twitter
    For Quick Alerts
    ALLOW NOTIFICATIONS  
    For Daily Alerts

    भारतीय सिनेमा में वामपंथी विचारधारा

    By Staff
    |
    भारतीय सिनेमा में वामपंथी विचारधारा

    परंतु थोड़ा गहराई में उतरने पर दिखाई देने लगता है कि किस प्रकार इन फ़िल्मों ने अपनी व्यावसायिक सीमाओं मे रहते हुए सामाजिक संदेश पहुँचाने का काम भी किया है.

    लंदन से प्रकाशित होने वाले फ़िल्म पत्र, 'साउथ एशियन सिनेमा' का नया विशेषांक आप को भारतीय सिनेमा की गहराई में उतार कर इन फ़िल्मों में घुली वामपंथी विचारधारा से आपका परिचय कराता है.

    वामपंथी सिनेकार मृणाल सेन को समर्पित 196 पृष्ठों के इस पुस्तकाकार विशेषांक का शीर्षक है – भारतीय सिनेमा में वामपंथी विचारधारा और इसका प्राक्कथन अडूर गोपालकृष्णन ने लिखा है जिन्हें सत्यजित राय के बाद भारत का सबसे सशक्त फ़िल्मकार माना जाता है.

    वामपंथ और भारतीय समाज

    अपने प्राक्कथन में अडूर लिखते हैं, "भारत के किसी भी उल्लेखनीय सिनेकार का नाम लें, उसकी पहचान सामाजिक न्याय के लिए समर्पित कलाकार की होगी."

    यही प्रतिबद्धता समाजवाद की आत्मा है और भारतीय सिनेमा में इसी की छाया देखी जा सकती है. वहीं, प्रोफ़ेसर सतीश बहादुर और श्यामला वनारसे अपने लेख में उन विसंगतियों पर प्रकाश डालते हैं जिनके कारण "वामपंथी विचारधारा भारतीय समाज के स्वभाव और सोच से मेल नहीं खा पाती."

    भारत के वामपंथी आंदोलन के संस्कृति कर्मी और नेता कुछ अपवादों को छोड़ कर सर्वहारा वर्ग के न होकर ज़मींदार मध्यम वर्ग के थे पार्थ चटर्जी, फ़िल्म आलोचक

    भारत के वामपंथी आंदोलन के संस्कृति कर्मी और नेता कुछ अपवादों को छोड़ कर सर्वहारा वर्ग के न होकर ज़मींदार मध्यम वर्ग के थे

    मसलन, वामपंथ भौतिकतावादी है जब कि भारतीय सोच अध्यात्मवादी. वामपंथ वर्ग संघर्ष में विश्वास रखता है, जबकि भारतीय समाज वर्ण-व्यवस्था से बंधा है. वामपंथ तार्किकतावादी है जबकि भारतीय समाज कर्मवाद और भाग्यवाद में विश्वास रखता है.

    इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर भारतीय सिनेमा में जिस वामपंथी विचारधारा के दर्शन होते हैं वह साम्यवादी देशों में पाई जाने वाली क्रांतिकारी संकीर्ण राजनीतिक विचारधारा न होकर सामाजिक न्याय की हिमायत करने वाली विचारधारा है.

    पीके नायर ने अपने लेख में दादा साहब फाल्के की मूक फ़िल्मों से लेकर नए दौर के सिनेमा और समांतर सिनेमा के युगों से होते हुए जॉन अब्राहम की मलयाली फ़िल्म 'अम्मा अरियल' (1984) तक इसी उदार वामपंथी विचारधारा के विकास की यात्रा करवाई है. इसमें समाज सुधार, भूमि सुधार, गाँधीवादी दर्शन और सामाजिक न्याय सभी कुछ शामिल है. गिरीश कर्नाड ललित मोहन जोशी को दिए इंटरव्यू में इसे "गाँधी प्रेरित आदर्शवाद" की संज्ञा देते हैं.

    भारतीय वामपंथ का चरित्र

    भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) जैसी वामपंथी संस्थाओं ने सिनेमा में वामपंथी विचारों की जगह बनाए रखने में बड़ी अहम भूमिका निभाई है.

    किताब का विमोचन फ़िल्मकार सईद मिर्ज़ा ने किया

    रश्मि दोरइस्वामी के लेख में इसी संस्था से जुड़े वामपंथी निर्देशकों, अभिनेताओं संगीतकारों और गीतकारों के योगदान का आकलन किया गया है.

    जन नाट्य संघ से जुड़े फ़िल्मकारों की फ़िल्में बहुत लोकप्रिय नहीं हो पाईं क्योंकि पीके नायर के अनुसार, "वे कला की दृष्टि से कमज़ोर थीं. लेकिन ये फ़िल्मकार कई बड़े फ़िल्मकारों पर अपनी विचारधारा की छाप छोड़ने में ज़रूर कामयाब हुए."

