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    भूपिंदरः जब पहले गाने का बुलावा आया, मुंबई जाने के लिए पैसे नहीं थे

    By Bbc Hindi
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    'मेरा बस चले तो मैं भूपिंदर की आवाज़ का ताबीज़ बनाकर पहन लूँ.'

    यह बात आज के दौर के सबसे बेहतरीन गीतकार गुलज़ार ने अनोखे गायक भूपिंदर के बारे में एक बार कही थी.

    आज वही खूबसूरत आवाज़ खामोश हो गई. लेकिन खामोश होने से पहले इस आवाज़ ने इतने शानदार गीत, नग़मे नज़्म और ग़ज़ल दिए हैं, जिन्हें याद कर ज़माना भूपिंदर पर फ़ख़्र करेगा.

    दिल ढूँढता है फिर वही, एक अकेला इस शहर में, कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता और करोगे याद तो हर बात याद आएगी, जैसे कितने ही कालजयी गीत गाने वाले भूपिंदर की जोड़ी गुलज़ार के साथ तो खूब जमी.

    तभी गुलज़ार सरीखे गीतकार भूपिंदर की आवाज़ के साथ उनकी बनाई धुनों के भी कायल थे.

    गुलज़ार के लिखे गीतों को भूपिंदर ने फिल्मों में ही नहीं 'अक्सर' जैसे कुछ म्यूज़िक अल्बम में भी आवाज़ दी, जिसमें भूपिंदर की पत्नी मिताली के सुरों का जादू भी मिलता है.

    गुलज़ार के साथ तो भूपिंदर का 40 से अधिक बरसों तक लंबा साथ रहा. यह संबंध कितना मज़बूत था, उसकी मिसाल इनके अल्बम 'दिल पीर से' भी मिलती है, जिसमें भूपिंदर के पुत्र अमनदीप ने भी गुलज़ार के लिखे गीत को अपने पिता के संगीत निर्देशन में गाया है.

    एक दौर था जब भूपिंदर-मिताली की जोड़ी ने अपनी सुरमई आवाज़ में गायी ग़ज़लों से दुनिया को दीवाना कर दिया था. जगजीत सिंह-चित्रा सिंह के बाद भूपिंदर-मिताली की जोड़ी गज़लों की दुनिया की सबसे लोकप्रिय जोड़ी बन गई थी.

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    एक टीवी कार्यक्रम में भूपिंदर को बांग्लादेश मूल की मिताली को सुना तो उन्हें वह बहुत अच्छी लगीं. फिर दोनों ने 1983 में शादी कर ली.

    अपने 48 साल के करियर में करीब 350 गीत गा चुके भूपिंदर फिल्म जगत में भूपी के नाम से मशहूर थे. हालांकि पिछले कुछ समय से खराब सेहत के कारण वह गीत-संगीत की दुनिया से कुछ दूर थे. लेकिन 18 जुलाई शाम को उनके निधन के समाचार से उनके प्रशंसक दुखी हो गए.

    भूपिंदर का जन्म 6 फरवरी 1940 को अमृतसर में हुआ था. इनके पिता नाथा सिंह,अमृतसर के खालसा कॉलेज में संगीत के प्रोफेसर थे. इसलिए भूपिंदर को संगीत विरासत में मिला. इनके पिता ही इनके पहले संगीत गुरु रहे. जिनके घर में संगीत के कितने ही साज सजे रहते थे.

    भूपिंदर अपनी मुलाकातों में बताते थे, 'घर में एक से एक साज था सितार, सारंगी, दिलरुबा, हारमोनियम, ढोलक, तबला सभी कुछ.'

    'पिताजी शुरू में जब खेलने की जगह ये साज़ बजाने का अभ्यास करने को कहते थे तो बुरा लगता था. लेकिन धीरे धीरे यह सब अच्छा लगने लगा. इतना अच्छा कि मैं 7 साल की उम्र में ही कम्पोज़र बन गया.'

