Just In
- 2 hrs ago मलाइका अरोड़ा के इन 8 कटिंग ब्लाउज को करें ट्राई, 500 की साड़ी में भी लगेगी हजारों की डिजाइनर साड़ी
- 3 hrs ago सीमा हैदर को याद आए पाकिस्तान के वो पुराने दिन, बोलीं- मैं रोती रही लेकिन.. एक रात के लिए भी...
- 4 hrs ago फ्लैट फिगर के कारण बुरी तरह ट्रोल हुई पूर्व मिस वर्ल्ड, लोग बोले- कुछ भी नहीं है आगे तुम्हारे...
- 4 hrs ago 14 की उम्र में कास्टिंग काउच की शिकार, B-Grade फिल्मों में भी किया काम, परेशान होकर खाया जहर
Don't Miss!
- News Kal ka Match Kaun jeeta 23 April: कल का मैच कौन जीता- चेन्नई vs लखनऊ
- Lifestyle Happy Birthday Sachin Tendulkar Wishes: अपने फेवरेट सचिन के 51वें जन्मदिन के मौके पर शेयर करें ये संदेश
- Education UK Board Result 2024: उत्तराखंड बोर्ड 10वीं, 12वीं रिजल्ट कब आएगा? चेक करें डेट और टाइम
- Automobiles KIA की इस कार को ग्लोबल NCAP क्रैश टेस्ट में मिली 5-स्टार रेटिंग्स, भरपूर सुरक्षा सुविधाओं से है लैस
- Technology Realme C65 5G भारत में 10 हजार से कम कीमत में होगा लॉन्च, जानें फीचर्स
- Travel IRCTC का मानसखंड यात्रा टूर पैकेज, देवभूमि उत्तराखंड के ऐतिहासिक मंदिरों में करें दर्शन
- Finance Aadhaar Card: कहीं आपके आधार कार्ड का गलत इस्तेमाल तो नहीं हुआ, ऐसे करें तुरंत चेक
- Sports Japan Open 2023: सेमीफाइनल में पहुंचे लक्ष्य सेन, एचएस प्रणय की विक्टर एक्सेलसन से भिड़ंत आज
ब्लॉग: अगर जय-वीरू की जगह बसंती-राधा की दोस्ती होती?
हिंदी फिल्मों में अक्सर हीरो की दोस्ती के ही किस्से होते हैं, मानो दोस्ती सिर्फ़ मर्दाना रिश्ता है।
शोले के जय और वीरू के किरदारों से छेड़छाड़ यूँ तो बहुत सारे फ़िल्म प्रेमियों के लिए किसी ग़ुनाह से कम नहीं होगी.
लेकिन फिर भी एक पल के लिए कल्पना कीजिए कि शोले की कहानी जय और वीरू नहीं 'राधा और बसंती' की दोस्ती की कहानी के धागे में पिरोई गई होती तो..
अपने हँसी-ख़ुशी के दिनों में हेमा मालिनी और राधा फटफटिया पे बैठकर गातीं-'ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे.' या फिर बसंती के टाँगे में.
लेकिन हक़ीकत ये है कि हिंदी फ़िल्मों में दोस्ती का मतलब दो हीरो के बीच दोस्ती की कहानी होती है.
फिर चाहे वो फ़िल्म दोस्ती में अच्छे-बुरे वक़्त में एक दूसरे का साथ निभाते दो दोस्तों की कहानी हो, एक दूसरे के लिए त्याग करते संगम के राज कपूर और राजेंद्र कुमार हों, शोले में जय-वीरू की दोस्ती हो...
अपने आप को तलाशते दिल चाहता है के तीन दोस्त हों, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा में बिछड़ते-मिलते दोस्तों की कहानी हों.. ये लंबी लिस्ट है.
तो क्या दोस्ती सिर्फ़ एक मर्दाना रिश्ता है ? क्या लड़कियों और औरतों में दोस्ती नहीं होती ?
अगर हाँ, तो इसकी झलक हिंदी फ़िल्मों में देखने को क्यों नहीं मिलती?
साइड रोल
इस हफ़्ते निर्देशक अपर्णा सेन की फ़िल्म सोनाटा के प्रोमो देखे तो यही ख़्याल ज़हन में आया.
सोनाटा तीन औरतों की दोस्ती और उनकी ज़िंदगी के इर्द गिर्द घूमती कहानी है जिसमें अपर्णा सेन, लिलेट दुबे और शबाना आज़मी ने रोल किया है.
वैसे जहाँ फ़िल्मों में हीरोइन का रोल यूँ भी कई बार साइड रोल से ज़्यादा नहीं होता, वहाँ औरतों की दोस्ती पर फ़िल्में बनना सब्ज़ बाग़ देखने जैसा ही है.
