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मोहम्मद रफ़ी जिन्हें हिंदी फ़िल्म जगत का 'तानसेन' तक कहा गया
रफ़ी सही मायनों में एक संपूर्ण गायक थे. उनके तरकश में शास्त्रीय संगीत, रोमाँटिक गाने, दुखी गाने, ख़ुशी वाले पेपी गाने, देशभक्ति वाले गीत, रॉक एंड रोल, डिस्को नंबर्स, भजन, शबद, कव्वाली, नातिया कलाम क्या-क्या तीर नहीं थे ! रफ़ी ने 14 भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी में भी दो गाने गाए थे.
साठ के दशक में वो जब मॉरीशस गए थे तो वहाँ उन्होंने क्रियोल में भी एक गाना गाया था. वर्ष 1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो रफ़ी ने भारत में ही रहने का फ़ैसला किया. रफ़ी को बंबई में सबसे पहले ब्रेक दिया था संगीतकार नौशाद ने.
70
के
दशक
में
नौशाद
ने
एक
रेडियो
इंटरव्यू
में
कहा
था,
"मैंने
बड़े
से
बड़े
गायक
को
सुरों
से
हटते
हुए
देखा
है.
एक
तन्हा
मोहम्मद
रफ़ी
है
जिनको
कभी
सुरों
से
हटते
हुए
नहीं
देखा."
इन दोनों ने कुल 41 फ़िल्मों में एक साथ काम किया. एक बार एक दूसरे रेडियो इंटरव्यू में नौशाद से पूछा गया अगर आपको अपनी ज़िदगी की सबसे अच्छी संगीत रचना करनी हो तो आप क्या करेंगे?
नौशाद का जवाब था, "रफ़ी और मैं हमेशा एक हुआ करते थे. उनके जाने के बाद मैं सिर्फ़ 50 फ़ीसदी बचा रह गया हूँ. मैं अल्लाह से दुआ माँगूँगा कि वो रफ़ी को इस दुनिया में सिर्फ़ एक घंटे के लिए दोबारा भेज दे ताकि मैं अपनी बेहतरीन संगीत रचना कर सकूँ."
'सुनो सुनो ए दुनिया वालों'
जब भारत विभाजन के सदमे से उबर ही रहा था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी. इस मौके पर राजेंद्र कृष्ण के लिखे गीत 'सुनो सुनो ए दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी' को हुस्नराम भगत राम ने संगीत में ढाला था और उसको स्वर दिया था मोहम्मद रफ़ी ने.
इस गीत को सुनने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ख़ासतौर से मोहम्मद रफ़ी को दिल्ली में अपने निवास स्थान पर आमंत्रित किया था. गीत सुनकर नेहरू की आँखों मं आँसू आ गए थे.
भारत की आज़ादी की पहली वर्षगाँठ पर नेहरू नें रफ़ी को चाँदी का एक मेडल भेंट किया था. सिर्फ़ 24 साल के मोहम्मद रफ़ी के लिए ये एक बहुत बड़ा सम्मान था. उस गीत को पूरे भारत में बहुत सराहा गया और मोहम्मद रफ़ी की ज़िदगी पहले जैसी न रही.
ओपी नैयर से तनातनी
नौशाद के अलावा मोहम्मद रफ़ी के सबसे करीबी संगीतकार थे ओपी नैयर. नैयर साहब समय के बहुत पाबंद थे. वो 9 बजकर 10 मिनट पर अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो का दरवाज़ा बंद कर दिया करते थे. उसके बाद किसी को अंदर नहीं आने दिया जाता था.
आकाशवाणी के पूर्व अनाउंसर किशन शर्मा अक्सर रफ़ी के साथ लाइव संगीत समारोहों में जाया करते थे. किशन शर्मा याद करते हैं, "रफ़ी साहब भी समय के बहुत पाबंद थे. एक बार उन्हें आने में एक घंटे की देरी हो गई. आते ही उन्होंने माफ़ी माँगते हुए कहा, 'मैं शंकर जयकिशन की रिकॉर्डिंग में फंस गया था.'"
