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    'मंदी नहीं, ये बॉलीवुड बूम का दौर है'

    By Staff
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    'मंदी नहीं, ये बॉलीवुड बूम का दौर है'

    उन्होंने कहा कि पिछले सौ वर्षों के दौरान बॉलीवुड और भारतीय सिनेमा के मार्केट में सुधार का प्रतिशत कभी भी इतना ऊपर नहीं रहा जितना कि पिछले कुछ वर्षों में शुरू हुआ है और अभी भी जारी है.

    साल बीतने के क़रीब है और दिल्ली में एक शाम ऐसे ही कई सवालों पर हमने श्याम बेनेगल के बातचीत की.

    पढ़िए इस बातचीत के कुछ अंश--

    बेनेगल साहब, इतने लंबे अर्से से आप इंडस्ट्री में हैं. एक साल और बीत गया इंडस्ट्री का. चारों ओर आर्थिक संकट का रोना है. ऐसे में कैसा रहा वर्ष 2008 बॉलीवुड या भारतीय सिनेमा जगत के लिए?

    इस वर्ष ही नहीं, पिछले चार पाँच वर्षों के दौरान जिस तेज़ी से भारतीय सिनेमा जगत में विस्तार और प्रगति जारी है, वो अभूतपूर्व है. 15-22 प्रतिशत की दर से सिनेमा पैर पसार रहा है. और यह भी देखिए कि कितनी बड़ी तादाद में फ़िल्में बन रही हैं.

    ऐसा इससे पहले भारतीय सिनेमा जगत में पहले कभी नहीं हुआ. पिछले 100 बरसों का हाल देखें और औसत निकालें तो वृद्धि की दर 3-6 प्रतिशत के बीच रही है.

    सिनेमा में स्क्रीन बढ़ी हैं. देश में मल्टीप्लैक्स क्रांति आ गई है और कई शहरों में इससे सिनेमा देखने और दिखाने की स्थिति बेहतर और बड़ी हुई है.

    तो क्या आर्थिक मंदी या आर्थिक संकट के दौर से भारतीय मनोरंजन जगत साफ़ बच निकला है?

    मैं ऐसा नहीं कह रहा. आर्थिक संकट का असर होगा पर कम होगा. जो चीज़ प्रभावित होगी वो छोटा पर्दा यानी टेलीविज़न है. इसकी वजह यह है कि टेलीविज़न प्रायोजकों के सहारे चलता है.

    श्याम बेनेगल अपनी फ़िल्मों की विषयवस्तु और शैली के लिए जाने जाते हैं

    वैसे मंदी के दौरों का इतिहास देखिए तो पता चलेगा कि सिनेमा इससे कम ही प्रभावित हुआ है. हां सिनेमा के लिए इस बार सिनेमाहॉल के अलावा दूसरे चरण का कारोबार यानी डीवीडी, टेलीविज़न पर फ़िल्म प्रसारण जैसी चीज़ों पर कुछ असर ज़रूर पड़ेगा आर्थिक मंदी का.

    क्या कभी ऐसा संदेह पैदा नहीं होता कि आर्थिक बूम की कहानी कह रही अर्थव्यवस्थाएं जिस तरह से धराशायी हो रही हैं, वैसा ख़तरा बॉलीवुड बूम या भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री की बहुत तेज़ रफ़्तार तरक्की के साथ भी पैदा हो सकता है.

    मैं ऐसा इसलिए नहीं मानता क्योंकि जिस तरह से कार्पोरेट कल्चर को सिनेमा इंडस्ट्री ने अपनाया है, उससे एक तरह का आर्थिक अनुशासन भी पैदा हुआ है और साथ ही काम में भी एक अनुशासन देखने को मिल रहा है. यह एक महत्वपूर्ण बात है.

    हालांकि जहाँ इसका फ़ायदा है वहीं दूसरी ओर इसका कुछ नुकसान भी हो सकता है. ख़तरा एक बात को लेकर है कि सृजनात्मकता या रचनात्मक काम समय और आदेश के मुताबिक नहीं चलते. वो आर्डर देकर केक बनाने जैसा मामला नहीं है न.

    पर हॉलीवुड का कार्पोरेटीकरण तो कबका हो चुका है. फिर भी वहाँ स्वतंत्र रूप से भी फ़िल्में बनाने वाले हैं. यहाँ के नई पीढ़ी के फ़िल्मकारों से भी अपेक्षा की जा सकती है कि वे स्वतंत्र रूप से भी काम करें.

    पर सवाल अगर कितना मनोरंजन और कैसा मनोरंजन परोसने का उठे तो...

    मनोरंजन तो एक असीम चीज़ है. इसपर निर्भर करता है कि कितना मनोरंजन उपलब्ध कराया जा रहा है और लोग क्या देखना चाहते हैं. इसका तालमेल बहुत अहम है. इसके हिसाब से बदलाव भी लाते रहने होंगे.

    अब देखिए, इसी वर्ष कितनी सारी फ़िल्में फ़्लॉप हो गईं. यह संकेत है कि नए विचारों, आइडिया की इंडस्ट्री को ज़रूरत है.

    बेनेगल साहब, 70 और 80 के दशक में आप लोगों ने समानांतर सिनेमा को जिस तरह से खड़ा किया, क्या आज स्वतंत्र स्तर पर हो रहे नए प्रयोगों, नए निर्देशकों, नई कहानियों और ट्रीटमेंट को देखकर वो वापस आता नज़र आता है?

    मैं समझता हूँ कि किसी भी दौर को पिछले किसी दौर से तुलना करके देखना ग़लत है. इतिहास ख़ुद को दोहराएगा- यह अपेक्षा न रखें.

    श्याम बेनेगल की ताज़ा फ़िल्म वेलकम टू सज्जनपुर को कुछ आलोचना भी मिली है

    फ़िल्म निर्माण की पूरी शैली में बदलाव आए हैं. कई अहम चीज़ें अब बदल चुकी हैं. तकनीक काफी आगे निकल गई है और बदल गई है. नई पीढ़ी बहुत कुछ नया सीख-समझकर आ रही है.

    मुझे जिन तकनीकी चीज़ों को समझने के लिए वापस स्कूल जाना पड़ेगा, फ़िल्म बनाने की उन्हीं बातों पर आज की पीढ़ी के फ़िल्मकार खड़े हैं और उसे बखूबी समझते हैं.

    सिनेमा तैयार करने का व्याकरण बदल चुका है. नई पीढ़ी इस व्याकरण को जानती है, हमें इसे सीखना पड़ रहा है.

    '...सज्जनपुर' के बाद अपने दर्शकों को कहाँ ले जाने की तैयारी कर रहे हैं आप?

    वेलकम टू सज्जनपुर के बाद फिलहाल एक और कॉमेडी फ़िल्म पर काम कर रहा हूं. वैसे प्रोजेक्ट और भी हैं जिनपर काम हो रहा है.

    पर कुछ समीक्षकों ने ...सज्जनपुर में आपके द्वारा दिखाई गई भारतीय गाँव की तस्वीर को लेकर आपकी आलोचना भी की है. यह भी कहा है कि सार्थक फ़िल्में बनाने वाला निर्देशक बाज़ार के दबाव में है.

    नहीं, ऐसा नहीं है. मुझे लगता है कि मुद्दे तो आज भी वही हैं. बस उनको देखने-दिखाने के नज़रिए में बदलाव आया है.

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