ध्यान दिया.
वोकल में भी काफ़ी प्रयोग होता है. तो क्या इसे सोच समझकर डाला जाता है?
अशीम: ईमानदारी से कहूँ तो इसे बहुत सोच समझकर नहीं डाला जाता. मैं श्लोक इसलिए डालता हूँ क्योंकि मैं ही श्लोक जानता हूँ. मैं श्लोक पाठ अलग तरह से करता था. वैदिक श्लोक मैं बचपन से ही दूसरे तरीक़े से गाता था. मगर मैंने इन्हें अपने बैंड में इस्तेमाल किया.
हमारे बैंड की यही ख़ासियत है कि कभी अचानक कुछ बज जाता है. कोई कुछ गा लेता है. कुछ भी तयशुदा नहीं होता. हमने कई राग गाए हैं और कमाल की बात है कि ये हमें लोग बताते हैं, आपने अमुक राग गाया है. तो कहना चाहूँगा कि नई चीज़ें हमें मिलती रहती हैं.
अशीम: हाँ. मेहनत तो काफ़ी दिनों से कर रहे हैं, लेकिन मैं इसे संघर्ष नहीं कहूँगा. जिस काम में मज़ा आ रहा है उसे संघर्ष कैसे कह सकते हैं. 20 साल पहले की बात करें तो मैं विज्ञापन एजेंसी में क्रिएटिव डायरेक्टर था. नौकरी करता ज़रूर था, लेकिन नौकरी सिर्फ़ पैसे के लिए. दिल-दिमाग कहीं और होता था. तब यही सोचता रहता था कि कब राहुल, अमित और सुष्मित के साथ गाने बजाएँगे.
सुष्मित: मैं मैनेजमेंट में था और मेरा स्पेशलाइजेशन मार्केटिंग और सेल्स में था. मैंने 10 साल तक नौकरी की. 1993 में हमारा पहला एलबम निकला और 1994 में मैंने नौकरी छोड़ दी.
इंडी पॉप और रिमिक्स के बारे में आप क्या सोचते हैं?
सुष्मित: देखिए. रिमिक्स में सबसे बुरा लगता है इसका श्रेय खुद लेना. एसडी बर्मन, सलिल चौधरी के गानों को तोड़फोड़ और कुछ जोड़कर आप इसका श्रेय खुद ले लेते हैं. अच्छी बात ये है कि जो कुछ पुराने गाने हैं और लोग उन्हें कुछ-कुछ भूल गए थे, उन्हें नई पैकेजिंग के साथ पेश करना अच्छा है.
अशीम: इस बारे में मेरा मानना है कि रिमिक्स करने में कोई बुराई नहीं है. इसे रोका भी नहीं जा सकता. कई लोग इसे पसंद भी करते हैं. वैसे भी संगीत किसी की निजी संपत्ति तो है नहीं, हर किसी का इस पर हक है. लेकिन अगर जाने-माने संगीतकारों के गानों का रिमिक्स किया जाता है तो दोनों तरह के गाने लोगों को सुनाए जाने चाहिए. और हाँ, श्रेय उसको मिलना चाहिए जो इसका हकदार है. ऐसा नहीं है कि रिमिक्स ख़राब ही हो, वो अच्छा भी हो सकता है.
इनका मानना है कि रिमिक्स में कोई बुराई नहीं है लेकिन असल श्रेय मूल रचनाकार को जाता है
अशीम आप कह रहे हैं, आप श्लोक जानते हैं तो क्या आप आध्यात्म के ज़्यादा नज़दीक रहे हैं?
अशीम: मैं श्लोक जानता हूँ, इसलिए आध्यात्म के नज़दीक हूँ, ऐसा मैं नहीं मानता. जो श्लोक नहीं जानता, वो मुझसे कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक हो सकते हैं. मुझे लगता है कि हम चारों का आध्यात्म से कुछ न कुछ नाता ज़रूर है. हमारे गानों में भी काफ़ी आध्यात्म है.
आपकी जो क्रिएटिविटी है उसके लिए क्या कुछ ख़ास करते हैं?
सुष्मित: जिस दिन ये पता चल जाएगा, उस दिन पूरी किताब लिख दूंगा.
अशीम: इसका जवाब बहुत मुश्किल है. मुझे लगता है कि जो हमें सोच-समझकर या योजना बनाकर करना पड़े, वो क्रिएटिविटी हो ही नहीं सकती. जैसे मैंने एक दिन अजय चक्रवर्ती से पूछा कि आपका गाना सुनकर मैं मोहित हो जाता हूँ, इतना अच्छा कैसे गा लेते हैं, क्या ये सब रियाज़ का नतीजा है. उनका जवाब था- मैं संगीत करता नहीं हूं, ये अंदर से आता है.