नैयर ने तुनक कर जवाब दिया, "आपके पास शंकर जयकिशन के लिए समय था, ओपी नैयर के लिए नहीं. आज से ओपी नैयर के पास रफ़ी के लिए समय नहीं रहेगा." रिकॉर्डिंग रद्द कर दी गई और अकाउंटेंट से कहा गया कि वो रफ़ी का हिसाब कर दें.
इसके
बाद
एक
पत्रकार
ने
पूरे
मामले
को
तूल
देने
के
इरादे
से
मोहम्मद
रफ़ी
से
कहा
नैयर
आपके
साथ
इतनी
बेइज़्ज़ती
से
कैसे
पेश
आ
सकते
थे?
रफ़ी
ने
विनम्रतापूर्वक
जवाब
दिया,
"मैं
ग़लत
था.
नैयर
साहब
सही
थे."
तीन साल बाद रफ़ी नैयर के घर आए. नैयर ने अपने सबसे पसंदीदा गायक से कहा, "रफी यहाँ आकर तुमने सिद्ध किया है कि तुम ओपी से कहीं बेहतर इंसान हो. तुमने अपने अहम पर काबू पा लिया जो मैं नहीं कर सका.''
मोहम्मद रफ़ी और एसडी बर्मन की जुगलबंदी
मोहम्मद रफ़ी ने एसडी बर्मन के लिए भी काफ़ी लोकप्रिय गीत गाए. वर्ष 1958 में कालापानी फ़िल्म के लिए गाए उनके गीत 'हम बेख़ुदी में' को काफ़ी प्रसिद्धि मिली.
राजू भारतन अपनी किताब 'अ जर्नी डाउन मेमोरी लेन' में लिखते हैं, "'हम बेख़ुदी में' की धुन बर्मन दादा ने मुसलमानों के एक धार्मिक गीत 'आल-ए- रसूल में जो मुसलमाँ हो गए' की धुन पर बनाई थी. ये धुन मस्जिदों में पढ़ी जाने वाली अज़ान से बहुत कुछ मिलती थी. उन्होंने पहले इसका बंगाली अनुवाद कर अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कर कलकत्ता के सुनने वालों के बीच आज़माया. फिर मजरूह सुल्तानपुरी ने इसके आधार पर एक गीत लिखा जिसके बोल थे 'हम बेख़ुदी में तुम को पुकारे चले गए.''
वर्ष 1971 में आई 'गेंबलर' फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी के गाए गाने 'मेरा मन तेरा प्यासा' के बारे में भी एक किस्सा मशहूर है. राजू भारतन लिखते हैं, "जब रफ़ी इस गाने की फ़ाइनल रिहर्सल के लिए एसडी बर्मन के घर पहुंचे तो बर्मन ने उनसे कहा, आप हर गाने के लिए कितनी तैयारी करके आते हैं. इस पर रफ़ी ने कहा कि आप मेरी कार में बैठिए. हम महालक्ष्मी की फ़ेमस लैब में जाकर इस गाने को रिकॉर्ड कर लेते हैं. लेकिन बर्मन ने कहा मैं आपकी कार में नहीं आप मेरी कार में स्टूडियो में जाएंगे."
"इसका कारण बाद में पता चला कि बर्मन नहीं चाहते थे कि वो रफ़ी को उनके ड्राइवर के सामने गाने से संबंधित कोई हिदायत दें. फ़ेमस स्टूडियो जाने के दौरान रफ़ी ने बर्मन की कार में इतना अच्छा रिहर्सल किया कि उन्होंने पहले टेक में ही 'मेरा नाम तेरा प्यासा गीत' को ओके कर दिया."
लता मंगेशकर से लड़ाई और फिर सुलह
रफ़ी लता मंगेशकर को अपनी बहन की तरह मानते थे. एक बार एक इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने कहा था, "उन्होंने एक बार किसी को मुझे उर्दू सिखाने के लिए भेजा था. उनकी वजह से ही मैं उर्दू बोलना सीख पाई जो साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी, नक्श लायलपुरी और राजेंदर कृष्ण के गीतों को गाने के लिए ज़रूरी था."