दोस्ती जैसे रिश्ते के भी कई आयाम, पर्तें और पहलू होते हैं.
थ्री इडियट्स की 'सहेलियाँ'
सोचती हूँ अगर अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना की जगह दो अभिनेत्रियाँ आनंद और बाबूमोशाई के बीच के अनोखे रिश्ते को निभातीं, फ़ुकरे में भोली पंजाबन (ऋचा चढ्ढा) कोई मर्द होता और कहानी लड़कों की नहीं कुछ सहेलियों की होती...
या फिर ज़ंजीर की कहानी कुछ ऐसी होती कि कोई 'महिला प्राण' जया बच्चन के लिए यारी है ईमान मेरा' गातीं...
थ्री इडियट्स किन्हीं तीन सहेलियों की कहानी होती जहाँ आमिर खान बीच-बीच में स्कूटी पर सवार होकर झलक दिखलाते रहते.
वैसे बीच-बीच में कभी कभार कुछ फ़िल्में आई हैं जहाँ औरतों की दोस्ती के किस्सों की झलक मिली है.
फ़िल्म क्वीन में शादी टूटने के बाद रानी (कंगना) पेरिस में होटल में काम करने वाली विजयलक्ष्मी (लीज़ा हेडन) से मिलती है.
कंगना और लीज़ा अपनी सोच और चाल-चलन में कोसों दूर हैं लेकिन फ़िल्म में लीज़ा कंगना के लिए सबसे मज़बूत कंधा बनकर उभरती हैं. फ़िल्म में रानी को सेल्फ़ डिस्कवरी की राह दरअसल विजयलक्ष्मी ही दिखाती है.
दोस्ती की डोर
ऐसी ही एक झलक फ़िल्म डोर में भी देखने को मिली थी.
पति के क़त्ल के बाद आयशा टाकिया गाँव में ससुराल में घुटन भरे माहौल में ज़िंदा है. तो गुल पनाग के पति की ज़िंदगी आयशा के हाथ में हैं.
दोनों के बीच के तनाव भरे लेकिन ख़ूबसूरत रिश्ते को नागेश कुकुनूर ने बख़ूबी क़ैद किया है जहाँ आयशा एक काग़ज़ पर दस्तख़्त कर गुल पनाग के पति को क़त्ल के इलज़ाम से आज़ाद कर देती है.
लेकिन असल में गुल आयशा को अपने साथ ले जाकर उसे दमन से आज़ादी दिलाती है.
1982 में आई फ़िल्म मिर्च मसाला का वो आख़िरी सीन मुझे बहुत पावरफ़ुल लगता है जब सूबेदार ( नसीरुद्दीन) फ़ैक्ट्री में काम करने वाली सोनबाई (स्मिता पाटिल) को जबरन ले जाने आता है..
लेकिन फैक्ट्री की सब औरतें मुट्ठियाँ भर-भर के लाल मिर्च सूबेदार की आँखों में झोंक देती हैं और फ़िल्म कराहते हुए सूबेदार पर ख़त्म हो जाती हैं.
लेकिन औरतों के आपसी रिश्तों को खंगालती ऐसी फ़िल्में कम ही बनती हैं.
कैलेंडर गर्ल्स
2005 में जब मैं लंदन में नई-नई रहने गई तो फिल्मों की एक अलग ही दुनिया से मैं रूबरू हुई.
ऐसी ही एक ब्रितानी फ़िल्म थी 2003 में आई द कलैंडर गर्ल्स. ये अधेड़ उम्र की ऐसी सहेलियों की सच्ची कहानी पर बनी थी जो ल्यूकीमिया मरीज़ों के लिए पैसा इकट्ठा करने के लिए मिलकर एक कैलेंडर छपवाने का सोचती हैं.
इस कैलेंडर में उन्हें नग्न दिखना था लेकिन कुछ ऐसी मुद्रा में जहाँ वो अपने घर के रोज़ाना के काम कर रही होंगी. ये उन औरतों की ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, पेचीदगियों, मनमुटाव और दोस्ती को खंगालती बहुत पावरफ़ुल फ़िल्म लगी थी मुझे जिसे अवॉर्ड भी मिले.
क्या हिंदी में कभी कोई ऐसी फ़िल्म बन सकती है जिसमें हेलन मिरन 58 साल की थी और उनके दोस्त के रोल में जूली वॉल्टर्स 53 साल की?
ख़ैर शोले पर लौटें तो उसका एक रीमेक तो बन ही चुका है.
जय तो अब रहा नहीं.. तो सोचती हूँ कि अगर कभी शोले का सीक्वल बनना हो तो क्यों न जय की मौत के बाद राधा (जया) और बसंती (हेमा) की दोस्ती की कहानी बने.
वो कहते हैं न 'वाए शुड ब्याज़ हैव ऑल द फ़न'.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)