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हिंदी-उर्दू का संगम है दक्खिनी बोली
ललित मोहन जोशी, वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक
लंदन से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
दक्षिण भारत के कई राज्यों में आम जनता जो बोली बोलती है उसे दक्खिनी के नाम से जाना जाता है.
इस बोली पर लंदन में भारतीय उच्चायोग के सांस्कृतिक स्थल, नेहरु केंद्र में तीन दिन का एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया गया जिसमें भारत, अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, इटली और कई अन्य यूरोपीय राष्ट्रों के भाषाविद, प्रोफेसर और दक्खिनी भाषा के जानकार 30 से अधिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया.
' दक्खिनी अ कॉमन फाउंडेशन ऑफ़ उर्दू ऐंड हिंदी ' विचारगोष्ठी के प्रमुख संयोजक डॉ ज़ियाउद्दीन शक़ेब का कहना था कि दक्खिनी पर किसी भी मुल्क में आयोजित होने वाली यह पहली इतनी बड़ी संगोष्ठी थी जिसमें दक्खिनी भाषा के उदगम, विकास और इसके अस्तित्व के मौजूदा संकट के सभी पहलुओं पर गहराई से विचार किया गया.
इस गोष्ठी के प्रमुख वक्ता गोपी चन्द नारंग ने कहा कि इस सेमिनार का मकसद था उर्दू और हिंदी दोनों अपनी जड़ो की ओर देखें.
उनका कहना था, " हिंदी और उर्दू दोनों का आधार एक है. दोनों का जो बुनियादी ढांचा और व्याकरण है जिसपर दोनों भाषाएं टिकी हैं, चाहे वो मानक हिंदी हो या उर्दू हो, खड़ी बोली है".
"खड़ी बोली की शुरूआत चौदहवी और पंद्रहवी सदी में अमीर खुसरो और कबीर जैसे सूफी संतो से हुई जिन्होंने ऐसी भाषा की तलाश की जो सरल हो और सभी समुदायों को जोड़ सके. उस समय इसका नाम न उर्दू था न हिंदी. यही भाषा उत्तर भारत से दकन पहूची जहाँ यह कालांतर में दक्खिनी बनी ".
डॉ ज़ियाउद्दीन शक़ेब का कहना था कि दक्खिनी आज भी आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु और कर्नाटक में आम आदमी की बोली है जिसने हिंदुस्तान की कई ज़ुबानों को अपने में समेटा है. ये मेलजोल, मिलावट और मोहब्बत की ज़ुबान है.
मौजूदा हिंदी और उर्दू का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि " कोई भी ज़ुबान जो अपने दरवाज़े बंद कर लेती है और शुद्ध या ख़ालिस रहना चाहती है, तरक़्क़ी नहीं कर सकती, मर जाती है. हर जुबान को अपने दरवाज़े खोलने चाहिये. हिंदी और उर्दू दोनों दक्खिनी की दो बेटियां हैं औरदोनों को अपनी मां से सबक़ लेना चाहिये".
दक्खिनी के विशेषज्ञ व स्कूल ऑफ ओरिएण्टल एंड अफ्रीकन स्टडीज (सोआस) के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर, डॉ डेविड मैथ्यूज़ ने कहा कि दक्खिनी का विकास 14वीं और 17वीं शताब्दी के बीच हुआ, जिसका अपना काव्य और साहित्य है पर ये दुखद है कि आज़ादी के बाद उसके विकास की उपेक्षा हुई है. शोध के लिहाज़ से भी आज उस पर ज़्यादा काम नहीं हो रहा है.
भारतीय फ़िल्मों में दक्खिनी का सबसे सार्थक इस्तेमाल करने वाले सिनेकार श्याम बेनेगल का कहना है कि दक्खिनी दरअसल उर्दू की बुनियाद है. दक्खिनी सही मायने में एक हिन्दोस्तानी ज़ुबान है जिसने संस्कृत, बृज, खड़ी बोली, फ़ारसी, मराठी व कई स्थानीय भाषाओं से अपने को सींचा है.
उन्होंने कहा, " कथानक के लिहाज़ से अगर मैं अंकुर (1973), निशांत (1975), कंडूरा (1977) और मंडी (1983) में दक्खिनी को अभिव्यक्ति का माध्यम न बनाता तो ये निश्चित है कि ये फ़िल्में उतनी सार्थक न होतीं". श्याम बेनेगल की नवीनतम फ़िल्म वेलडन अब्बा भी दक्खिनी में है.
ब्रिटन में बसे हिंदी साहित्यकार डॉ. गौतम सचदेव ने अपने पत्र में कहा कि आधुनिक हिन्दी दक्खिनी से प्रेरणा लेकर अपने प्रयोग के क्षेत्र और अपनी शैलियों को विकसित कर सकती है और भारत के ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों द्बारा अपनाई जाने योग्य हो सकती है.
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