60 के दशक में रॉयल्टी के मुद्दे पर रफ़ी और लता मंगेशकर में मतभेद पैदा हो गए और दोनों ने साथ गाना छोड़ दिया. सचिनदेव बर्मन की कोशिशों से इन दोनों के बीच सुलह हुई. नरगिस ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई.
सुजाता देव मोहम्मद रफ़ी की जीवनी, 'मोहम्मद रफ़ी गोल्डन वॉएस ऑफ़ द सिल्वर स्क्रीन' में लिखती हैं, "1967 में बंबई के शणमुखानंदहॉल में सचिनदेव बर्मन नाइट का आयोजन किया गया था. इस समारोह में सभी गायकों, लता, आशा, मुकेश, रफ़ी और मन्ना डे को अपने अपने सोलो गीत गाने थे. समारोह की एंकरिंग नरगिस और मदनमोहन कर रहे थे. इन दोनों ने अचानक अनाउंस किया, 'अब आपके सामने एक बहुत बड़ा सरप्राइज़ आने वाला है.' तभी मंच के एक ओर से रफ़ी और दूसरी तरफ़ से लता ने प्रवेश किया. उसके बाद तालियों का जो शोर हुआ उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. दोनों के बीच चार सालों का मौन उस दिन 'ज्वेल थीफ़' के गाने 'दिल पुकारे आ रे' से टूटा."
बाद में लता ने एक इंटरव्यू में कहा, "रफ़ी साहब कमाल के गायक थे. बेहद सुरीले और उतने ही भाव प्रवण. मुझे उनके गाए गीतों में हम दोनों, तेरे घर के सामने और गाइड के गीत बहुत पसंद हैं." रवींद्र जैन ने उनके बारे मे एक बार कहा था, "मोहम्मद रफ़ी भारतीय फ़िल्म जगत के तानसेन हैं."
रफ़ी ने किशोर के लिए गाए गीत
मोहम्मद रफ़ी भारत में ही नहीं शायद विश्व में अकेले गायक थे जिन्होंने एक दूसरे प्ले बैक सिंगर को अपने स्वर दिए हैं. दो फ़िल्मों 'रागिनी' और 'शरारत' में उन्होंने किशोर कुमार के लिए गाने गाए.
गीतकार सुधाकर शर्मा जिन्होंने किशोर कुमार के साथ काम किया है वो बताते हैं, "70 के दशक में किशोर कुमार आमतौर से एक दिन में दो या तीन गाने रिकॉर्ड करते थे लेकिन जिस दिन उन्हें रफ़ी के साथ गाना होता था वो पूरा दिन उस गाने के लिए रखते थे. उनको पता था कि रफ़ी 'परफ़ेक्शनिस्ट' हैं और उन्हें अंतिम रिकॉर्डिंग से पहले घंटों अभ्यास करना पड़ेगा. रिकॉर्डिंग के दौरान किशोर एक के बाद एक चुटकुले सुनाते रहते थे जब कि रफ़ी मुस्कुरा कर उनका आनंद लेते थे. किशोर कुमार ने 1982 में एक फ़िल्म 'चलती का नाम ज़िंदगी' बनाई थी. इस फ़िल्म में एक कव्वाली थी जिसे गाने के लिए किशोर कुमार ने मोहम्मद रफ़ी को आमंत्रित किया था."
मशहूर गायक शैलेंद्र सिंह याद करते हैं, "एक शो के दौरान जिसमें रफ़ी और किशोर दोनों भाग ले रहे थे, किसी फ़ैन ने किशोर कुमार से ऑटोग्राफ़ देने का अनुरोध किया. किशोर ने रफ़ी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, 'अरे मेरे से क्यों ऑटोग्राफ़ ले रहे हो बंधु, संगीत तो उधर है.' उन शो के दौरान किशोर रफ़ी के कुछ गाने गाते थे और बहुत आदरपूर्वक कहते थे, 'मेरे पास रफ़ी साहब जैसी आवाज़ तो नहीं है पर फिर भी मैं उनके कुछ गाने पेश करना चाहूँगा.'"