    भारतीय सिनेमा पर धुर वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व स्थापित न हो पाने का दूसरा कारण भारत की वामपंथी राजनीति के चरित्र में ढूँढा जा सकता है. पार्थ चटर्जी ने अपने लेख में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है, "भारत के वामपंथी आंदोलन के संस्कृति कर्मी और नेता कुछ अपवादों को छोड़ कर सर्वहारा वर्ग के न होकर ज़मींदार मध्यम वर्ग के थे."

    गिरीश कर्नाड तो यहाँ तक कह जाते हैं, "सत्तर के दशक का समांतर सिनेमा, जिसमें वामपंथी विचारधारा अधिक मुखरित हुई, मसाला फ़िल्मों के दीवाने शहरी सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ मध्यम वर्ग के सांस्कृतिक आंदोलन का ही परिणाम है. श्याम बेनेगल हों या बिमल राय, उनका वामपंथ मध्यमवर्गीय वामपंथ है."

    पलायनवाद की ओर बढ़ता सिनेमा

    चिंता की बात यह है कि आजकल यही शहरी मध्यम वर्ग सपनीले पात्रों और परिवेश से भरपूर मँहगी और मनोरंजक फ़िल्मों को चाहने लगा है. अब प्रवासी भारतीय दर्शक भी इस वर्ग में आ जुड़े हैं और फ़िल्में वास्तविकता से दूर होकर पलायनवादी प्रवृत्ति की ओर बढ़ती जा रही हैं. श्याम बेनेगल और गिरीश कर्नाड ने अपने इंटरव्यू में इस रुझान पर चिंता तो प्रकट की हैं लेकिन कोई समाधान नहीं सुझाया.

    "वे कला की दृष्टि से कमज़ोर थीं. लेकिन ये फ़िल्मकार कई बड़े फ़िल्मकारों पर अपनी विचारधारा की छाप छोड़ने में ज़रूर कामयाब हुए पीके नायर, फ़िल्म आलोचक

    "वे कला की दृष्टि से कमज़ोर थीं. लेकिन ये फ़िल्मकार कई बड़े फ़िल्मकारों पर अपनी विचारधारा की छाप छोड़ने में ज़रूर कामयाब हुए

    साउथ एशियन सिनेमा के इस विशेषांक में मलयाली, बंगाली और तमिल सिनेमा समेत भारतीय सिनेमा पर वामपंथी विचारधारा का आकलन करने वाले आठ शोधपरक लेख हैं, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, श्याम बेनेगल, सईद अख़्तर मिर्ज़ा और गिरीश कर्नाड के इंटरव्यू हैं और ऋत्विक घटक एवं मृणाल सेन के शिल्प पर विशेष आलेख हैं.

    इनमें से मलयाली सिनेमा पर सीएस वेंकटेश्वरन, वामपंथी विचारधारा पर प्रोफ़ेसर सतीश बहादुर और अडूर की फ़िल्म मुखामुखम् पर सुरंजन गांगुली के लेख और श्याम बेनेगल व गिरीश कर्नाड के इंटरव्यू सबसे अधिक प्रभावित करते हैं.

    यह विशेषांक एक ओर जहाँ भारतीय सिनेमा में मनोरंजन की चकाचौंध के पीछे छुपे प्रगतिशील और वामपंथी विचारों पर सोचने को विवश करता है वहीं जानने की उत्सुकता भी जगाता है कि सिनेमा के माध्यम से दिए गए इन संदेशों का समाज पर कितना और क्या असर हुआ होगा. ख़ासकर यह जानते हुए कि सिनेमा अब संस्कृति का सबसे प्रबल संवाहक बन चुका है.

    साहिर और शैलेन्द्र जैसे वामपंथी गीतकारों के गीतों ने हिंदी फ़िल्मों में सामाजिक संदेश के प्रकाश स्तंभों की भूमिका निभाई है. इसलिए विशेषांक में उनके कुछ प्रतिनिधि गीतों के अंग्रेज़ी काव्यानुवाद को जगह देना सही है लेकिन उनके साथ उनके संदर्भ की व्याख्या का न होना थोड़ा अखरता है.

    कुल मिलाकर कहना होगा कि संपादक ललित मोहन जोशी ने गागर मे सागर भरने का प्रयास किया है और इसमें वे काफ़ी हद तक सफल रहे हैं.

    तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
    Enable
    x
    Notification Settings X
    Time Settings
    Done
    Clear Notification X
    Do you want to clear all the notifications from your inbox?
    Settings X
    X