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    भूपिंदर सिंह और मिताली सिंह
    AFP via Getty Images
    भूपिंदर सिंह और मिताली सिंह

    बहन ने अपनी गुल्लक से दिया मुंबई का किराया

    भूपिंदर बचपन में ही परिवार के साथ अमृतसर से दिल्ली आ गए थे. यहाँ ही उनकी पढ़ाई हुई. इसी दौरान भूपी वायलिन बजाने में इतने पारंगत हो गए कि इन्हें आकाशवाणी के संगीतकर सतीश भाटिया ने 150 रुपए के पारिश्रमिक पर वायलिन वादक के रूप में काम दे दिया.

    भूपिंदर आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वायलिन बजाने के साथ दोस्तों की महफिल में गीत भी गाते रहते थे.

    बात 1962 की है. जब एक दिन सुप्रसिद्ध फिल्म संगीतकार मदन मोहन दिल्ली आए.

    आकाशवाणी के संगीत कार्यक्रमों के निर्माता सतीश भाटिया ने मदन जी का एक कार्यक्रम रेडियो पर तो रखा ही. साथ ही उनके लिए अपने घर पर रात्रि भोज का आयोजन भी किया.

    संगीत से जुड़े कई लोग एक जगह जमा हों तो संगीत की महफिल तो जमनी ही थी. कई बरस पहले भूपिंदर ने अपनी एक मुलाक़ात के दौरान बताया था, 'मैंने भी तब मदन साहब को वायलिन बजाकर सुनाया. लेकिन तभी सतीश जी ने मुझसे कहा, अपनी कोई ग़ज़ल भी सुनाओ.'

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    भूपिंदर सिंह
    SUJIT JAISWAL/AFP via Getty Images
    भूपिंदर सिंह

    'मैं यह सुनकर कुछ घबरा सा गया. इसके लिए मैं तैयार नहीं था. फिर भी मैंने हिम्मत करके जफ़र की एक ग़ज़ल सुनाई तो उन्होंने ग़ज़ल सुनकर मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए कहा, बहुत अच्छा. हालांकि मैंने सोचा पता नहीं उन्हें सच में मेरी आवाज़ अच्छी लगी या बस मेरा दिल रखने के लिए कह दिया.'

    इस घटना के एक साल बाद मदन मोहन ने भूपिंदर को तार भेजकर मुंबई आकर उनकी फिल्म 'हक़ीक़त' में एक गीत गाने को कहा. भूपिंदर अपने लिए फिल्मों में गाने का मौका पाकर खुशी से उछल गए. लेकिन समस्या यह थी कि उनके पास मुंबई जाने का किराया तक नहीं था.

    बकौल भूपी, उन्होंने इस सिलसिले में अपने कुछ दोस्तों से भी बात की. लेकिन कोई भी किराया देने को तैयार नहीं हुआ. भूपिंदर निराश हो गए. लेकिन तभी भूपेंद्र की छोटी बहन ने अपने भाई के सामने अपनी गुल्लक लाकर रख दी. उस गुल्लक को तोड़ने से जो रुपए निकले उसी से भूपी ने मुंबई का टिकट कटाया.

    सन 1963 में मुंबई की धरती पर पहला क़दम रखते ही, भूपिंदर को फ़िल्मकार चेतन आनंद की फिल्म 'हक़ीक़त' में गाने का पहला मौका मिल गया. हालांकि यह एक सामूहिक गीत था. लेकिन बड़ी बात यह थी कि अपने पहले गीत को वह जहां मदन मोहन जैसे शिखर के संगीतकार के साथ गा रहे थे. वहाँ उनके साथ रफी, तलत महमूद और मन्ना डे जैसे गायक भी थे.