अंग्रेज़ी में ऑटोग्राफ़ देना नहीं आता था रफ़ी को
बहुत से लोगों को ये जान कर हैरानी होगी कि मोहम्मद रफ़ी को ऑटोग्राफ़ साइन करना नहीं आता था. महेंद्र कपूर के बेटे रुहान कपूर याद करते हैं, "एक बार रफ़ी साहब और मेरे पिता ऑल इंडिया रेडियो से लौट रहे थे. कुछ लोगों ने रफ़ी साहब को पहचान लिया और उनसे ऑटोग्राफ़ माँगने लगे. उन्होंने मेरे पिता से पंजाबी में पूछा, 'की माँगरे ने?' मेरे पिता ने जवाब दिया उन्हें आपके दस्तख़त चाहिए. रफ़ी साहब तपाक से बोले, 'तू कर दे.'"
वास्तव में तब तक रफ़ी साहब को अंग्रेज़ी में दस्तख़त करना नहीं आता था. जैसे जैसे वो मशहूर होते गए उन्होंने दस्तख़त करने का बाकायदा अभ्यास किया ताकि वो अपने प्रशंसकों को निराश न करें.
उनके बेटे शाहिद रफ़ी भी बताते हैं, "वो दस्तख़त के अभ्यास के लिए बहुत सारे काग़ज़ बरबाद कर देते थे. लेकिन जब वो दस्तख़त करने में पारंगत हो गई तो एक पत्रकार ने उनके दस्तख़त की तारीफ़ करते हुए कहा था कि पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री में उनके दस्तख़त सबसे सुंदर हैं."
पतंग उड़ाने का शौक
रफ़ी का सबसे प्रिय शौक था पतंग उड़ाना. उनकी पतंगें काले रंग की हुआ करती थीं. हवा में उड़ती हुई काली पतंग इस बात का संकेत होती थी कि रफ़ी अपने घर की छत पर पतंग उड़ा रहे हैं. वो अपनी पतंग के लिए माँझा पंजाब से मंगवाते थे. पतंग उड़ाने की बात आती थी तो हमेशा मृदु भाषी रहने वाले रफ़ी प्रतिस्पर्धी हो जाते थे. उनको किसी से भी अपनी पतंग कटवाना कतई पसंद नहीं था.
रफ़ी के जीवन का एक हंसमुख पहलू भी हुआ करता था जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था. मोहम्मद रफ़ी के साथ कई शो करने वाली कृष्णा मुखर्जी बताती हैं, "रफ़ी स्टेज पर जाने से पहले अपना चाँदी का कंघा निकालते थे और अपने गंजे सिर पर फिराते हुए शरारती ढंग से मुस्कुराते थे. इसके बाद वो ठंडे दूध का एक गिलास पीते थे. स्टेज पर उनकी ऊर्जा देखते ही बनती थी. कई बार वो बीच शो में अपना हारमोनियम छोड़ कर लेज़ली से ड्रम स्टिक छीन कर ड्रम बजाने लगते थे. डुएट गाने के दौरान जब मेरी बारी आती थी तो वो कोहनी मार कर मुझे गाने का इशारा करते थे. उनकी इन अदाओं पर दर्शक पागल हो उठते थे."
कैरम खेलने और दूध पीने के शौकीन
अपने खाली समय में मोहम्मद रफी मेहदी हसन और ग़ुलाम अली की गज़ले सुनते थे. उनके बेटे शाहिद रफ़ी बताते हैं, "संडे को बच्चों के साथ कैरम और बैडमिंटन खेला करते थे. उनको बॉक्सिंग मैच देखने का भी बहुत शौक था. अब्बा खाने के शौकीन थे और अक्सर लोगों को खाने पर बुलाया करते थे. उन्हें अम्मी के हाथ का बनाया खाना बहुत पसंद था."
"अगर वो बीमार भी रहती थीं तो रफ़ी साहब के लिए कम से कम एक व्यंजन तो बनाती ही थीं. बाकी खाना हमारे ख़ानसामा ख़लील भाई बनाते थे. अब्बा की चाय बहुत ख़ास होती थी. सुबह ही सुबह अम्मी अब्बा की चाय के लिए दूध में बादाम, लौंग और दालचीनी उबाल लेती थीं और चार या पाँच थर्मस फ़्लास्क भर कर उन के लिए चाय बनाती थीं. ये थर्मस उनके साथ स्टूडियो जाते थे. वो सिर्फ़ घर पर बनी चाय ही पीते थे."
