twitter
    For Quick Alerts
    ALLOW NOTIFICATIONS  
    For Daily Alerts

    एक किताबघर का जाना...

    By अरविंद दास
    |

    बुकवर्म के मालिक अनिल अरोड़ा कहते हैं कि किताबों में लोगों की रुचि पिछले कुछ वर्षों में कम हुई है
    तीस वर्ष पुराने इस किताबघर में सत्यजीत राय, अमिताभ घोष, सुनील गावस्कर और प्रकाश करात जैसी शख़्सियतें और देश-विदेश के किताबी कीड़े आते रहे हैं.

    दिल्ली में इस दुकान की एक ख़ास पहचान रही है. जैसे छोटे शहरों और क़स्बों की दुकानों से आपका एक निजी रिश्ता रहता है उसी तरह ग्राहकों के साथ इस दुकान का भी एक निजी संबंध रहा है.

    ऐसा नहीं कि कनॉट प्लेस में किताबों की और दुकानें नहीं हैं, पर साहित्य, कला, संस्कृति और अकादमिक जगत की किताबों का जैसा संग्रह यहाँ मिलता था वैसा दिल्ली में अब इक्की-दुक्की दुकानों पर ही मिलता है.

    दिल्ली और इसके आस-पास हाल के वर्षों में 'मॉल संस्कृति' ख़ूब पनपी है जहाँ किताब की दुकानें भी काफ़ी नज़र आने लगी हैं.

    पहले की तुलना में हाल के वर्षों में लोगों की रुचि इन किताबों में नहीं रही. अब उतना फ़ायदा नहीं होता जितना होना चाहिए. साथ ही बाज़ार में नकली और सस्ती किताबें मौजूद है, फिर क्यों कोई अपना पैसा बर्बाद करेगा
    लेकिन मॉल में वही किताबें मिलती है जिनकी बिक्री से बहुत फ़ायदा हो या जिन्हें लेकर मीडिया में काफ़ी चर्चा हो रही हो. वहाँ कॉफ़ी टेबल' को सज़ाने वाली किताबें आसानी से मिल जाती हैं पर अकादमिक रुचि या साहित्य की किसी दुर्लभ किताब को ढूँढ़ना बेहद मुश्किल है.

    किताबों में घटती रुचि

    ऐसे में इस किताबघर का बंद होना मायूस करता है.

    मायूस बुकवर्म के मालिक अनिल अरोड़ा भी हैं. अपने पुस्तक प्रेम के कारण इन्होंने अपने पुश्तैनी शराब के व्यवसाय को छोड़ कर किताबों के बीच अपनी जवानी गुज़ारी.

    लेकिन वे कहते हैं कि अब बहुत हो गया, कुछ भी करुँगा किताब का व्यवसाय नहीं करुँगा.

    वे कहते हैं, "पहले की तुलना में हाल के वर्षों में लोगों की रुचि इन किताबों में नहीं रही. अब उतना फ़ायदा नहीं होता जितना होना चाहिए. साथ ही बाज़ार में नकली और सस्ती किताबें मौजूद है, फिर क्यों कोई अपना पैसा बर्बाद करेगा."

    हाल के वर्षों में मॉल में किताब की कई दुकानें खुली हैं

    उनका कहना ग़लत भी नहीं है. अरुंधति राय की 'द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स' की क़ीमत दुकान में क़रीब तीन सौ रुपए है. दुकान के ठीक बाहर फ़ुटपाथ पर मोल-भाव करने पर वही 'नक़ली किताब' सौ रुपए में मिल रही है.

    अनिल कहते हैं कि मॉल में बड़े व्यावसायियों की दुकानों में किताबों की बिक्री हो न हो उन्हें बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन उन जैसे स्वतंत्र दुकानदारों को इससे बहुत फ़र्क़ पड़ता है.

    दिल्ली भले ही राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र हो लेकिन यह साहित्य-संस्कृति की भी नगरी है. ऐसे में बुकवर्म का जाना हमारे समय में शहर की बदल रही संस्कृति पर भी एक टिप्पणी है.

    दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पिछले तीस वर्षों से किताब की दुकान चलाने वाले अशोक मजुमदार कहते हैं, "अब छात्रों और यहाँ तक की शिक्षकों में भी पुस्तकों को लेकर वह उत्सुकता और उत्कंठा नहीं दिखती जो 10-20 वर्ष पहले तक थी."

    कमी खलेगी

    दो तल्लों में फैली बुकवर्म में मौजूद क़रीब 20 हज़ार किताबों पर आज-कल भारी छूट है. इससे पहले इस दुकान में ऐसा कभी नहीं हुआ. छपे हुए दामों पर ही यहाँ किताबें मिलती रही है.

    इस किताबघर के बंद होने से दुकान के पुराने ग्राहक काफ़ी दुखी है. अनिल अरोड़ा कहते हैं, "यह ख़बर सुन कर की जुलाई के आख़िर तक यह दुकान बंद हो जाएगी लोग महज़ अपना दुख व्यक्त करने आ रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि वे किसी सगे-संबंधी के गुज़र जाने पर शोक व्यक्त करने आ रहे हों."

    पिछले बीस वर्षों से इस दुकान में आने वाले आस्ट्रेलिया के रिचर्डस कहते हैं, "मुझे काफ़ी बुरा लग रहा है. जब जब मैं दिल्ली आता हूँ यहाँ ज़रुर आता हूँ. इस दुकान की कमी मुझे बहुत खलेगी"

    पिछले दशकों में भारत में उभरे नए मध्यम वर्ग के पास जिस अनुपात में शिक्षा और पैसा बढ़ा है उसी अनुपात में पढ़ने की फ़ुरसत भी कम हुई है.

    किताबों के बजाय अब लोग अपना समय इंटरनेट, टेलीविज़न देखने या सैर-सपाटे में गुज़ारना पसंद करते हैं.

    'आज की, कल की और आने वाले कल की' बात करती नोम चोमस्की, कामू, और अरुंधति राय की किताबें 'बुकवर्म' में उदास पड़ी है.

    दुकान न हो तो इन लेखकों को अपना पाठक कैसे मिलेगा? फिर ये किताबें किस से बातें करेंगी?

    तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
    Enable
    x
    Notification Settings X
    Time Settings
    Done
    Clear Notification X
    Do you want to clear all the notifications from your inbox?
    Settings X
    X