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    भूपिंदर के लिए रफ़ी ने स्टूल पर खड़े होकर गाया

    भूपिंदर का यह पहला गीत था- 'हो के मजबूर उसने बुलाया होगा', जो फिल्म का सुपर हिट गीत बन गया था. लेकिन इसके साथ एक दिलचस्प किस्सा भी है.

    भूपिंदर ने बताया था, "जब मैं मुंबई के स्टूडियो पहुंचा तो वहाँ का माहौल देखकर कुछ डर सा गया. इतने सारे साज़- साज़िंदे एक साथ मैंने पहले कभी नहीं देखे थे. फिर रफी, मन्ना डे और तलत जैसे बड़े गायकों को एक साथ अपने सामने देख मेरे पसीने छूट गए थे."

    "मेरी यह हालत रफ़ी साहब ने देखी तो वह मुझसे बोले बरखुरदार घबराओ नहीं. यह लो पहले चाय पियो. यह कहकर अपने थर्मस से उन्होंने मुझे गरमा गरम बादाम चाय पिलाई. इससे मेरी हिम्मत बंध गयी. उसके बाद मैंने वह गीत मज़े मज़े में गाया."

    मैं रफ़ी साहब की उस मदद को भूल नहीं सकता. इससे ज्यादा मदद उनकी यह भी थी कि मुझे उनके साथ एक ही माइक में गाना था. लेकिन मैं रफ़ी साहब से कद में लंबा था. इस समस्या को हल करने के लिए रफ़ी साहब को एक लकड़ी का छोटा स्टूल दिया गया. तब रफी साहब ने मेरी खातिर उस स्टूल पर खड़े होकर वह गीत गाया.'

    चेतन आनंद बनाना चाहते थे हीरो

    भूपिंदर का व्यक्तित्व उस समय इतना आकर्षक था कि दिल्ली के दिनों से वह अपनी नशीली आँखों के लिए मशहूर थे. आकाशवाणी में यह बात अक्सर सुर्ख़ियों में रहती थी कि उनकी आँखों को देख बहुत सी लड़कियां उनकी दीवानी रहती थीं.

    गायक उदित नारायण कहते हैं, "मैं अपने संघर्ष के दिनों में भूपिंदर जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित था. उनकी मौलिक आवाज़ उनकी बड़ी पहचान बनी, वैसी आवाज़ किसी और की नहीं हुई. वह अच्छे गायक के साथ अच्छे इंसान भी थे. इन सबके साथ उनका शानदार व्यक्तित्व सभी का दिल मोह लेता था."

    बहरहाल, मुंबई में चेतन आनंद को भी उनका व्यक्तित्व इतना अच्छा लगा कि उन्होंने अपनी फिल्म 'आख़िरी खत' में भूपी को हीरो लेने का मन बना लिया. चेतन ने उनसे कहा, 'यह फिल्म मैंने तुमको देखकर ही लिखी है.

    चेतन का यह प्रस्ताव सुन भूपी इतना घबरा गए कि वह दिल्ली भाग आए. तब चेतन आनंद ने इस फिल्म में एक नए लड़के राजेश खन्ना को हीरो लिया. यह फिल्म चल निकली.

    ज़रा सोचिए यदि भूपी यह फिल्म कर लेते तो राजेश खन्ना को यह फ़िल्म नहीं मिलती. इधर यह भी संयोग है कि राजेश खन्ना का निधन भी 10 साल पहले 18 जुलाई को हुआ था. उधर भूपी ने भी 18 जुलाई को ही दुनिया को अलविदा कहा.

    उधर फिर भी चेतन ने भूपी को वापस मुंबई बुलाकर अपनी इस फिल्म में एक गीत गाने को कहा. यही गीत भूपिंदर का फिल्मों में गाया पहला सोलो सॉन्ग था. खय्याम के संगीत निर्देशन में वह गीत था, 'रूत है जवां, जवां'. लेकिन चेतन ने भूपिंदर को पर्दे पर पेश करने के अपने इरादे को कुछ हद तक तो पूरा कर लिया. इस गीत को पर्दे पर चेतन ने भूपिंदर पर ही फिल्माया.

