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‘जिस लाहौर नहीं देख्या’
ममता गुप्ता
बीबीसी संवाददाता, लंदन
हिन्दी के नाटककारों में असग़र वजाहत का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. पिछले दिनों उनके चर्चित नाटक ‘जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जनम्याई नई’ का अमरीका में मंचन हुआ. यह नाटक अमरीका के अलावा कराची, सिडनी और दुबई में भी खेला जा चुका है.
नाटक के मंचन के बीस साल पूरे होने के उपलक्ष्य में लंदन के नेहरू सैंटर में भी असग़र वजाहत के सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ. असग़र वजाहत दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ैसर हैं. ममता गुप्ता ने उन्हे बुश हाउस आमन्त्रित किया और बातचीत की....
अमरीका में आपके नाटक का मंचन किसने किया.
जिस ग्रूप ने इसे बीस साल पहले किया था लगभग उन्ही कलाकारों के साथ इसे कैनेडी सैंटर में खेला गया. इसके दो शो हुए और हाउस फ़ुल रहा जो इस बात का संकेत है कि हिंदी रंगमच भारत से बाहर भी जड़े जमा रहा है.
ये नाटक बहुत से देशों में खेला जा चुका है. वो क्या ख़ासियत है जो सबको आकर्षित करती है.
मैं समझता हूं कि ये बहुत बड़ी समस्याओं को बहुत ही सहज और मानवीय ढंग से प्रस्तुत करता है.
इस नाटक का कथानक क्या है.
विभाजन के बाद एक परिवार लखनऊ से लाहौर जाता है. शरणार्थी शिविर में रहने के बाद उसे एक बड़ा मकान ऐलॉट होता है. लेकिन जब वो वहां पहुंचते हैं तो देखते हैं कि एक बूढ़ी औरत रह गई है. उन्हे लगता है कि जब तक ये रहेगी मकान हमारा नहीं हो सकता. वो बूढ़ी औरत भी चाहती है कि ये लोग चले जाएं. तो नाटक एक संघर्ष की स्थिति से शुरु होता है.
लेकिन ये बूढी औरत स्वभाव से बड़ी मददगार है और धीरे धीरे दोनों के बीच एक रिश्ता बनने लगता है.
जब शहर के गुंडो को पता चलता है तो कि हिन्दू बुढ़िया रह गई है तो उनकी कोशिश होती है कि उसे निकालें. लेकिन वही परिवार उसे बचाता है.
बाद में जब वो मरती है तो सवाल उठता है कि इसका क्रिया कर्म कैसे किया जाए. स्थानीय मौलवी की राय पर उसका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से किया जाता है. उसके शव को राम नाम सत्त कहते हुए ले जाते हैं और रावी के किनारे जला देते हैं. इसकी प्रतिक्रिया में शहर के गुंडे मौलवी की हत्या कर देते हैं.
इस नाटक का सबसे पहले मंचन कब और कहां हुआ.
दिल्ली के श्रीराम सैंटर ने हबीब तन्वीर को उनकी रैपर्टरी कम्पनी के साथ कोई नाटक करने के लिए बुलाया. उनके पास जिन नाटकों की पांडुलिपियां थी उनमें ये भी था. उन्होने इसे चुना और रैपर्टरी ने इस नाटक के सैकड़ों शो किए. फिर इसका और कई जगह मंचन हुआ. ख़ालिद अहमद ने इसे कराची में खेला.
इस नाटक को लिखने की प्रेरणा आपको कैसे मिली.
दिल्ली में मेरे एक पत्रकार दोस्त हैं संतोष कुमार. वो विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आए थे. उन्होने एक किताब लिखी 'लाहौर नामा' जिसमें एक बूढ़ी औरत का ज़िक्र था जो लाहौर में ही रह गई थी और भारत नहीं आ पाई थी. इस विचार को लेकर मैंने आगे का ताना बाना बुना और धीरे-धीरे बहुत से रोचक पात्र निकलकर सामने आए.
यह नाटक दो बातों पर टिका है एक है क्रॉस कल्चरल समझ यानि लखनऊ का परिवार पंजाब की औरत से इंटरैक्शन करता है. दोनों एक दूसरे की भाषा नहीं समझते हैं लेकिन भावनाएं भाषा की सीमाएं तोड़ देती हैं.
दूसरी बात धार्मिक सहिष्णुता की है. वास्तव में हर धर्म सिखाता है कि दूसरे का सम्मान करो और अच्छे संबंध बनाओ. पाकिस्तान में जब ये नाटक खेला गया था तो उसकी समीक्षा छपी थी जिसमें लिखा था कि इस नाटक का महत्व ही ये है कि यह धार्मिक सहिष्णुता का संदेश देता है.
लेकिन पाकिस्तान में तो इस नाटक के मंचन पर प्रतिबंध है.
जी हां ये वहां नहीं हो सकता है. हालांकि दर्शकों को, प्रसार माध्यमों और प्रैस को यह नाटक पसंद आया था लेकिन पुलिस को नहीं. पुलिस कमिश्नर ने निर्देशक को इसका ये कारण बताया था कि नाटक में मौलवी की हत्या हो जाती है. मेरे ख़्याल में वो इसे समझ नहीं पाए. उन्हे लगा कि ये इस्लाम पर कोई आक्षेप है या इस्लाम को नीचा दिखाने की कोशिश है. और उनकी दूसरी आपत्ति ये थी कि यह भारतीय लेखक का नाटक है.
आप दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी के प्राध्यापक हैं. हिन्दी से लगाव कैसे हुआ.
मैं विज्ञान का छात्र था लेकिन मेरी दिलचस्पी साहित्य में थी. मैं कहानियां और कविताएं लिखने लगा. मेरा माध्यम शुरु से ही हिन्दी था. जब एम ए करने की बारी आई तो अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में तीन भाषाओं में एम ए किया जा सकता था. मैंने हिन्दी को इसलिए चुना क्योंकि यह ज्यादा लोगों की भाषा है. मैं ज़्यादा लोगों से जुड़ना चाहता था. मैं एक बड़ा पाठक वर्ग चाहता था और ऐसी भाषा जिससे देश के सुदूर हिस्सों में पहुंचा जा सके.
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