सुष्मित: यहाँ मैं एक और रोचक किस्सा सुनाना चाहता हूँ. बेग़म अख़्तर से एक बार एक पत्रकार ने पूछा था कि आप इतना सिगरेट पीती हैं, क्या आपका गला ख़राब नहीं होता. बेग़म ने जवाब दिया-आज मैं पहली बार सुन रही हूँ कि मैं गले से गाती हूँ. मैं तो अंदर से गाती हूँ.
लेकिन जब किसी ख़ास कार्यक्रम के लिए समय सीमा होती है तो उस वक़्त आप क्या महसूस करते हैं?
अशीम: बाद में जब फ़िल्म वालों के साथ हमारा नाता जुड़ा तो हम टेलर की तरह हो गए हैं. मतलब आपको कपड़ा दिया जाता है जिसे आपको जल्द से जल्द सिलना है. इससे पहले मध्यप्रदेश सरकार से एक निमंत्रण मिला था. खजुराहो महोत्सव के लिए हमें एक गाना गाना था. तब हमें लगा था कि हमें गाना बनाने के लिए ऑर्डर मिला है. वहाँ कहा जा सकता है कि हमने सोच-समझकर गाना गाया था.
सुष्मित: देखिए, अपवाद हर कहीं होते हैं. क्रिएटिविटी और एप्लीकेशन में महीन सा अंतर है. लेकिन अगर आप क्रिएटिव हैं तो आप इसे आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं.
अच्छा सुष्मित आपको फ़िल्मी संगीत कैसा लगता है?
सुष्मित: देखिए साफ़ कहूँ तो अपने हिसाब से संगीत बनाने का मज़ा और कहीं नहीं मिल सकता. अधिकांश फ़िल्म निर्देशक जब हमारे पास आते हैं तो उनके पास अपना आइडिया होता है. आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन एक डायरेक्टर के लिए हमारे एक दोस्त ने 100-110 गाने बनाए थे, वो भी सिर्फ़ एक सिचुएशन के लिए. लेकिन कुछ ऐसे भी निर्देशक हैं जो हमें पूरी छूट देते हैं कि कहानी ये है, आप सही गाना तैयार करें.
सुष्मित: मुझे एआर रहमान बहुत पसंद हैं. उनके अलावा सलिल चौधरी को भी काफ़ी पसंद करता हूँ. उन्होंने बांग्ला में कई बेहतरीन धुनें दी. उस जमाने में अलग-अलग फॉर्मेट में धुनें तैयार करना शानदार है.
आपने बैंड में किसी लड़की को शामिल नहीं किया?
अशीम: नहीं ऐसी बात नहीं है. हमारे बैंड में एक लड़की भी आई थी, सावन दत्ता. की-बोर्ड बजाती थी. लेकिन छह महीने बाद वो बैंड छोड़कर चली गई. इस क्षेत्र में बहुत धैर्य चाहिए. कुछ लोग सिर्फ़ इसलिए बैंड में आ जाते हैं कि बैंड का काफ़ी नाम है.
आप लोग 21 साल से साथ हैं. मतभेदों के बावजूद एक साथ बने रहना चुनौती रही?
अशीम: मुझे लगता है कि क्रिएटिव लोग काफ़ी हताश होते हैं. फिर चाहे वो चित्रकार हों, संगीतकार हों या फिर खिलाड़ी. पूरा गेमप्लान तैयार करना, ये भी क्रिएटिविटी है.
सुष्मित: लेकिन ये हताशा मनोबल गिराने वाली नहीं होती. ऐसी नहीं कि सब कुछ बंद कर देते हैं. जैसे मेरे दिमाग में है कि मुझे इंस्ट्रूमेंटल धुन बनानी है तो मैं वो करूँगा, लेकिन ऐसा नहीं कि मैं इंडियन ओशन बंद कर दूंगा.
आपके ग्रुप का अगले 10-20 सालों का क्या एजेंडा है?
सुष्मित: मैंने जिस दिन मैनेजमेंट छोड़ा था, उस दिन से अपने भविष्य का विश्लेषण करना छोड़ दिया. 10-20 साल तो दूर, कल क्या होने वाला है, कोई जानता है क्या.
अशीम: ये सवाल हमें कई लोगों ने पूछा. ईमानदारी से कहूँ तो हमारे पास इसका जवाब नहीं है. हमें लग रहा है कि हमारी गंगा बह रही है तो फिर इसे क्या छेड़ना, बहने दो.