एक ठेठ पंजाबी की तरह उन्हें दूध पीना बहुत पसंद था. अक्सर जब उनकी कोई रिकॉर्डिंग नहीं होती थी तो वो लॉन में बैठते थे. जब दूधवाला दूध लाता था तो वो दो बोतल दूध बाहर ही पी जाते थे. दूधवाला तब हमारी अम्मी से शिकायत करता था कि उसका दूध कम पड़ गया है.
हॉल में सो जाने की आदत
मोहम्मद रफ़ी को हॉलीवुड की वेस्टर्नर्स फ़िल्में देखने का शौक था. उनकी पसंदीदा फ़िल्म थी 'द मेगनिफ़िसेंट सेवेन.' मोहम्मद रफ़ी की बहू यासमीन ख़ालिद रफ़ी अपनी किताब 'मोहम्मद रफ़ी माई अब्बा, अ मेमॉएर' में लिखती हैं, "जब भी वो कोई हॉलीवुड फ़िल्म देखने बैठते थे उनके बच्चे फ़िल्म की कहानी उन्हें पहले से ही बता देते थे. जैसे जैसे फ़िल्म चलती जाती थी, वो उनके डॉयलॉग का अनुवाद भी उनके लिए करते जाते थे. पीटर सेलर्स उनके पसंदीदा अभिनेता थे. उनकी फ़िल्म 'द पार्टी' उन्हें बेहद पसंद थी. कभी कभी वो हॉल में भी फ़िल्म देखने जाते थे. लेकिन फ़िल्म शुरू होने के कुछ मिनटों के अंदर उन्हें नींद आ जाती थी."
सिर्फ़ 55 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहा
31 जुलाई, 1980 को मोहम्मद रफ़ी को दिल का दौरा पड़ा. उनकी पत्नी बिलकीस ने नोट किया कि उनकी उंगलियाँ नीली पड़ रही हैं. तुरंत डॉक्टर चंद्रिरामणि को बुलाया गया.
उन्होंने जब उनकी जाँच की तो पता चला कि रफ़ी का ब्लड प्रेशर बहुत ऊपर है और वो पसीने से तरबतर हैं. कुछ ही मिनटों में अस्पताल से एंबुलेंस आ गई लेकिन रफ़ी ने ज़ोर दिया कि वो अपनी फ़ियेट से ही अस्पताल जाएंगे. उनको नैशनल हॉस्पिटल के आईसीयू में भर्ती कराया गया.
लेकिन वहाँ पर पेसमेकर की व्यवस्था नहीं थी. इसलिए उन्हें बॉम्बे अस्पताल में शिफ़्ट किया गया. वहाँ पर डॉक्टरों ने सवा घंटे तक चले ऑपरेशन के बाद उनके शरीर में पेसमेकर लगाया. जब रफ़ी को होश आया तो उन्होंने अपने शरीर में लगे तमाम पाइप्स और ऑक्सीजन ड्रिप को हटाने की कोशिश की. जब उनकी बेटी नसरीन ने उनकी तरफ़ देखा तो मोहम्मद रफ़ी की आँखों में आँसू थे.
रात 10 बजकर 25 मिनट पर हृदयरोग विशेषज्ञ डॉक्टर मोदी ने बाहर आकर उनके परिवार वालों को बताया कि रफ़ी साहब अब इस दुनिया में नहीं रहे. उस समय उनकी उम्र मात्र 55 साल की थी. भारतीय फ़िल्म उद्योग के इतिहास में पहली बार मोहम्मद रफ़ी के सम्मान में दो दिन का शोक घोषित किया गया.
उनके साथ कई फ़िल्मों में काम कर चुके और उनके दोस्त नौशाद ने कहा, "वो करोड़ों के लिए ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके थे, जिनके गानों के साथ उनका दिन शुरू होता था और जिनके नग़मों के साथ ही उनकी रात ढलती थी. ऐसा हादसा हो गया कि ऐसा लग रहा है जैसे सात सुरों के सरगम से एक सुर कम हो गया. अब सिर्फ़ छह सुर ही बाक़ी रह गए हैं."
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