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प्रकाशी तोमर का निशाना ठीक जाकर 'Bull's Eye' पर हिट होता है, तो कोच हंसकर उत्साहवश सवाल करता है- तुम दोनों दादियां क्या खाती हो कि इतना पक्का निशाना लगता है? ''गाली..'', गंभीरता के साथ प्रकाशी जवाब देती है।
यह जवाब कोच के साथ साथ दर्शकों को भी खोखला कर जाता है। कहानी में एक ओर जहां महिलाओं की स्थिति पर बात होती है.. वहीं दूसरी ओर सपनों के उड़ान की अहमियत दिखाई गई है। ''तन बुड्ढा होता है, मन बुड्ढा नहीं होता'', हाथों में बंदूक थामे जब चंद्रो तोमर यह संवाद करती है तो संवेदनाओं के साथ साथ आपके मन में एक सम्मान भी उमड़ता है। भारत की सबसे उम्रदराज शार्पशूटर्स चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की यह कहानी बदलते समय के साथ नारी सशक्तिकरण को पेश करती है।
बागपत के तोमर खानदान में ब्याही गईं चंद्रो (भूमि पेडनेकर) और प्रकाशी (तापसी पन्नू) परिवार के पितृसत्तात्मक रवैये में ढ़ल जाती हैं और उनका जीवन खाना बनाते, खेतों में काम करते और बच्चे करते गुजर रहा है। घर की स्त्रियों ने खास रंग का घूंघट बांट रखा है, ताकि मर्द को अपनी पत्नी पहचानने में दुविधा ना हो। एक हमेशा लाल घूंघट में रहती है, एक पीली तो एक नीली.. और यही घूंघट उनकी पहचान है। लेकिन चंद्रो और प्रकाशी नहीं चाहतीं कि उनकी बेटियों को भी आगे चलकर ऐसी ही जिंदगी गुजारनी पड़े। लिहाजा, जीवन में कभी घूंघट भी ना उठाने वाली दादियां, 60 साल की उम्र में हाथों में बंदूक उठाती हैं ताकि उनकी बेटी, पोतियां प्रेरणा ले सकें। डॉक्टर से निशानेबाज़ी के कोच बने यशपाल (विनीत कुमार सिंह) की मदद से गांव में ही इनकी ट्रेनिंग होने लगती है। कोच को पहले दिन ही अहसास हो जाता है कि दोनों दादियों में गजब का टैलेंट है। वहीं, दादियों को निशानेबाजी से खुशी मिलती है। यह उनके गुस्सा और जज्बात निकालने का एक जरिया भी बन जाता है। चंद्रो और प्रकाशी मेडल पर मेडल जीतती चली जाती हैं। साथ ही बेटियों को भी आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती जाती हैं। प्रकाशी की बेटी का चयन अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लिए भी हो जाता है। जाहिर है तोमर खानदान के पुरूष इन सब बातों से अंजान रहते हैं। लिहाजा, दोनों दादी और उनकी बेटियां किस संघर्ष के साथ अपने सफलता और सम्मान की कहानी गढ़ती हैं, यही कहानी है 'सांड की आंख' की।
चंद्रो तोमर के किरदार में भूमि पेडनकर जबरदस्त लगी हैं। जिस प्रभावी ढ़ंग से उन्होंने अपने किरदार को पकड़ा है, वह काबिलेतारीफ है। उनके चलने, उठने, बोलने, खुश होकर झूमने और सम्मान पाने के दृश्यों में साफ दिखता है कि वह किस तरह अपने किरदार में रच बस गई हैं। वहीं, प्रकाशी तोमर बनीं तापसी पन्नू कई दृश्यों में कमज़ोर दिखीं। तापसी की मेहनत दिखती है, लेकिन नतीजा औसत रहा। उम्रदराज़ मेकअप के साथ तापसी अपने अभिनय का सामंजस्य बनाकर चल नहीं पाईं। कोच के किरदार में विनीत कुमार सिंह ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि किरदार कितना ही छोटा या बड़ा क्यों ना हो, उसे एक एक्टर प्रभावशाली बना सकता है। वहीं, सरपंच रतन सिंह बने प्रकाश झा ने भी सराहनीय काम किया है। फिल्म के सभी सह- कलाकार अपने किरदारों में खूब जमे हैं।
बॉलीवुड में बायोपिक फिल्मों की बाढ़ सी आई हुई है। ऐसे में सांड की आंख भीड़ से अलग स्थापित होती है। फिल्म का विषय काफी जबरदस्त है और इसमें समय समय पर कुछ ऐसे मोड़ हैं, जो आपको कहानी से बांधे रखेंगे। लेकिन यहां किसी भी चीज़ का ओवरडोज़ नहीं है। चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर की कहानी में निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने नयापन बनाए रखा है। उनका निर्देशन काफी सधा हुआ सा है। पितृसत्तात्मक समाज से लेकर, नारी सशक्तिकरण और ख्वाबों को बुनने तक की बात फिल्म में कही गई है, लेकिन कहीं भी बोर नहीं करती। हां, फिल्म की लंबाई थोड़ी कम की जा सकती थी। कुछ एक गानों को काटा छांटा जा सकता था। जगदीप सिंधु द्वारा लिखे गए संवाद दमदार हैं। कुछ संवादों पर तालियां बजीं, तो कुछ ने आंखों में आंसू लाए। संवाद के लिए फिल्म को पूरे नंबर दिये जा सकते हैं। विशाल मिश्रा का संगीत बढ़िया रहा। लेकिन फिल्म का जो सबसे कमजोर पक्ष रहा, वह है प्रॉस्थेटिक मेकअप। दोनों एक्ट्रेस पर किए गए मेकअप काफी नकली लगते हैं और कई दृश्यों में चुभते हैं।
यदि एक प्रेरणा देने वाली, सच्चे तौर पर नारी सशक्तिकरण को दिखाती कहानी देखना चाहते हैं तो 'सांड की आंख' जरूर देंखे। और अपने परिवार के साथ देंखे। तुषार हीरानंदानी के निर्देशन में बनी बॉयोपिक फिल्म 'सांड की आंख' एक मजबूत और संवेदनशील कहानी के साथ आपको मुस्कुराने का मौका देती है और सपने देखने के लिए प्रेरित करती है। फिल्मीबीट की ओर से फिल्म को 3.5 स्टार।
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