    आरडी बर्मन
    BBC
    आरडी बर्मन

    आर डी बर्मन ने बदली ज़िंदगी

    फिल्मों में पहला ब्रेक चाहे उन्हें मदन मोहन ने दिया लेकिन उनकी ज़िंदगी बदली आरडी बर्मन ने. असल में जब फिल्मों में भूपिंदर को गाने के अवसर ज़्यादा नहीं मिले तो वह फिर से दिल्ली लौट गए.

    तभी कुछ दोस्तों की सलाह पर 1965 में वह फिर मुंबई आए. सोचा गायन ना सही तो वाद्य यंत्र बजाने का काम मिल जाएगा. भूपी हवाइन गिटार तो पहले से ही बजाते थे. लेकिन फिल्मों में स्पैनिश गिटार का इस्तेमाल ज्यादा होता था.

    भूपी ने स्पैनिश गिटार सीख ली. तभी 1969 में किसी ने उन्हें आरडी बर्मन से मिलवा दिया. आर डी को भूपी इतने पसंद आए कि दोनों की पहली मुलाक़ात में ही दोस्ती हो गयी.

    दोनों का यह साथ खूब चला. आरडी बर्मन, भूपी की गिटार के इतने दीवाने से थे कि उन्होंने कितनी ही फिल्मों में उनसे गिटार बजवाकर उनके ज़िंदगी तो बदली ही. साथ ही भूपी के गिटार के कारण उनकी कम्पोजिंग भी लोकप्रियता के नए शिखर पर पहुँच गईं.

    फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' की 'दम मारो दम' के साथ बजती दिलकश गिटार हो या फिर 'यादों की बारात' के सुपर हिट गीत 'चुरा लिया है तुमने' की मदहोश कर देने वाली गिटार. यहाँ तक 'शोले' फिल्म के 'महबूबा महबूबा' गीत पर पंचम ने अपनी आवाज़ के साथ भूपी की गिटार का इस्तेमाल करके धूम मचा दी थी.

    इतना ही नहीं आर डी ने भूपिंदर से अपने संगीत में कुछ ऐसे गीत गवाए भी जो अमर हो गए हैं. जिसकी शुरुआत 1972 में फिल्म 'परिचय' के गीत 'बीती ना बिताए रैना' से हुई.

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    PICTURE AND KRAFT
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    'मौसम' और 'घरौंदा' से मिली बड़ी सफलता

    गायक के रूप में कुछ सफलताएँ मिलने पर भूपिंदर ने गिटार बजाना छोड़ अपना सारा फोकस पार्श्व गायन पर कर दिया. 'घरौंदा' और 'मौसम' जैसी फिल्मों के गीतों ने भूपेंद्र को फिल्म दुनिया का एक सफल और लोकप्रिय गायक बना दिया.

    फिल्म 'घरौंदा' में गाए भूपी के गीत 'एक अकेला इस शहर में' और 'मौसम' का गीत 'दिल ढूंढता है' तो भूपिंदर के सिग्नेचर सॉन्गस बन चुके हैं. दोनों गीत गुलज़ार के हैं.

    'दिल ढूँढता है' गीत के लिए मदन मोहन ने कुल 8 धुनें बनायीं थीं. लेकिन पसंद वही धुन आई जिस पर भूपिंदर ने गाया.

    इनके अलावा 'नाम गुम जाएगा', 'हुज़ूर इस कद्र भी ना इतराके चलिये', 'ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना ज़िंदगी' और 'किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है', जैसे भूपिंदर के गीत सदाबहार बन चुके हैं. जो भुलाने से भी भुलाए नहीं जा सकेंगे.

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    English summary
    Bhupinder Singh dint have fare expenses to reach Mumbai after he signed first song.
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